संघीय ढांचे के लिए बहुत खतरनाक है यह टकराव

नागरिकता संशोधन कानून को लेकर सबसे ज्‍यादा फजीता देश के संघीय ढांचे का हो रहा है। हमारे संविधान में केंद्र और राज्‍य के संबंधों की बहुत स्‍पष्‍ट व्‍याख्‍या है। उसमें एक तरफ केंद्र के अधिकार और दायित्‍व तय हैं तो राज्‍यों के भी। देश की सरकार के संचालन में केंद्र की भूमिका का भी ब्‍योरा है तो राज्‍यों की सत्‍ता संचालित करते हुए केंद्र के साथ राज्‍यों के संबंधों को भी स्‍पष्‍ट किया गया है। लेकिन ऐसा लगता है कि आज की परिस्थिति में सारी बातें गड्मड्ड हो गई हैं और संविधान की दुहाई देते हुए उसके ही पन्‍नों को और शब्‍दों को तार-तार किया जा रहा है।

पहले नागरिकता संशोधन कानून (सीएए), फिर राष्‍ट्रीय नागरिकता रजिस्‍टर (एनआरसी) और अब राष्‍ट्रीय जनसंख्‍या रजिस्‍टर (एनपीआर) को लेकर कांग्रेसशासित राज्‍यों के अलावा कुछ एनडीए के सहयोगी दलों की सरकार वाले राज्‍यों और अन्‍य दलों की सत्‍ता वाले प्रदेशों के मुख्‍यमंत्रियों ने जिस तरह साफ साफ कह दिया है कि वे इन कानूनों या प्रक्रियाओं को अपने यहां लागू नहीं करेंगे, वह यह बताता है कि केंद्र व राज्‍य के संबंधों में किस हद तक तल्‍खी घुल गई है।

पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी तो पहले ही दिन से नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करते हुए खुद सड़कों पर उतरी हुई हैं। इस बीच कांग्रेस शासित राज्‍यों के मुख्‍यमंत्री भी अपने अपने राज्‍यों में इस कानून को, विभाजनकारी बताते हुए सड़कों पर उतर आए हैं। 25 दिसंबर को ऐसा ही एक प्रदर्शन मध्‍यप्रदेश की राजधानी भोपाल में मुख्‍यमंत्री कमलनाथ की अगुवाई में हुआ। इससे पहले 22 दिसंबर को जयपुर में मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत के नेतृत्‍व में प्रदर्शन हुआ था। सरकार के मुखियाओं का, संसद द्वारा बनाए गए कानून के खिलाफ इस तरह सड़क पर उतरना सामान्‍य घटना नहीं है।

केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए कानून के विरोध और उसे लागू न करने की घोषणाओं पर हालांकि सत्‍तारूढ़ भाजपा ने तीखी प्रतिक्रिया करते हुए इसे संवैधनिक व्‍यवस्‍था का उल्‍लंघन बताया है। राष्‍ट्रपति से मुलाकात कर कानून को वापस लेने की विपक्षी नेताओं की मांग पर गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि विपक्षी दल जो करना चाहें कर लें, लेकिन इसे वापस नहीं लिया जाएगा। शाह का आरोप है कि कुछ राजनीतिक दल इस मसले पर हिंदू और मुस्लिम में भेद पैदा करना चाहते हैं।

कानून के समर्थन और विरोध की इस स्थिति ने सबसे बड़ा सवाल यह पैदा किया है कि क्‍या देश केंद्र और राज्‍यों के बीच किसी खतरनाक टकराव की ओर बढ़ रहा है? निश्चित रूप से संविधान में केंद्र को बहुत सारी शक्तियां दी गई हैं लेकिन पूर्व में ऐसा कभी नहीं देखा गया कि राज्‍य इस तरह से केंद्र के खिलाफ उठ खड़े हुए हों और सार्वजनिक रूप से बयान देते हुए और सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन करते हुए यह कह रहे हों कि वे केंद्र सरकार द्वारा लाए गए कानून को लागू नहीं करेंगे।

