8 अक्टूबर को वायुसेना दिवस पर अपने संदेश में वायुसेना प्रमुख अरूप राहा ने बहुत मार्के की बात कही। उन्होंने कहा- ‘’हम बोलेंगे नहीं, सिर्फ काम करके दिखाएंगे…’’ सामान्य परिस्थितियों में ऐसा कोई भी बयान बहुत ही सामान्य तरीके से लिया जाता, लेकिन एयर चीफ मार्शल ने जिस समय और जिन परिस्थितियों में यह बयान दिया है, उन्हें देखते हुए यह बयान एक तरह से राजनीतिक दलों को सेना की ओर से दी गई समयानुकूल नसीहत है।
भारतीय सेना ने अभी तक, पास पड़ोस के देशों की सेनाओं में पनपने वाले तमाम तरह के कीटाणुओं से मुक्त रहकर, दुनिया की सबसे अनुशासति फौज के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। आजादी के बाद चाहे युद्ध की परिस्थितियां रही हों या फिर घरेलू मोर्चे पर खड़े होने वाले राजनीतिक संकट, सेना ने हमेशा एक जिम्मेदार संस्था के रूप में काम किया है। न तो सेना किसी तरह के उकसावे में आई है और न ही उसने कभी अपनी सीमा को पार किया है। वह हमेशा अनुशासन की लक्ष्मण रेखा में रहकर ही अपना काम करती रही है।
पिछले दिनों उड़ी की घटना ने हमारी सेना को गंभीर जख्म दिए। उन जख्मों से उबरने और दुश्मन को माकूल जवाब देने के लिए सेना ने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को सफलतापूर्वक अंजाम दिया। लेकिन ऐसा लगता है कि‘सर्जिकल स्ट्राइक’ के बाद, राजनीतिक मोर्चे पर चलने वाले घमासन ने, सेना को उड़ी की घटना से भी ज्यादा आहत किया है, ज्यादा गंभीर घाव दिए हैं। ऐसा पहली बार हुआ है कि एक सफल कार्रवाई के बाद सेना की उपलब्धि पर देश के राजनेताओं ने न सिर्फ उंगली उठाई बल्कि इस बात के सबूत भी मांगे गए कि असल में‘सर्जिकल स्ट्राइक’ जैसी कोई कार्रवाई हुई भी थी या नहीं।
इस मामले पर राजनीतिक घटनाक्रम के चार बिंदु सबसे महत्वपूर्ण हैं। मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष संजय निरुपम जैसे ‘बड़बोले मूर्ख’ ने सीधे सीधे सेना की कार्रवाई को ‘फेक’ (फर्जी) बताया। ‘अतिशय समझदार’ अरविंद केजरीवाल ने पाकिस्तान के बयानों को ढाल बनाते हुए सरकार से सेना की कार्रवाई के सबूत मांग लिए।कांग्रेस के ‘नासमझ नेता’ राहुल गांधी के खून ने भी उबाल मारा और वे भी अपनी कच्ची पक्की डिक्शनरी से‘खून’ और ‘दलाली’ जैसे शब्द खोज लाए। और सबसे अलग देश के ‘रक्षा मंत्री’ मनोहर पर्रिकर ने सेना की उपलब्धि को लेकर खुद का अभिनंदन करवा डाला।
ऐसा लगता है कि सर्जिकल स्ट्राइक पर नेताओं का मुंह नहीं बल्कि सीवेज टैंक का ढक्कन खुल रहा है। उनके बयानों की बदबू से सारा माहौल गंधाया हुआ है। ऐसे में सेना का संयम बनाए रखना बेमिसाल घटना है। यह व्यवहार एक आश्वस्ति भी देता है कि देश में कोई तो संस्था ऐसी है जिसने अनुशासन, जिम्मेदारी, संयम और कर्तव्यबोध जैसे शब्दों को अपनी आचरण संहिता से मिटने नहीं दिया है। लेकिन अरूप राहा ने यह कहकर कि‘’हम बोलेंगे नहीं, करके दिखाएंगे…’’ नेताओं को आईना दिखाया है। तीन माह बाद वायुसेना प्रमुख पद से निवृत्त होने वाले राहा इससे पहले भी राजनीतिक नेतृत्व की समझ और कार्यशैली पर सवाल उठा चुके हैं।
उड़ी का हमला और सर्जिकल स्ट्राइक की घटना तो पिछले माह हुई है लेकिन मैं याद दिलाना चाहूंगा अरूप राहा का पिछले साल वायुसेना दिवस पर दिया गया भाषण जिसमें उन्होंने कहा था- ‘’भारतीय वायुसेना पाकिस्तान की सीमा से लगे इलाकों में चल रहे आतंकी कैंपों को ध्वस्त कर पाने सक्षम है, लेकिन इसका अंतिम फैसला सरकार को लेना होगा।‘’
‘चीफ ऑफ स्टॉफ कमेटी के चेयरमेन’ अरूप राहा से उस समय पूछा गया था कि जिस तरह सेना ने म्यांमार की सीमा में घुसकर नगा विद्रोहियों के शिविरों पर कार्रवाई की थी, क्या वायुसेना भी पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादी ठिकानों के खिलाफ कार्रवाई करने में सक्षम है? राहा बोले थे- ‘’आप हमारी क्षमता के बारे में जानना चाह रहे हैं, तो हां हम इसमें सक्षम हैं, लेकिन इसका निर्णय हम नहीं ले सकते।‘’ राजनीतिक नेतृत्व को पूरे एक साल पहले स्पष्ट संकेत देने वाली राहा की यह राय शायद अनसुनी ही रह गई।
सेना का दर्द पिछले माह भी राहा के मुंह से छलका था जब दिल्ली में एक सेमिनार में उन्होंने कहा था कि-‘’पाकिस्तान के कब्ज़े वाला कश्मीर हमारे गले की हड्डी बना हुआ है। वह आज भी हमारी आंखों में चुभता है।अगर पहले की लड़ाइयों में वायुसेना का सही इस्तेमाल होता तो हालात कुछ और होते।‘’
अब जरा वायुसेना अध्यक्ष के इन बयानों को ध्यान में रखते हुए, देश में हो रही राजनीतिक बकवास पर नजर डालिए। क्या ऐसा नहीं लगता कि सेना में हमारे राजनीतिक नेतृत्व और राजनीतिक गतिविधियों को लेकर खराश है। मैं न तो यह कह रहा हूं कि हमारी सेना नागरिक नेतृत्व में हस्तक्षेप की कोई मंशा रखती है या कि उसके इरादे ठीक नहीं है, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि जिस तरह राजनीति की गंदगी के गोले एक दूसरे पर फेंके जा रहे हैं, उन्हें लेकर सेना में अच्छा संकेत नहीं जा रहा है।
राजनीतिक नेतृत्व की न्यायपालिका से तो ठन ही गई है, कहीं गलीज राजनीति का यह टुच्चापन सेना की महान परंपराओं पर भी खरोंच न डाल दे।