इतिहास के पन्नों में ईसाई धर्म और इस्लाम दोनों को भी साम्यवाद, फासीवाद और नाजीवाद के समान इंसानी जिंदगियां छीनने का दोषी मानकर दर्ज किया गया है !
इसमें कोई शक नहीं है कि आज की दुनिया में भी यह एक बड़ी समस्या है। अजीब बात यह है कि हम इसे हल भी नहीं करना चाहते, क्योंकि हम इस समस्या और उसके मूल कारण के प्रति अपनी आँखें बंद किये हुए हैं। इन बंद आँखों का ही आधिकारिक तौर पर दुनिया की लगभग सभी सरकारों ने समर्थन किया है, और इसे राजनीतिक रूप से सही माना जाता है। अतः स्पष्ट ही इस विकृति में सुधार होने की कोई संभावना ही नहीं है! हाँ, स्थिति और खराब जरूर हो सकती है।
समस्या यह है कि दुनिया की आबादी के एक बड़े हिस्से की सोच पूर्वाग्रही और गलत है, उन्हें यही सिखाया गया है कि उनका विश्वास ही सत्य है। उनके संस्थापकों और उन विश्वास प्रणालियों के अधिकारियों ने दावा किया है कि उन्होंने जो प्रसारित किया है वही सर्वश्रेष्ठ है, भले ही उनकी बातें कॉमनसेंस के भी खिलाफ हों! यह उस विश्वास प्रणाली की किसी भी आलोचना को रोकने का एक सरल तरीका था।
मैंने पहले भी लिखा है कि कैसे सबसे पहले ईसाई धर्म ने चतुराई से दावा किया कि खुद भगवान ने ही केवल चर्च को पूर्ण सत्य का साक्षात्कार कराया, और हर किसी को अपनी जान की कीमत पर भी इस पर विश्वास करना चाहिए। आगे चलकर इस्लाम ने भी इसी प्रकार का दावा किया। यही तो है भगवान के नाम पर आतंकवाद! हमारे विचार से जो लोग “गलत” हैं, उन्हें या तो “ठीक” करो और अगर वे ठीक होने में आनाकानी करें तो उन्हें ख़तम कर दो। अमेरिका से भारत तक और इनके अलावा भी, लाखों लोग मारे गए। और इसीलिए इतिहास के पन्नों में ईसाई धर्म और इस्लाम दोनों को भी साम्यवाद, फासीवाद और नाजीवाद के समान इंसानी जिंदगियां छीनने का दोषी मानकर दर्ज किया गया है।
मैंने प्राथमिक स्कूल में पढ़ा कि इस्लाम का विस्तार “आग और तलवार” के माध्यम से हुआ। हालांकि बचपन में ‘Feuer und Schwert’ मेरे लिए एक अर्थहीन वाक्यांश था, किन्तु फिर भी मुझे स्मरण है। लेकिन बाद में मुझे समझ में आया कि यह कितना क्रूरता पूर्ण था। यह क्रूरता केवल इस्लाम तक ही सीमित नहीं है। ईसाईयत का ‘विस्तार’ भी समान रूप से क्रूरतापूर्वक ही हुआ।
1970 के दशक में विश्वविद्यालय में पढ़ते समय हम लोग बहस करते थे कि आखिर धर्म के नाम पर इतना रक्तपात क्यों? बहस ‘क्यों’ पर ही होती थी, “दोनों में से कौन’’ पर नहीं। 2000 में स्पष्ट रूप से इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आया। जब पोप जॉन पॉल द्वितीय ने विधर्मियों के साथ न्यायिक जांच में हुई क्रूरता को स्वीकार करते हुए सार्वजनिक रूप से भगवान से क्षमा मांगी, उन्होंने चर्च को तो दोषी नहीं ठहराया, लेकिन ‘ चर्च के बेटों और बेटियों’ को गलतियों के लिए जिम्मेदार बताया। उन्होंने धर्म को दोषमुक्त करने की कोशिश करते हुए ‘गुमराह’ अनुयायियों को दोषी बताया।
इसी प्रक्रिया को आज इस्लाम अपना रहा है। जिहादी ‘अल्लाह हो अकबर’ चिल्लाते हुए निर्दोष नागरिकों पर हमला करते हैं, और नेता व मीडिया अविलम्ब कहते हैं कि आतंकी गतिविधियों का इस्लाम के साथ कोई लेना देना नहीं है, यह तो कुछ गुमराह या विक्षिप्त व्यक्तियों की करतूत हैं।
हर घटना के बाद प्रतिक्रिया क्या होगी, इसका अनुमान सभी को होता है जैसे :
‘’हमला आहत करने वाला है, यह एक कायरतापूर्ण कृत्य है, लेकिन हम एकजुट रहेंगे, हम भविष्य में और हमले नहीं होने देंगे, हम भयभीत नहीं होंगे, हम उन्हें जीतने नहीं देंगे आदि आदि…’’
