यूं तो कालाधन ठिकाने लगाने की जुगत 8 नवंबर की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस भाषण के बाद ही शुरू हो गई थी जिसमें उन्होंने 500 और 1000 के नोट बंद करने का ऐलान किया था। लेकिन समय बीतने के साथ जैसे सरकार ने अपनी घोषणाओं में नए नए संशोधन और परिवर्तन किए उसी तरह कालाधन रखने वालों ने भी उसे ठिकाने लगाने के नए नए तरीके ईजाद कर लिए।
यह कुछ लोगों का दुर्भाग्य ही था कि मोदीजी ने ऐन दिवाली के एक सप्ताह बाद ही बड़े नोट बंद करने का ऐलान कर दिया। जो लोग सरकारी और व्यापारिक परंपराओं से वाकिफ हैं, वे जानते हैं कि दिवाली के मौके पर कई नेताओं और अफसरों के यहां कुछ ‘विशेष मिठाई’ के डिब्बे जाते हैं। दिवाली की ‘मेल मुलाकात’ का यह सिलसिला कच्चा-पक्का महीने भर तक चलता रहता है। लिहाजा अफसरों और नेताओं के घरों पर ऐसे खास डिब्बों का अंबार लग जाता है। हर साल उन्हें बाद में आराम से ठिकाने लगाया जाता रहा है। लेकिन इस बार मोदीजी ने वह माल ठिकाने लगाने के काम में भांजी मार दी।
नोटबंदी के ऐलान के बाद राजधानी भोपाल की चार इमली और 74 बंगले जैसी बस्तियों में 24 घंटे के भीतर ही फोन घनघनाने लगे थे। कूट मैसेज था- ‘यार ये दिवाली की रद्दी उठवा लो।‘ अफसरों और नेताओं की मदद से घूरे को सोना बनाने वाले ‘कबाड़ी’ इस मैसेज की गंभीरता को तत्काल समझ गए और आनन फानन में साहब लोगों के यहां ‘स्वच्छता अभियान’चला दिया गया।
और इस तरह अपने अपने कबाड़ी या सफाईकर्मी, साहबों के घर से दिवाली की सारी ‘रद्दी’, सारा कूड़ा उठा ले गए। उन्हें सिर्फ यह ताकीद की गई कि इस घूरे को सोना बनाकर दे जाना। बाजार में 20 से 30 रुपए का बट्टा लेकर काले नोटों को सफेद करने का धंधा चल रहा था लेकिन इस ‘खास रद्दी’ के कबाडि़यों के लिए निर्देश था कि माल की पूरी कीमत चाहिए। जो भी बट्टा हो वो तुम ‘एडजस्ट‘ कर लेना।
यह तो हुई वर्तमान की कथा। अब जरा इसका भविष्य बांचिए। इस भविष्य की दो ब्रांच हैं। पहली ब्रांच में वो अफसर या नेता आते हैं जो अपनी सारी रद्दी ठिकाने नहीं लगा पाए और वो ‘मोदी दीमक’ की भेंट चढ़ गई। दूसरे वे जिन्होंने अपने कबाडि़यों के हाथों सारी रद्दी रफा-दफा करवा दी। अब पहली ब्रांच वाला अफसर भविष्य में पूरी ताकत इसमें झोंक देगा कि किस तरह उसके काले नुकसान की भरपाई हो। लिहाजा लूट खसोट की डिग्री बढ़ेगी। और दूसरी ब्रांच वाला खुद इस लूट खसोट का अवसर अपने-अपने कबाडि़यों या ठेकेदारों को देगा, ताकि जिन्होंने 20-30 परसेंट का घाटा सहकर साहब के काले चेहरे को फेयर एंड लवली बनाए रखा है, उनके बाल बच्चों को भी दाल रोटी मिल सके।
दोनों बातों के लिए दांव पर सरकारी खजाना ही लगेगा। पहले मामले में ठेकेदारों या दलालों से अपने घाटे की भरपाई करवाने के लिए निर्माण कार्यों या सप्लाई की शर्तों में उनकी ‘सुविधानुसार’ बदलाव या व्यवस्था होगी, तो दूसरे मामले में ठेकेदारों या दलालों द्वारा दिखाई गई ‘सदाशयता’ का इनाम देने के लिए ऐसा किया जाएगा। दोनों ही सूरत में कामों की या सामान की गुणवत्ता से समझौता होगा। सरकारी खजाने से भुगतान तो पूरा किया जाएगा, लेकिन उसमें खाने खेलने की गुंजाइश भरपूर छोड़ी जाएगी।
यानी न तो अफसर अपनी काली कमाई का नुकसान सहन करेगा, न ही नेता। इस नुकसान का ठीकरा घूम फिरकर सरकारी खजाने अर्थात जनता के माथे पर ही फूटेगा।
मेरे एक चार्टर्ड अकाउंटेंट मित्र ने पिछले दिनों मुझे बहुत सटीक बात कही। उनका कहना था कि सरकार पता नहीं क्यों कर चोरी को रोकने या कर पटाने वालों पर शिकंजा कसकर कालेधन को खत्म करने के ख्वाब देख रही है। जबकि कालेधन का असली स्रोत कर चोरी नहीं बल्कि क्राइम और करप्शन है। जब तक इन पर चोट नहीं होती आप कालेधन को रोक ही नहीं सकते। कालेधन के पहाड़ में टैक्स चोरी का धन तो राई के बराबर ही होता है।
तो अब सरकार यह बताए कि नोटबंदी के क्रांतिकारी फैसले के बाद क्या उसने इस बात के भी पुख्ता प्रबंध कर लिए हैं कि क्राइम या करप्शन यानी अपराध और भ्रष्टाचार के कारण भविष्य में देश में कोई काला धन पैदा नहीं होगा। यह सवाल इसलिए है कि जिन लोगों ने अपनी दिवाली की रद्दी अपने-अपने कबाडि़यों को बेच दी है, उनके पास उतना ही कालाधन फिर से जमा हो गया है। और जो लोग अपनी रद्दी नहीं बेच पाए वे पुराने 500-1000 के नोटों के बजाय 2000 के नोट की शक्ल में अधिक सुविधाजनक ढंग से रिश्वत का पैसा ले लेंगे।
इसीलिए आपको काली जेब वाले ये सारे सफेदपोश इतने निश्चिंत दिखाई दे रहे हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कोई तो बड़ा अफसर, सांसद, विधायक, नेता या बड़ा उद्योगपति इतने दिनों में एटीएम अथवा बैंकों की लाइन में कभी खड़ा दिखाई देता। पर चूंकि ऐसा दिख नहीं रहा तो कालेधन पर रोक की इस दाल में काला नजर आना स्वाभाविक है।