बहुत अद्भुत संयोग हुए हैं इस ‘रॉफेल गाथा’ में

रॉफेल सौदे से अंबानी परिवार के जुड़ाव पर बात को आगे बढ़ाने से पहले जरा ये सुन लीजिये कि 25 सितंबर 2018 को कांग्रेस अध्‍यक्ष राहुल गांधी ने अमेठी में मीडिया से क्‍या कहा।

रॉफेल को लेकर अपने आरोपों को दोहराते हुए राहुल बोले- ‘’नरेंद्र मोदीजी ने देश का पैसा चोरी किया है और अनिल अंबानी को दिया है, यह सच्‍चाई है। …और अभी ये और चलेगा, मैंने कहा है ये अभी शुरुआत हुई है। देश के युवाओ, अभी रॉफेल में और बहुत बाहर आएगा, अभी विजय माल्‍या को किसने दौड़ाया, क्‍यूं दौड़ाया, कितने हजार करोड़ रुपये के साथ दौड़ाया, वो भी बाहर निकलेगा।‘’

राहुल के इस बयान को यदि अरुण जेटली के उस बयान से जोड़कर देखें, जिसमें उन्‍होंने राहुल के 30 अगस्‍त के ट्वीट का हवाला देते हुए राहुल और ओलांद की जुगलबंदी की आशंका जाहिर की थी, तो ऐसा लगता है कि राहुल गांधी और उनकी टीम को कहीं से बहुत तगड़ा फीडबैक और मसाला मिल रहा है, जो सरकार को मुश्किल में डालने वाला है।

यह मसाला कौन दे रहा है उसका नाम पता खोजना तो मुश्किल है, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे नौकरशाही और उद्योग घरानों के अलावा ऐसे कई लोग हो सकते हैं जो सरकार से खुश नहीं हैं। और यदि यह बात सही है कि सरकार के अंदर की ही कोई लॉबी कांग्रेस की मदद कर रही है, तो तय मानिए कि सरकार की मुसीबतें आने वाले दिनों में और बढ़ेंगी।

राहुल गांधी की चेतावनी को समझने के लिए हाल के दिनों में हुए कुछ घटनाक्रम पर नजर दौड़ानी होगी। सबसे पहले हजारों करोड़ के भगोड़े विजय माल्‍या का एक बयान आया कि उसने भारत छोड़ने की बात वित्‍त मंत्री अरुण जेटली को बताई थी। वह बयान एक धमाका था और उसने सरकार को डिफेंसिव होने पर मजबूर किया था।

दूसरा बयान फ्रांस के पूर्व राष्‍ट्रपति फ्रांस्‍वा ओलांद का आया जिसमें उन्‍होंने कथित रूप से यह कहा कि रॉफेल सौदे में विमान बनाने वाली कंपनी दसाल्‍ट की सहयोगी के रूप में अनिल अंबानी की कंपनी का नाम भारत सरकार ने ही सुझाया था। रॉफेल का ताजा घमासान उसी बयान से उपजा है।

और उसके बाद 24 सितंबर को पाकिस्‍तान के पूर्व गृह मंत्री रहमान मलिक का ट्वीट आया जिसमें उन्‍होंने कहा कि- “Rahul is your next PM as he is talking sense in his pressers.PM Modi is scared of him.” इन सारे बयानों को ध्‍यान से देखें तो पाएंगे कि सरकार को सिर्फ देश में ही नहीं भारत के बाहर से भी झटके लग रहे हैं।

मैंने मंगलवार को सवाल उठाया था कि सरकार आखिर इस मामले में इतने डिफेंसिव मोड में क्‍यों है। और 25 सितंबर को सरकार व भाजपा संगठन का आक्रामक रुख देखने को मिल गया। सरकार की तरफ से खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भोपाल के कार्यकर्ता महाकुंभ में राहुल और कांग्रेस को सीधी चुनौती देते हुए कहा कि आप जितना कीचड़ उछालेंगे, उतना ही ज्‍यादा कमल खिलेगा।

दूसरी तरफ भाजपा प्रवक्‍ता संबित पात्रा ने राहुल के जीजा राबर्ड वाड्रा और संदीप भंडारी के रिश्‍तों का उल्‍लेख करते हुए आरोप लगाया कि भंडारी हथियार सौदों में दलाली का काम करता है और उसकी नजर रॉफेल सौदे पर थी। जब उस डील में उसे सफलता नहीं मिली तो यूपीए सरकार ने डील को ही पीछे धकेल दिया। जीजा को फायदा न मिल पाने से बौखलाए राहुल गांधी सरकार पर अनर्गल आरोप लगा रहे हैं।

