72 वें स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर 15 अगस्त को लालकिले से प्रधानमंत्री का भाषण हो चुका था। केरल में सदी की सबसे भयानक बाढ़ का पानी चढ़ने लगा था, देश के कई मीडिया वाले और ‘हिन्दी सेवी’ विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिए मॉरिशस रवाना हो रहे थे, दिल्ली में पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की स्थिति को लेकर सूचनाएं लगातार ऊपर नीचे हो रही थीं… और इसी बीच देश के विभिन्न भागों से कुछ पत्रकार, कुछ सामाजिक कार्यकर्ता और कुछ स्वयंसेवी संगठनों के प्रतिनिधि महात्मा गांधी की पुण्य भूमि सेवाग्राम के लिए चल पड़े थे। इन्हीं लोगों में मैं भी शामिल था।
महाराष्ट्र के वर्धा जिले में स्थित सेवाग्राम में भोपाल के गैर सरकारी संगठन विकास संवाद, सेवाग्राम कलेक्टिव, नई तालीम समिति और सेवाग्राम आश्रम प्रतिष्ठान ने मिलकर 17 से 19 अगस्त तक ‘गांधी एक माध्यम या संदेश’ विषय पर राष्ट्रीय मीडिया संवाद आयोजित किया था। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के संदर्भ में हुए इस आयोजन का उद्देश्य गांधी पर वर्तमान परिस्थितियों में विमर्श करना था।
मैं आज से, आने वाले कुछ दिनों तक, इसी विमर्श को लेकर बात करूंगा। यह तय है कि बात मुझे गांधी पर ही करनी है, लेकिन उसकी शुरुआत मैं अटलबिहारी वाजपेयी से करना चाहूंगा। 16 अगस्त को मेरे सेवाग्राम पहुंचते पहुंचते अटलबिहारी वाजपेयी के निधन की सूचना आ चुकी थी। जाहिर था गांधी और वाजपेयी को जोड़ते हुए कई बातें मन में उठने लगी थीं।
इस जुड़ाव को उस समय और मजबूती मिली जब 17 अगस्त को विमर्श के पहले ही दिन सत्र की शुरुआत में वाजपेयी जी को श्रद्धांजलि देने की बात कही गई। लेकिन, श्रद्धांजलि शुरू होती इससे पहले ही एक घटना हुई। नई तालीम समिति के अध्यक्ष डॉ. सुगन बरंठ ने कहा- हम वाजपेयीजी के साथ ही एम. करुणानिधि और सोमनाथ चटर्जी को भी श्रद्धांजलि देंगे।
जैसे ही ये नाम सामने आए, मेरे मन में पहला विचार ही यह आया कि ऐसी बात गांधी के आश्रम में ही संभव हो सकती है। कहां सनातन परंपरा के हिंदू वाजपेयी, कहां द्रविड़ राजनीति के करुणानिधि और कहां साम्यवादी राजनीति के सोमनाथ चटर्जी… विचारों के लिहाज से कहें या फिर राजनीति के लिहाज से,इन तीनों नेताओं में कहीं कोई साम्य नहीं है, लेकिन गांधी के आश्रम में इन तीनों के लिए प्रार्थना हो रही है… आज की भारतीय राजनीति में ऐसे चमत्कार की वजह सिर्फ गांधी ही बन सकते हैं…
जैसा मैंने कहा कि बात मुझे अंतत: गांधी पर ही करनी है, लेकिन उसकी शुरुआत मैं वाजपेयी से करूंगा। ऐसा इसलिए है कि ये वाजपेयी ही थे जिन्होंने अपनी पार्टी या कि अपने मातृ संगठन पर, गांधी के हत्यारे होने जैसा आरोप चस्पा होने के बावजूद, भारतीय जनता पार्टी के गठन के पहले ही अधिवेशन में गांधी के विचार को महत्व देते हुए अपनी राजनीतिक अवधारणा को उसी पर केंद्रित किया था।