वैसे पिछले कुछ समय से केंद्र और राज्‍यों के बीच टकराव की स्थितियां बढ़ती जा रही हैं। ऐसे ही एक टकराव की स्थिति नए मोटरयान कानून को लेकर बनी थी जिसमें यातायात नियमों का उल्‍लंघन करने के मामले में भारी जुर्माने का प्रावधान किया गया था। बहुत राजनीतिक घमासान के बाद लागू हुए जीएसटी को लेकर भी यह टकराव बढ़ रहा है। राज्‍यों का कहना है कि उन्‍हें जीएसटी का अपना शेयर नहीं मिल रहा है। मध्‍यप्रदेश जैसे राज्‍य में सरकार प्राकृतिक आपदा और अन्‍य मामलों में केंद्रीय सहायता न मिलने या कम किए जाने को लेकर विरोध जता चुकी है।

कुछ समय पहले ऐसी ही स्थिति सीबीआई द्वारा की जाने वाली कार्रवाई को लेकर भी बनी थी और पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी ने और आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू ने सीबीआई अधिकारियों के दल को राज्‍य में कार्रवाई के लिए घुसने से रोक दिया था। कोलकाता पुलिस कमिश्‍नर के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई के मामले में तो ममता बैनर्जी धरने पर बैठ गई थीं और कोर्ट के दखल से मामले में कार्रवाई आगे बढ़ पाई थी।

महाराष्‍ट्र में उद्धव ठाकरे के नेतृत्‍व में ताजा ताजा बनी शिवसेना, राष्‍ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस पार्टी की सरकार ने सत्‍ता में आने के बाद ही केंद्र की महत्‍वाकांक्षी बुलेट ट्रेन योजना पर पुनर्विचार के संकेत दे दिए हैं। इससे पहले उद्धव सरकार आरे मेट्रो शेड निर्माण पर भी रोक लगा चुकी है। सीएए, एनआरसी विवाद में एनपीआर का नाम जुड़ जाने के बाद कई राज्‍य सरकारों ने इसे भी अपने यहां लागू न करने की बात कही है।

अब सवाल यह है कि यदि राज्‍य सरकारें केंद्र के खिलाफ ताल ठोककर खड़ी हो जाएं या केंद्र के फैसलों के खिलाफ कोई कंसोर्टियम बनाकर एकजुट विरोध करते हुए केंद्रीय कानूनों और निर्देशों को अपने यहां लागू करने से मना करें, केंद्रीय एजेंसियों को अपने यहां काम करने या फिर उनके अपने यहां घुसने पर पाबंदी लगा दें तो क्‍या होगा? कहा जा सकता है कि ऐसी स्थिति में केंद्र को राज्‍यों के खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है। लेकिन विरोध यदि सामूहिक हो तो क्‍या केंद्र ऐसी किसी भी कार्रवाई को आसानी से अंजाम दे पाएगा?

मान लें कि केंद्र सरकार ऐसी सभी राज्‍य सरकारों को भंग कर दे। पर क्‍या उससे समस्‍या सुलझ जाएगी? यदि सड़कों पर व्‍यापक विरोध शुरू हुआ तो केंद्र सरकार कहां कहां कितनी सेना, अर्धसैनिक बल और पुलिस भेजेगी? कहां कहां लोगों पर लाठी-गोली चलाई जाएगी? कितने लोगों को जेलों में ठूंसा जाएगा और कितने दिनों तक?

जाहिर है ये सभी सवाल ‘काल्‍पनिक’ हैं। लेकिन क्‍या ऐसा नहीं लगता कि जो हालात बन रहे हैं उनमें ऐसी कल्‍पनाएं साकार होने की गुंजाइश भी बनती है। माना कि ये सवाल डराने वाले हैं, लेकिन क्‍या यह डर बिलकुल निराधार है? जिस तरह केंद्र और राज्‍यों के बीच अबोला और अनबन बढ़ती जा रही है उससे यह डर और बढ़ता है। डर इसलिए भी बढ़ता है कि देश के राजनीतिक नक्‍शे का रंग झारखंड चुनाव के बाद और ज्‍यादा बदल गया है। विरोध होने पर संवाद करने और विवादास्‍पद मुद्दों पर सहमति बनाने के प्रयासों के अभाव ने इस स्थिति को और विकट बना दिया है।

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