जाहिर है अब यह लड़ाई भ्रष्‍टाचार की न होकर राजनीतिक, आद्योगिक और कूटनीतिक हो गई है। इसमें कई लॉबियां काम कर रही हैं। और हमेशा की तरह मामले को इतना विवादास्‍पद बनाने या उलझा देने का प्रयास चल रहा है कि मुख्‍य विषय से ध्‍यान ही बंट जाए। इस सिलसिले में मीडिया रिपोर्ट्स और अलग-अलग बयान भ्रम की स्थिति को और ज्‍यादा बढ़ाने वाले हैं।

और अब सौदे को लेकर अंबानी एंगल की बात…

मैंने पहले बताया था कि रॉफेल सौदे को लेकर 23 सितंबर को दिए गए वित्‍त मंत्री अरुण जेटली के बयान में जिक्र था कि रिलायंस इंडस्‍ट्री तो 2012 में ही इस सौदे से जुड़ चुकी थी। जेटली के उस बयान की खोजबीन से कुछ दिलचस्‍प जानकारियां मिलती हैं।

जैसे, रॉफेल और अंबानी के रिश्‍तों की शुरुआत को लेकर रेडिफ डॉट कॉम ने 13 फरवरी 2012 को एक खबर जारी की जिसका शीर्षक था- Reliance enters defence manufacture with Rafale maker इस खबर का पहला पैरा बहुत कुछ कहता है-

‘’On Sunday, an innocuous news report by Reuters announcing a tie-up between Reliance Industries and France’s Dassault Aviation may have escaped the attention of most people but discerning defence analysts see this as a major development in the defence manufacturing sector in India. The accord comes less than two weeks after Dassault’s Rafale aircraft emerged as the lowest bidder in a $15 billion contest to supply the Indian Air Force with 126 fighter jets.’’

इंडिया टुडे की वेबसाइट पर मौजूद रॉफेल सौदे की टाइमलाइन के अनुसार मामले की शुरुआत 2007 में तब हुई जब वायुसेना ने सरकार को मीडियम मल्‍टीरोल कॉम्‍बेट एयरक्रॉफ्ट खरीदने का प्रस्‍ताव भेजा। सरकार ने ऐसे 126 लड़ाकू विमान खरीदने के टेंडर जारी किए।

अगस्‍त 2007 में रूस, स्‍वीडन, अमेरिका आदि देशों के अलावा फ्रांस की दसॉल्‍ट ने भी बोली लगाई। उसी दौरान सितंबर 2008 में मुकेश अंबानी की अगुवाई वाले रिलायंस समूह ने रिलायंस एयरोस्‍पेस टेक्‍नॉलाजीस लि.(आरएटीएल) के नाम से एक कंपनी गठित की।

मीडिया रिपोर्ट्स में ‘अपुष्‍ट सूत्रों’ के हवाले से कहा गया कि आरएटीएल और दसॉल्‍ट संपर्क में थे और उनके बीच यह सहमति बन गई थी वे एक संयुक्‍त उपक्रम बनाएंगे, जो भविष्‍य में भारत और फ्रांस के बीच होने वाली किसी भी डील की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम होगा।

और संयोग देखिये कि वायुसेना ने मई 2011 में रॉफेल और यूरोफाइटर जेट को ही खरीद के लिए उपयुक्‍त पाया। जनवरी 2012 में जब बोलियां खुलीं तो फैसला रॉफेल के पक्ष में गया, क्‍योंकि उसने ‘सबसे कम कीमत’ वाली बोली लगाई थी।

इस पूरे घटनाक्रम को बारीकी से देखें तो आप पाएंगे कि रिलायंस या अंबानी का इस सौदे में मौजूद होना तो लगभग तय ही था। अद्भुत संयोगों की कैसी विलक्षण श्रृंखला है कि 2007 में सेना लड़ाकू विमान खरीदने का प्रस्‍ताव भेजती है, 2008 में रिलायंस समूह ऐसे कामों से संबद्ध कंपनी गठित करता है और फ्रांस की उसी कंपनी से उसका संपर्क या बातचीत होती है जिसे बाद में ठेका मिलता है…

कल पढ़ें- लेकिन बड़े अंबानी की जगह छोटा अंबानी पिक्‍चर में कैसे आया?

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