इसके बाद मुस्लिम प्रतिनिधियों का बयान आता है, वे भी हमले की निंदा करते हैं और कहते हैं कि ‘’यह भटके हुए लोगों का कार्य है, इसका इस्लाम के साथ कोई लेना देना नहीं है, दुनिया में 1.5 अरब मुसलमान शांतिपूर्वक रह रहे हैं, जो इस बात का प्रमाण है कि इस्लाम शान्ति का मजहब है…’’
तब प्रमुख शहरों में (बशर्ते हमला पश्चिम में हुआ हो) देश की ऐतिहासिक इमारत पर देश के रंग की मोमबत्तियाँ जलाई जाती हैं…
हम जानते हैं कि यह सब नकली आडम्बर है, फिर भी यही सब दोहराते जाते हैं। अगर कुछ वास्तविक होता है तो प्रभावित लोगों का दर्द। शेष लोग शायद आभारी होते हैं कि उन्हें नहीं मारा गया। सचाई तो यह है कि जिन लोगों पर हमारी रक्षा की जिम्मेदारी है, वे ईमानदार नहीं हैं।
यह सच है कि हमले आकस्मिक और आत्मघाती होते हैं, लेकिन वे कायरता पूर्ण नहीं किये जाते। जिहादी इसलिए मारता है, क्योंकि वह काफिरों को मारना अपना कर्तव्य मानता है- और वह अपने को सही मानते हुए, स्वयं भी मरने के लिए तैयार होता है। यह साहस को दर्शाता है। सभी आतंकवादी युवा होते हैं। यह सामान्य बात नहीं है, दूसरों की हत्या करते हुए अपनी जान देना कोई आसान काम नहीं है, जब तक कि उसे यह भरोसा न हो कि लागत की तुलना में लाभ अधिक है ।
और लाभ के रूप में वह क्या उम्मीद करता है? शायद उसे बचपन से ही सिखाया गया होगा, या बाद में उसने इंटरनेट पर पढ़ा होगा कि काफिरों को मारने से अल्लाह खुश होता है। ऐसा करके, वह अपने जीवन को सही मायने में सार्थक बना सकता हैं, और इसके बदले में उसे बड़े पैमाने पर पुरस्कृत किया जाएगा। जो काफिरों को नहीं मारते, उनकी तुलना में वह स्वर्ग में बेहतर स्थिति में होगा।
इसका सीधा सा मतलब है कि हम काफिर डरपोक हैं। हम कुरान में बताये मार्ग की चर्चा करने की भी हिम्मत नहीं करते है, जबकि वही उसकी उम्मीद जगाती है! उदाहरण के लिए ना तो हम क्यू 4.95 का मतलब पूछते, ना ही यह पूछते कि वहां आखिर लिखा क्या है।
“वे विश्वासी जो कोई शारीरिक विकलांगता न होने के बाद भी घर पर रहते हैं– उन लोगों के समान नहीं हो सकते, जो अल्लाह के काम के लिए अपने धन और अपने लोगों के साथ जिहाद करते हैं। जो लोग अपने धन और अपने लोगों के साथ जिहाद करते हैं, उन्हें अल्लाह घर पर रहने वाले लोगों की तुलना में उच्च पद प्रदान करता है। हालांकि अल्लाह ने सभी को अच्छा इनाम देने का वादा किया है, फिर भी अल्लाह ने घर पर रहने वाले लोगों की तुलना में उसके लिए जिहाद करने वालों के लिए बड़ा इनाम तैयार किया है। उन्हें विशेष उच्च रैंक, क्षमा और दया मिलती है। अल्लाह बड़ा क्षमाशील और दयालु है (Q4। 95-96) है।”
कल्पना कीजिए एक आस्थावान, युवा, गर्म खून वाला मुस्लिम इसे पढ़ता है– क्या वह अपने जीवन को सार्थक बनाने के लिए प्रेरित नहीं होगा? इससे भी अधिक, उसमें बंदूक उठाकर हीरो बनने की इच्छा नहीं जागेगी? शायद अधिक से अधिक महिमा पाने के लिए जिन्दगी देना उसे बच्चों का खेल लगेगा। जैसा कि सुल्तान शाहीन ने कहा, मदरसों में बच्चे गाते हैं ‘जिंदगी शुरू होती है कब्र में’’।
मजे की बात यह है कि, बूढ़े, बीमार मुसलमानों की “स्वर्ग में उच्च स्थिति” को लेकर कोई रुचि प्रतीत नहीं होती, जबकि उनके लिए उसका कहीं अधिक मतलब होगा। शायद इसका मतलब यह है कि वे अधिक परिपक्व होते हैं, और जानते हैं कि कुरान को कितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए?
