मुर्गी या अण्डा, कटआउट और झण्डा

0
1492

ओम वर्मा

भारत त्योहारों का देश है। यकीन न हो तो आप कोई भी कैलेंडर उठाकर देख लें। हर दिन किसी न किसी धर्म, जाति, संप्रदाय, खाप या क़बीले का त्योहार या उसके किसी ‘महापुरुष’ की जन्म या निर्वाण तिथि मिलेगी। उस दिन भी इनमें से कोई बड़ा त्योहार ही था।

हर त्योहार की तरह उस दिन भी उमंग-उल्लास देखते ही बनता था। सुबह के बाद थोड़ा समय सुख-चैन से बीता ही था कि दोपहर तक उमंग और उल्लास उन्माद में बदलने लगा। आठ-दस डीजे साउंड एवं ‘उभरते’ नेताओं के आदमकद पोस्टरों से सजे-सँवरे वाहन शहर में घूमने लगे।

देखते ही देखते शहर का कोना-कोना कानफोड़ू संगीत के शोर-शराबे में डूब गया। बीमार अपने-अपने इष्ट देवता का स्मरण करने लगे। कुछ लोगों की नजरों में, घर में बोझ समझे जाने वाले वरिष्ठ नागरिक अपनी बेकाबू धड़कनों को थामने की  नाक़ामयाब कोशिशें करने लगे।

आख़िर हिम्मत करके एक कबीरनुमा सज्जन ने चौराहे पर जाकर एक अति उत्साही कार्यकर्ता को समझाने, यानी भैंस के आगे बीन बजाने का प्रयास करते हुए कहा, “भाई! थोड़ा कम आवाज़ में बजाओ। इतनी तेज आवाज से बच्चे, बूढ़े और बीमार सभी को तकलीफ़ होती है।”

इस पर ‘धर्मप्रेमी’ सज्जन ने जवाब दिया, “क्यों भिया, हमको तो मना कर रिये हो, पर जब ‘उनके’ त्योहार पर वे ज़ोर से बजाते हैं तब उनकू क्यों नी रोकते!” ज़ाहिर है कि कबीर निरुत्तर हो गए थे।

कुछ दिन बाद दूसरे संप्रदाय का त्योहार आया। फिर वही कानफोड़ू डीजे साउंड…शोर-शराबा, नारों से गूँजता और झंडियों से पटा शहर…! बदला था तो सिर्फ लोगों के दुपट्टों, टोपियों और झंडियों का रंग। इस कबीर की फिर वही पीड़ा थी। इसने फिर वही ज़ुर्रत की। और ज़ाहिर है कि फिर वही उत्तर पाया, “क्यों हमको तो मना कर रिये हो पर…।’

कबीर का यह वंशज तब से अब तक दोनों समुदायों के बीच अपने प्रश्नों का उत्तर खोज रहा है। तय नहीं हो पा रहा है कि यह घातक ध्वनि प्रदूषण आख़िर किस धर्म, मज़हब या समुदाय के अनुयायी फैला रहे हैं? बच्चों, बुज़ुर्गों और बीमारों की शांति पर डाका आख़िर कौन डाल रहे हैं? ये इसलिए चिल्ला रहे हैं कि कल वो चिल्ला रहे थे…! कल वो इसलिए चिल्लाएँगे कि आज इन्होंने नाक में दम कर रखा है।

ऐसी कई श्रृंखलाएँ अनवरत जारी हैं। आज ये संसद इसलिए ठप कर रहे हैं कि कल उन्होंने की थी। या अगली बार सत्ता में ये आ गए तो कल वे करेंगे। ये उनको इसलिए मार रहे हैं कि कल जब उनकी सरकार थी तो उन्होंने इनको मारा था। कल अगर उनके दिन फिर गए तो फिर इनकी ख़ैर नहीं! कल जब वो पत्थर मारते थे तो ये उनको मासूम और निर्दोष नज़र आते थे। आज जब उनकी  ही हुकूमत है तो वे तय नहीं कर पा रहे हैं आलाप ‘घोड़े’ से शुरू करें या ‘चतुर’ से? वही लोग, वही पत्थर, मारने वाले वही, चोट खाने वाले भी वही, मगर कल जिस कृत्य को सही बता चुके उसे आज ग़लत ठहरा रहे हैं।

सीधी सी बात तो यह है कि मुर्गी क्यों है? क्योंकि अण्डा है। वही अण्डा जो किसी मुर्गी ने ही दिया है। पहले किसे ख़त्म किया जाए ताकि दूसरा भी न रहे, यह चिंतन आज और भी प्रासंगिक हो गया है। मुर्गी पक्ष वाले और अण्डा पक्ष वाले दोनों यह कब समझेंगे कि उदरस्थ तो दोनों को ही किया जा रहा है। और पहले आप-पहले आप में उधर बापू की आत्मा लहू-लुहान है, इधर हमारी ‘शांति एक्सप्रेस’ बार-बार छूटती जा रही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here