जरा याद कीजिये 6 अप्रैल 1980 को मुंबई में भाजपा के पहले अधिवेशन में अध्यक्ष के तौर पर दिया गया वाजपेयी जी का वह पहला भाषण, जिसमें उन्होंने पहले जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का नाम लिया और उनके अधूरे सपनों को पूरा करने की बात की। फिर अपनी नई पार्टी भाजपा की विचारधारा को‘गांधीवादी समाजवाद’ नाम दिया। गौर कीजिए कि भाजपा के पहले अध्यक्ष वाजपेयी, दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ की नहीं ‘गांधीवादी समाजवाद’ की बात कर रहे थे।
वाजपेयी के उस भाषण के कुछ अंश, मैं संदर्भ के लिए उद्धृत करना चाहूंगा। वे कहते हैं-
‘’भारतीय जनता पार्टी ने सोच समझकर ‘गांधीवादी समाजवाद’ को स्वीकार किया है। स्वयं गांधी जी अपने विचारों को किसी वाद का रूप देने के पक्ष में नहीं थे, किंतु उन्होंने जीवन को न केवल उसकी समग्रता में देखा था, बल्कि आधुनिक समस्याओं के हल के बारे में एक समन्वित दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया था।
उन्होंने मनुष्य का विचार मात्र आर्थिक इकाई के रूप में नहीं किया। सभी प्राचीन मनीषियों की भांति महात्मा जी भी मनुष्य की भौतिक और आध्यात्मिक दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति को अपना लक्ष्य बनाते हैं। गांधी जी से पहले स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिक समाजवाद की बात कही थी। गीता में साम्ययोग की चर्चा है।
महात्मा और मार्क्स द्वारा प्रणीत समाजवाद में मौलिक अंतर है। गांधीवादी समाजवाद पुरातन काल से विकसित मानवीय मूल्यों से प्रारंभ करता है और फिर उन्हीं मूल्यों के आधार पर आर्थिक और सामाजिक व्यवस्थाओं के पुनर्निर्माण पर बल देता है। इसके विपरीत मार्क्स की विचारधारा में मानवीय मूल्य सामाजिक संबंधों, भौतिक परिस्थितियों और उत्पादन के ढंगों पर निर्भर करते हैं।
गांधीवाद और मार्क्सवाद दोनों मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को समाप्त करने का दावा करते हैं, किंतु मार्क्सवाद बिना अपनी चौखट को लांघे यह नहीं बता सकता कि वह ऐसा क्यों करना चाहता है। गांधीवाद इस आधारभूत मान्यता से ही प्रारंभ करता है कि मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण मानवीय मूल्यों की अवहेलना है। मानव मूल्यों के ह्रास के कारण होने वाला ऐसा शोषण मानवीय मूल्यों के विकास का परिणाम नहीं है।
वास्तव में आर्थिक-सामाजिक व्यवस्थाओं की प्रगति के किसी दौर में तथा उस समय सक्रिय भौतिक शक्तियों के कारण, मूल्यों का जो ह्रास हुआ, यह उसका परिणाम है। गांधी जी का समाजवाद इस बात पर बल देता है कि शोषणरहित समाज की रचना में ऐसी व्यवस्था का विकास जरूरी है, जिस पर सामाजिक परिवर्तन का ढांचा खड़ा किया जा सके तथा जिसे कसौटी बनाकर उस ढांचे की उपयोगिता को भी परखा जा सके।
मार्क्सवादी यह नहीं बता पाते कि पूंजीवाद की समाप्ति के बाद क्या होगा, सिवाय इसके कि वे एक वर्गविहीन समाज की रचना करेंगे। किंतु व्यवहार में तो उलटा ही दिखाई देता है। उनकी व्यवस्था एक क्रूर तथा अधिनायकवादी व्यवस्था में ढल जाती है, जिसमें सभी मानवीय मूल्य स्वाहा हो जाते हैं।‘’
यह बात अलग है कि वाजपेयी के ‘गांधीवादी समाजवाद’ का यह विचार, भाजपा के सत्ता में आने के बाद आगे चलकर दीनदयाल उपाध्याय के ‘एकात्म मानववाद’ में परिवर्तित हो गया। (जारी)