लिखना हमारा काम है। हम रोज ही लिखते हैं। यही हमारी रोजी-रोटी है। यह बात अलग है कि हमारे इस लिखे हुए को लोग पसंद और नापसंद के खेमों में बांटकर देखते-पढ़ते हैं। कही हुई बात का हर कोई अपने हिसाब से मतलब निकालता है। कोई उसमें प्रशंसा देखता है तो कोई कटाक्ष।
इस लिहाज से देखें तो हम भी सार्वजनिक जीवन में ही हैं, क्योंकि हमारा लिखा अपनी किसी निजी डायरी में बंद होकर नहीं रह जाता। वह सार्वजनिक मंच पर नुमाया होता है और हरेक को आजादी है उस पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की।
ये प्रतिक्रियाएं कई बार हौसला बढ़ाती हैं तो कई बार हमें ‘अप्रिय’ भी सुनना पड़ता है। बाकी क्षेत्र के लोगों को लगता होगा कि हम आलोचना प्रूफ हैं, लेकिन ऐसा कतई नहीं है। जबसे मीडिया और संचार के संसाधनों खासतौर से सोशल मीडिया जैसे प्लेटफार्म का विस्तार हुआ है आलोचना के मामले में कोई भी निरापद नहीं रह गया है।
प्रशांत जैन भोपाल में समाचार एजेंसी यूएनआई के ब्यूरो प्रमुख हैं। वे एक समय मेरे सहयोगी रहे हैं। 25 मई को उनका फोन आया और उन्होंने मुझे इस बात के लिए बधाई दी कि मैंने जो विषय उठाया है वैसे विषयों के लिए अब मीडिया में बहुत कम जगह बची है। उनका कहना था कि मीडिया की ज्यादातर जगह तो राजनीति खा जाती है, ऐसे में कोई ऐसे मुद्दे पर भी बात करे तो अच्छा लगता है।
प्रशांत ने जिस विषय को लेकर यह टिप्पणी की, वह दरअसल राजधानी भोपाल का निहायत ही लोकल विषय था। यहां की एक बस्ती में सार्वजनिक बोरवेल पर एक दबंग ने कब्जा कर लिया था और महापौर आलोक शर्मा ने सदल बल जाकर उस बोरवेल को मुक्त कराते हुए खुद वहां के लोगों को पानी बांटा था।
मैं मीडिया में लबे समय से हूं और खुद भी यह देख रहा हूं कि राजनीति और अन्य हाईफाई विषयों पर तो हर कोई लिखने को आतुर है। (भले ही उसे उस क्षेत्र की रत्ती भर जानकारी न हो) लेकिन ऐसे लोकल विषय जिनसे लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी के सरोकार जुड़े हैं, उन पर कोई नहीं लिखना चाहता।
जबकि असलियत यह है कि ये मुद्दे या ये समस्याएं किसी भी राजनीतिक अथवा राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे से ज्यादा अहमियत रखती हैं। कल्पना कीजिए यदि आपके घर में पानी न आए, आपके यहां घंटों बिजली न रहे, आपके घर के सामने सीवेज लाइन चोक हो जाए, आपका फोन या इंटरनेट चालू न रहे तो आपकी प्राथमिकता क्या होगी।
क्या आप इन हालात में अपने घर में पानी की व्यवस्था करने पर, बिजली या टेलीफोन का कनेक्शन चालू करवाने पर या सीवेज लाइन की सफाई करवाने पर सबसे पहले ध्यान नहीं देंगे। आप उस समय पानी के टैंकर वाले को याद करेंगे कि शी जिन पिंग को।
लेकिन मैं देख रहा हूं कि इस समय रोजमर्रा के मुद्दों से लोगों को दूर ले जाकर या तो उन्हें राजनीति के अंधजाल में फंसाया जा रहा है या फिर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विवादों की अंधी सुरंग में। हमें डोकलाम पर या किम जोंग उन पर तो ढेर सारी सामग्री मिल सकती है लेकिन उस आदमी के बारे में नहीं जो हमारी बस्ती या मोहल्ले में पानी की सप्लाई या फिर साफसफाई के लिए जिम्मेदार है।
