प्रभुनाथ शुक्ल
ओेलंपिक भूमि रियो डि जनेरो में भारत की बेटियों ने उम्मीद का नया झंडा गाड़ा है। सोना लूटने की ख्वाहिश भले अधूरी रह गयी हो लेकिन रियो ने हमें एक संदेश दिया है जिसे पढ़ना और समझना हमारा नैतिक दायित्व है। बेटियों ने तो अपना काम कर दिया लेकिन अब हमारी बारी है। हमारे लिए यह उत्सव का क्षण है। पीवी सिंधु, साक्षी मलिक ने जहां पदकों का सूखा खत्म किया वहीं दीपा कर्माकर ने अच्छा प्रदर्शन किया। मलिक ने फ्रीस्टाइल कुश्ती में कजाकिस्तान की खिलाड़ी को पराजित कर कांस्य पदक हासिल किया।
इन बेटियों ने दुनिया में भारत का मान बढ़ाया है। भारतीय समाज में बेटियों को लेकर फैले भ्रम और उसके मिथक को तोड़ा है। बेटियों ने यह साबित कर दिया है कि अगर उन्हें वैश्विक स्तर की सुविधाएं मिले तो वह भारत का नाम दुनिया में रोशन कर सकती हैं। 1984 में उड़नपरी के नाम से मशहूर पीटी उषा लास एंजेल्स में आयोजित ओलंपिक में कांस्य पदक से भी वंचित रह गई थी। लेकिन उन्होंने बेटियों को आगे लाने में अच्छी भूमिका निभाई। भारत की बेटी पीवी सिंधु ने स्पेन की कैरोलिना मरिन से पराजित हो कर भी जीत हासिल की है। वह अंतिम क्षणों तक कोर्ट पर संघर्ष करती दिखी। हमारे लिए यह गर्व की बात है।
बेटियों ने यह साबित कर दिया हैं कि भारत के पास बहुत सारी उम्मीद अभी बाकी है। हमने तो शिद्दत से अपना फर्ज निभाया है, आगे अब सरकार को निभाना है। सिंधु और साक्षी ने हमें अच्छी उपलब्धि दिलाई है। हमें अब राजनीति की दिशा बदलनी होगी। अब वक्त आ गया है जब खेल और उसके विकास की राजनीति होनी चाहिए। बेटियों ने भारत का नाम रोशन किया न कि अपनी जाति का, उनका समर्पण देश के लिए था, न कि खुद के लिए। आज जो जीत हमारे लिए बड़ी लग रही है और उसे हम बड़ी उपलब्धि मान कर जश्न मना रहे हैं, यह हमारी नाकामियां साबित करता है। इस असफलता के पीछे हमारी सरकारी नीतियां दोषी रही हैं। हमने खेलों को बढ़ावा देने के लिए ठोस पहल नहीं की। जिसका नजीता है कि हमें सिर्फ सिल्वर और कांस्य पदक पर संतोष करना पड़ रहा है। इससे अधिक हम उम्मीद भी नहीं कर सकते हैं।
हमारे लिए यह गंभीर चिंता का विषय है। हम वैश्विक खिलाड़ियों के मुकाबले कहीं नहीं ठहरते। अमेरिका, ब्रिटेन, रुस, चीन, जापान, जर्मनी, इटली, फ्रांस, हालैंड, आस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया एवं हंगरी से हम कोई मुकाबला नहीं कर सकते हैं। क्योंकि हमारे पास नीति और इच्छा शक्ति दोनों नहीं है। सरकारों की नीतियों सिर्फ सत्ता और उसके केंद्रीयकरण तक ठहर कर रह गयी है। इस स्पर्धा में हम हंगरी जैसे मुल्क को भी मात नहीं दे पाए जो छह गोल्ड मेडल के साथ तीन रजत और चार कांस्य जीत कर 13 पदकों पर पहुंच गया। इसके लिए कौन जिम्मेदार है।
हमारी बेटियां पदक के लिए जमीन और आसमां एक कर रही हैं और पुरुष रियो के नक्शे से गायब हैं। यह सब क्यों, इसका जिम्मेदार कौन है। हमने कभी इस पर गंभीरता से विचार नहीं किया। हमने ओलम्पिक के लिए खिलाड़ियों को कभी तैयार नहीं किया। जीत कर आने के बाद उन पर धन और सुविधाओं की बरसात खूब की जा रही है। केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से करोड़ों दिए जा रहे हैं अगर यही सुविधाएं खिलाड़ियों की तैयारियों पर खर्च की जाती, उन्हें वैश्विक स्तर की खेल सुविधाएं, अच्छे कोच, स्टेडियम और कोर्ट उपलब्ध कराए जाते तो क्या भारत पदक तालिका से गायब रहता।
निश्चित तौर पर हमारे लिए यह जश्न मानने का मौका है लेकिन उससे भी कहीं अधिक अपनी नाकामयाबी छिपाने का भी जश्न है। आर्थिक विषमताओं से जूझ रहे खिलाड़ियों को अगर उस स्तर की सुविधाएं और खर्च उपलब्ध कराए जाएं तो दुनिया के देश पदक तालिका में भारत का मुकाबला नहीं कर सकते। 120 साल के ओलम्पिक इतिहास में सिंधु पहली भारतीय महिला हैं जिन्होंने सिल्वर जीता है। हमारे लिए यह गौरव की बात है। सिडनी ओलंपिक में भी भारत को एक कांस्य पदक मिला था वह भी किसी पुरुष खिलाड़ी के जरिए नहीं बल्कि कर्णम मल्लेश्वरी ने वह जीत हासिल की थी। इसके बाद हम उस जीत को भूल गए। एक भी वैश्विक स्पर्धा के लिए भरोत्तोलक नहीं तैयार कर पाए। रियो भी खत्म हो चुका है। इन 16 साल के बीच हमने कभी गौर नहीं किया। हम दोबारा राज्यवर्धन सिंह राठौर और अभिनव विंद्रा पैदा नहीं कर पाए। उस जीत की खुमारी में हम सब भूल गए। बेटियां आगे बढ़ रही हैं हमें अपनी खेल नीति में बदलाव लाने की आवश्यकता है। रियो ओलंपिक से हमें सीखने और सोचने की जरुरत है।