अंसारी की ‘असुरक्षा’ के हल्‍ले में दब गई मोदी की ‘चेतावनी’

कुर्सी से जाते जाते उप राष्‍ट्रपति हामिद अंसारी विवाद का जो पिटारा खोल गए हैं कि वह कई दिनों तक ठंडा नहीं होगा। लेकिन देश के मुसलमानों में बेचैनी का अहसास व असुरक्षा की भावना के बहाने उन्‍होंने जो चेतावनी दी, उसकी गहमागहमी में एक और बड़ी चेतावनी लगभग अनदेखी सी रह गई।

गुरुवार को ही भाजपा सांसदों को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पार्टी नेताओं को जमकर लताड़ा। संसद से गायब रहने के मुद्दे पर उन्‍होंने ना सिर्फ सांसदों को फटकार लगाई बल्कि चेतावनी भी दे डाली कि जो सांसद बार बार कहे जाने के बावजूद संसद में मौजूद नहीं रह रहे हैं उन्‍हें वे 2019 के चुनाव में ‘देख लेंगे’। ऐसे सांसदों को इस गंभीर अपराध की सजा जरूर मिलेगी।

मोदी ने सांसदों से पूछा कि आप लोगों को संसद में शामिल होने के लिए बार-बार व्हिप क्यों जारी करना पड़ता है। चेतावनी देते हुए वे बोले, अब राज्यसभा में मौज-मस्ती के दिन बंद होने वाले हैं क्योंकि सदन को अब एक सख्त सभापति मिल चुके हैं। उनका इशारा नवनिर्वाचित उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू की तरफ था। इसके अलावा अब ऐसे गैर जिम्‍मेदार सांसदों पर खुद पार्टी अध्‍यक्ष अमित शाह की भी नजर रहेगी क्‍योंकि अब वे भी राज्‍य सभा में आ गए हैं।

गुजरात राज्य सभा चुनाव के बाद पहली बार हुई संसदीय दल की इस बैठक में पार्टी अध्यक्ष अमित शाह भी मौजूद थे। मोदी इससे पहले भी दो बार सांसदों को सदन में मौजूद रहने के बारे में चेता चुके हैं। उनके अलावा अमित शाह ने भी सांसदों की सदन में गैरमौजूदगी पर गहरी नाराजी जताई थी।

इस मुद्दे पर मोदी और शाह का गुस्‍सा इसलिए भी है कि 31 जुलाई को राज्य सभा में भाजपा सांसदों की गैर मौजूदगी की वजह से न सिर्फ सरकार की किरकिरी हुई थी, बल्कि अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कमीशन को संवैधानिक दर्जा देने के लिए लाए गए बिल पर हुई वोटिंग के दौरान विपक्ष का संशोधन प्रस्ताव पास हो गया था। उप राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा के दो सांसद गैर हाजिर रहे थे।

मैंने ऐसा पहले नहीं देखा कि संसदीय दल के किसी नेता ने अपनी ही पार्टी के सांसदों को इस तरह देख लेनेकी चेतावनी दी हो, जैसी मोदी ने अपने सांसदों को 2019 के अगले लोकस सभा चुनाव के लिए दी है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि मोदी और अमित शाह पार्टी को किस तरह चलाना चाहते हैं और संगठन के अनुशासन को लेकर वे कितने सख्‍त हैं।

भारतीय जनता पार्टी और मोदी व शाह के लिए निश्चित रूप से यह बात चिंता का विषय है कि सांसद इतने बेपरवाह क्‍यों हो रहे हैं। जबकि सरकार की योजनाओं को आम जन तक पहुंचाने और उनके क्रियान्‍वयन पर नजर रखने का असली काम उन्‍हीं का है। यदि जन प्रतिनिधि इतने उदासीन रहेंगे तो नौकरशाही को मनमानी करने की छूट जाहिर तौर पर मिलेगी।

लेकिन गहराई से देखें तो इस स्थिति के लिए खुद नरेंद्र मोदी और अमित शाह भी कम जिम्‍मेदार नहीं हैं। उन्‍होंने करीब करीब सारी स्थितियां जिस तरह से अपने नियंत्रण में ले रखी हैं उसके चलते किसी के पास करने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। और जब अधिकारों या जिम्‍मेदारी का विकेंद्रीकरण ही नहीं है तो दूसरों की जवाबदेही कैसे तय की जा सकती है?