वैसे तो मैं वाट्सएप पर बहुत ज्यादा ग्रुप से जुड़ा नहीं हूं, क्योंकि मेरा मानना है कि ऐसे ग्रुप सूचनाएं कम देते हैं, समय की बरबादी ज्यादा करते हैं, लेकिन जितने भी ग्रुप से जुड़ा हूं वहां भी करीब 90 प्रतिशत सामग्री या तो राजनीतिक किस्सागोई से जुड़ी रहती है या फिर फालतू टाइप की चुटकुलेबाजी से।
ऐसे में स्थानीय या रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े मुद्दों पर ध्यान जाता ही नहीं है। प्रशांत ने सही कहा कि मोहल्लों में जल स्रोतों या पार्किंग स्थानों पर दबंगों के कब्जे को लेकर बहुत कम लिखा जाता है। जबकि इनसे हमें रोज जूझना पड़ता है।
मुझे याद है जब मैं चंडीगढ़ में था तो एक बड़े अंगरेजी अखबार के नामचीन संपादक अखबार के भीतरी पन्नों पर ‘सिविक प्रॉब्लम्स’ पर ही लिखा करते थे और उनका वह कॉलम अखबार के राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय अथवा प्रादेशिक मुद्दों पर लिखे जाने वाले कॉलमों से भी ज्यादा लोकप्रिय था।
दरअसल हमारे समय में सुनियोजित तरीके से डिस्कोर्स का धरातल ही बदल दिया गया है। हम उस राजनीति पर सबसे ज्यादा बात करते हैं जिससे हमारा सीधा या रोजमर्रा का उस तरह का संबंध नहीं है जितना पानी, बिजली, साफ सफाई और पार्किंग जैसे मुद्दों से।
ज्यादा दूर क्यों जाते हैं। मैं अपना ही एक उदाहरण दे देता हूं। भोपाल में बोरवेल पर दबंगों के कब्जे पर लिखने से पांच दिन पहले मैंने कर्नाटक में येदियुरप्पा के इस्तीफे को लेकर कॉलम लिखा था। कर्नाटक की राजनीति पर लिखे गए मेरे कॉलम को लेकर फेसबुक पर 170 से ज्यादा लोगों ने प्रतिक्रिया दी (और वह सिलसिला अभी भी जारी है), वहीं अपने प्रदेश की राजधानी में पीने के पानी से जुड़ी समस्या पर लिखे गए कॉलम पर मात्र दस प्रतिक्रियाएं ही आईं।
लोगों के रवैये में दिखाई दे रहे ये लक्षण खतरनाक हैं और गंभीरता से सोचने एवं विचारने की मांग करते हैं। कभी आप पुशअप में उलझा दिए जाते हैं तो कभी आइस बकेट चैलेंज में। देश में सबसे ज्यादा धमकी पाने वाले पत्रकार रवीश कुमार की जबानी कहें तो यह ‘चैनलों का भारत बनाम लोगों का भारत’ जैसा मामला है।
मीडिया को खुद पता नहीं है कि उसे किसकी बात सुनानी है और कौनसी बात सत्ता के संचालनकर्ताओं तक पहुंचानी है। उत्तरी कोरिया के तानाशाह को कौनसी बीमारी है यह हमारे डिस्कोर्स का विषय होना चाहिए या फिर हमारे मोहल्ले या बस्ती में मलेरिया से होने वाली मौतें?
जब हम खुद ही ध्यान बंटाने वाले इस जाल में फंसकर लोगों को भ्रमित करने की साजिश का हिस्सा बन जाते हैं तो सरकारों के लिए काम करना और ज्यादा सुविधाजनक हो जाता है। तभी वे हवाई जहाज के लेट होने पर लोगों को मुआवजा देने का फैसला तो कर लेती हैं लेकिन 20-22 घंटे लेट होने वाली ट्रेनों के यात्रियों की उन्हें सुध नहीं आती।
जनता के मुद्दे बदलने वाले षड़यंत्र में कहीं हम भी तो भागीदार नहीं हो रहे हैं? सोचिएगा जरूर…