कुछ मामलों में भारत सचमुच एक है। आप पूर्व से पश्चिम जाएं या उत्तर से दक्षिण, आपको ऐसा लगेगा ही नहीं कि कुछ बदला है। ऐसा ही मामला बच्चों की उपेक्षा और उनके शोषण का है। आप यदि ‘पिछड़ा’ शब्द का इस्तेमाल करें तो बच्चों की चिंता के मामले में हर राज्य पिछड़ा है और यदि ‘अगड़ा’ शब्द का इस्तेमाल करना चाहें तो बच्चों पर होने वाले अत्याचार के मामले में हर राज्य अगड़ा है।
देश में अमीर और गरीब को लेकर असमानता की बात की जा सकती है, लेकिन बच्चों की उपेक्षा के मामले में गजब की समानता दिखाई देती है। बिहार में भी आश्रय स्थल में बच्चों के साथ दुष्कर्म होता है, तो तमिलनाडु में भी। उत्तरप्रदेश में वे अत्याचार का शिकार होते हैं तो पश्चिम बंगाल में भी। और अब तो हमारा मध्यप्रदेश भी इस मामले में, किसी से पीछे नहीं रहने की होड़ में है…
इसी साल फरवरी में ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी जिसमें बताया गया था कि बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए 2012 में‘पाक्सो’ कानून बनने के बाद से 2016 तक 29 राज्यों और सात केंद्र शासित प्रदेशों में बाल यौन शोषण के 90205 मामले सुनवाई के लिए लंबित थे। इसके ठीक एक साल पहले यानी 2015 में ऐसे मामलों की संख्या 27558 थी।
सिर्फ एक साल की अवधि में बाल यौन शोषण के मामलों में 62 हजार की बढ़ोतरी बताती है कि बच्चे कितने गंभीर संकट में हैं और उनका भविष्य कितना असुरक्षित होता जा रहा है। खुद विधि मंत्रालय ने ये आंकड़े जुटाए थे और इनसे जो भयावह तसवीर उभर रही थी वह रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। आंकड़ों के मुताबिक ऐसे सबसे ज्यादा 17300 मामले महाराष्ट्र में लंबित थे, जबकि उत्तरप्रदेश में 15900 और मध्यप्रदेश में 10950।
केरल, ओडिशा, कर्नाटक, राजस्थान, पश्चिम बंगाल और गुजरात में पाक्सो एक्ट के तहत लंबित मामलों की संख्या साढ़े तीन हजार से पांच हजार के बीच थी। बच्चों के शोषण का मामला हाल ही में और गंभीर रूप से बिहार के मुजफ्फरपुर में सामने आया जहां आश्रय स्थलों में ही बच्चियों के साथ दुष्कर्म और उनकी हत्या की खबरें आईं।
उसके बाद उत्तरप्रदेश में भी वही हुआ और अब मध्यप्रदेश में ऐसे ही मामले सुर्खियों में है। राजधानी भोपाल में एक ऐसे आश्रम का भंडाफोड़ हुआ है जहां मूक बधिर बच्चों के साथ आश्रम का संचालक और उसके साथी लंबे समय से दुष्कर्म और यौन शोषण कर रहे थे। राजधानी के बैरागढ़कलां में स्थित इस आश्रम का नाम है साईं विकलांग एवं अनाथ सेवा आश्रम।
यह नाम ही बताता है कि इस आश्रम में जो बच्चे रह रहे होंगे वे शारीरिक और सामाजिक रूप से किस स्थिति वाले होंगे। ऐसे बच्चे, जो न अपनी पीड़ा किसी को बयां कर सकते हैं और न ही खुद पर होने वाले अत्याचार और शोषण का कोई प्रतिकार कर सकते हैं। वे बच्चे इस आपराधिक अड्डे (स्थान के लिए आश्रम शब्द का इस्तेमाल करते हुए घिन आती है) की चारदीवारी के भीतर जाने कितने समय से घुट रहे थे।
ताज्जुब की बात यह है कि इस आश्रम के संचालकों के खिलाफ पहले भी शिकायतें हुईं लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया गया। और तो और सामाजिक कल्याण विभाग के अफसरों ने शिकायतों की जांच कर संचालकों को एक तरह से क्लीन चिट दे दी। इसका सीधा मतलब यह है कि जांच के नाम पर सिर्फ दिखावा हुआ या फिर लीपापोती। इस घिनौने काम में विभाग की मिलीभगत या संरक्षण न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।
जब-जब भी ऐसे मामले सामने आते हैं, जन दबाव में आश्रम संचालकों या प्रत्यक्ष आरोपितों पर तो कार्रवाई हो जाती है लेकिन वे लोग हमेशा छूट जाते हैं जो ऐसी संस्थाओं की निगरानी या उनके सुचारू संचालन के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिस तरह सरकार ने बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामलों में सख्त कानून बनाया है, उसी तरह ऐसे मामलों में दोषी अधिकारियों को भी समान रूप से मूल अपराधी की तरह ही दंडित किए जाने का प्रावधान होना चाहिए।
वैसे तो नियमों में यह प्रावधान है कि ऐसी संस्थाओं का समय समय पर निरीक्षण आदि होते रहना चाहिए, लेकिन उसमें भी भारी लापरवाही बरती जाती है। इसके लिए सिविल सोसायटी की मदद लेकर समाज के बीच से ही लोगों की निगरानी समितियां बनाई जानी चाहिए जो समय समय पर ऐसी संस्थाओं का निरीक्षण कर अपनी रिपोर्ट दें।
ऐसी समितियों में स्थायी सदस्य बनाने के बजाय हर तीन माह में रोटेशन से नए सदस्य बनाने की व्यवस्था हो ताकि उस निगरानी समिति को प्रभावित करने या उसके सदस्यों को ‘खरीद लेने’ की गुंजाइश कम रहे। इसके लिए सेवानिवृत्त लोगों की मदद ली जा सकती है। जब तक नियमित निगरानी और सोशल ऑडिट की पुख्ता व्यवस्थाएं नहीं होंगी, तब तक सेवा के नाम पर चलने वाले इन ‘आपराधिक अड्डों’ को खत्म नहीं किया जा सकेगा।
इसके साथ ही, किसी भी प्रकार की अनियमितता या आपराधिक गतिविधि में लिप्तता पाए जाने पर उस संस्था को दी गई पिछली सारी अनुदान राशि की वसूली का भी प्रावधान होना चाहिए। यह वसूली भी संस्था संचालकों और अनुदान देने वाले अफसरों दोनों से की जाए।
मुझे बताया गया है कि ताजा मामले में विभाग के ही कई वरिष्ठ लोगों की भूमिका संदिग्ध है। ऐसा ही हाल शहर की उन स्वनामधन्य संस्थाओं का है जिनसे बड़े बड़े नाम जुड़े हैं। ऐसे मामलों में समाज को और अधिक सक्रिय भूमिका के साथ आगे आना होगा। हम लोग आराधना स्थलों पर तो जा सकते हैं, लेकिन ऐसे स्थानों पर, जहां मानवता पर चोट हो रही हो, वहां झांकते भी नहीं।
इस गंद को रोकने के लिए कभी कभार हम यूं भी कर लें कि मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारा जाने के बजाय ऐसे किसी आश्रम, अनाथालय या बालगृह का चक्कर लगा लें। लोगों के नियमित आने जाने से काफी चीजें समय रहते संज्ञान में आ जाया करेंगी और अपराध करने वालों पर समाज की निगरानी का अंकुश रहेगा…