क्या यह उनका और हमारा कर्तव्य नहीं है कि, न केवल भविष्य के आतंकी हमलों के संभावित शिकार होने से बचने के लिए, बल्कि युवा मुसलमानों को बचाने के लिए भी कोशिश करें, जो एक ऐसे वादे के चक्कर में अपना जीवन व्यर्थ फेंक रहे हैं, जो कभी पूरा नहीं होने वाला? आखिर ईसाई धर्म भी तो दावा करता है कि केवल बपतिस्मा वाले ही स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं।
हमें सवाल पूछना चाहिए। हालांकि यह विश्वास करना कठिन है कि आतंकी हमलों का धर्म के साथ कोई सम्बन्ध है। धर्म अच्छाई का प्रतिनिधित्व करता है। यह हमें सर्वोच्च सत्ता से जोड़ता है और हमें बेहतर मनुष्य बनने के लिए प्रेरित करता है। हम भी मानना चाहते हैं कि आतंकवादी हमलों का कारण कुछ और है। सभी धर्म एक ही ईश्वर की पूजा करते हैं। संभवतः कोई धर्म दूसरों की हत्या को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता! हम में से जिनका भी ब्रेनबाश नहीं किया गया है, स्वाभाविक रूप से इस बात को बनाए रखना होगा।
लेकिन क्या यह सच है? यह पता लगाने की जरूरत है। अगर हममें ऐसा करने की हिम्मत नहीं है, तो हम कायर हैं। मान लीजिये कि हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वास्तव में वहाँ इस्लामी ग्रंथों में, काफिरों के खिलाफ आतंक को समर्थन देने वाले अंश हैं, तो हमारा अगला कदम क्या होगा?
तो फिर जरूरी होगा कि हम कॉमनसेंस से मूल कारण को समझें तथा जीवन के वास्तविक अर्थ पर और परम सत्य को जानने के लिए चर्चा करें। भारत के पास ज्ञान है, अतः उसे इस दिशा में नेतृत्व करना चाहिए, क्योंकि ईसाई पश्चिम इस मामले में विकलांग है। इस्लाम और ईसाई दोनों धर्मों ने मानवता को “हम बनाम शेष’’ में विभाजित कर दिया है। इसके स्थान पर एक दूसरी विभाजन रेखा खींची जाना चाहिए, जिसका उल्लेख प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक भाषण में किया है: मानवता और निर्दयता के बीच की रेखा।
आतंक और दूसरे इंसान के प्रति घृणा निर्दयता है। यह हम कैसे कह सकते हैं? क्योंकि यह हमारी अंतरात्मा की आवाज है, जो हमें बताती है कि क्या सही है और क्या गलत है। यह विवेक ही हमारे लिए पवित्र पुस्तक होना चाहिए। यही वह दिव्य ध्वनि है जो हमारे जीवन का मार्गदर्शन करती है। अगर हम इसे सुनें तो, हमें पता चलेगा कि सम्पूर्ण सृष्टि एक परिवार है। हम सभी में जो जीवन है, वह उसी सबसे शक्तिशाली किन्तु अदृश्य स्रोत से आता है।
कोई भी, जो यह मांग करता है कि हम अपनी अंतरात्मा की उपेक्षा करें और आँख बंद करके उसकी कही बात पर भरोसा करें, उसका एक एजेंडा है। वह भेड़ पसंद करता है, जिसके पास सोचने समझने की शक्ति नहीं होती, और जिसका वह अपने उद्देश्य के लिए उपयोग कर सकता है। आत्मघाती हमलावर कायर नहीं हैं, लेकिन वे स्मार्ट भी नहीं हैं। उन्होंने जीवन का उद्देश्य गलत चुना है।
(यह लेख मूल रूप से ऑर्गेनाइजर पत्रिका में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है।)