ऐसा लगता है कि भाजपा के जन प्रतिनिधि खुद को ऐसी ट्रेन में सवार मानकर चल रहे हैं जिसे 2019 के चुनाव में भी अपने गंतव्‍य तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता। इस ट्रेन के ड्रायवर के रूप में मोदी और गार्ड के रूप में अमित शाह की जोड़ी के चलते गाड़ी में सवार नेता निश्चिंत होकर यात्रा कर रहे हैं।

जब आप चलती ट्रेन में सवार होते हैं तो आपको चलने की जरूरत नहीं होती, ट्रेन ही चलती है और आपको मंजिल तक पहुंचा देती है। शायद भाजपा के जनप्रतिनिधि मान बैठे हैं कि मोदी और शाह की जोड़ी जब उनकी नैया पार लगाने के लिए मौजूद है, तो वे क्‍यों खमाखां पतवार संभालने या नाव को खेने की जहमत उठाएं।

यह स्थिति केवल केंद्र में ही नहीं बल्कि हमारे अपने मध्‍यप्रदेश में भी है। यहां भी जनप्रतिनिधि और अन्‍य नेता मानकर चल रहे हैं कि जब शिवराजसिंह का चेहरा चुनाव जिताने की गारंटी है, तो वे सक्रिय होकर क्‍या करें। इसलिए सारे लोग हर मामले पर और हर संकट में शिवराज के मुंह की ओर ही ताकते नजर आते हैं।

पर ये हालात न तो पार्टी के लिए अच्‍छे कहे जा सकते हैं और न ही नेता के लिए। बसपा, सपा, जदयू,शिवसेना, राष्‍ट्रवादी कांग्रेस, एआईडीएमके, डीएमके, टीडीपी, तृणमूल कांग्रेस जैसी जो पार्टियां व्‍यक्ति केंद्रित हैं,उनमें तो यह बात चल सकती है, लेकिन भाजपा जैसी संगठन आधारित पार्टी में यह स्थिति स्‍वीकार्य नहीं हो सकती। आज तो ऐसा लगता है मानो दीनदयाल उपाध्‍याय के ‘एकात्‍म मानववाद’ के दर्शन पर चलने वाली भाजपा, ‘एक मानववाद’ के दर्शन पर चल पड़ी है।

इस स्थिति को बदलने के लिए सांसदों या विधायकों को चेतावनी देने भर से ही काम नहीं चलने वाला। उनकी जिम्‍मेदारी और जवाबदेही भी तय करनी पड़ेगी। वैसे भी वर्तमान व्‍यवस्‍था में जन प्रतिनिधियों के लिए काम करने की कोई स्‍पष्‍ट आचार संहिता नहीं है। आप संसद या विधानसभा में आएं न आएं, प्रश्‍न पूछें न पूछें,बहस में भाग लें या न लें, कोई पूछने वाला नहीं है कि आपने ऐसा क्‍यों किया?

होना तो यह चाहिए कि सदन में उपस्थिति के अलावा, प्रश्‍न पूछने और बहस में भाग लेने से लेकर अन्‍य संसदीय गतिविधियों शामिल होने के बारे में भी बाकायदा सर्विस रूल्‍स की तरह कोई आचार संहिता बनाई जाए। जनप्रतिनिधियों के वेतन व भत्‍ते भी उसी आधार पर दिए जाएं और अगला टिकट भी। काम नहीं तो वेतन/टिकट नहीं का फार्मूला यहां भी क्‍यों न लागू हो?  

 

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