जब कोई ‘लाभ’ ही नहीं था तो ‘आप’ ने पद बांटे क्यों?

अजय बोकिल 
दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी की किस्मत में लगता है झटके पर झटके खाना लिखा है। झटके भी ऐसे कि जिसका एपीसेंटर (केन्द्र स्थान) खुद आम आदमी पार्टी ही होती है फिर चाहे पार्टी के पहले कार्यकाल में मुख्यीमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा ‍खुद पद से दिया गया इस्तीफा हो या फिर वर्तमान कार्यकाल में 20 विधायकों के चुनावी रण के बिना खेत रहने का सदमा हो। दरसअल यह एक ऐसी लड़ाई है, जिसमें सामने वाले ने तलवार तो क्या ढाल आगे करने का मौका भी न दिया। लेकिन आम आदमी पार्टी इस शहादत’ को अपनी राजनीतिक ताकत बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश में लगी है, जबकि उसके सियासी दुश्मन भाजपा और कांग्रेस ‘आप’ को ही ‘चोर’ ठहराने में लगे हैं।

मजे की बात यह है कि संसदीय सचिव के रूप में लाभ का पद धारण करने के मामले में विधानसभा की अपनी सदस्यता खो चुके इन 20 विधायकों की नियुक्ति को यह कहकर जायज ठहरा रही है कि इन बेचारों को न तो वेतन भत्ते मिले और न ही कोई बंगला गाड़ी मिली। फिर भी चुनाव आयोग ने इसे ‘लाभ का पद’ मान लिया। मतलब एक भैंस बंधी थी बाड़े में बिना चारा पानी के। उसे भी जुर्म समझ लिया। यह तो घोर नाइंसाफी है। अगर चुनाव आयोग ऐसी ही ‘मनमानी’ करता रहा तो दिल्ली ही क्या, पूरे देश में लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।

इस खतरे की राजनीतिक व्याख्या के पहले यह समझना जरूरी है कि संसदीय सचिव है क्या बला और लाभ का पद क्या है? संसदीय सचिव (पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी) ब्रिटिश शैली के लोकतंत्र की विरासत है। संसदीय सचिव संसद या विधानसभा का वो सदस्य होता है, जिसका दायित्व अपने वरिष्ठ मंत्री की सहायता करना होता है। कुछ देशों में उसे सहायक मंत्री भी कहा जाता है। व्यवहार में उसका काम विधानमंडल में विभागीय मंत्री की गैरमौजूदगी में सरकारी जवाब पढ़ने का होता है। इसके अलावा उसे कोई विशेषाधिकार नहीं होते। सुविधाओं के रूप में उसे बंगला गाड़ी जरूर मिल जाते हैं। चूं‍कि विधायक स्वयं सरकार से वेतन भत्ते और सुविधाएं पाता है और संसदीय सचिव के रूप में भी उसे कुछ सरकारी सुविधाएं मिलती हैं,इसलिए वह लाभ के पद के दायरे में मानी जाती हैं।

पहले भी कई राज्यों ने संसदीय सचिवों की नियुक्तियां की हैं और कोर्ट ने उसे अमान्य किया है। जहां तक लाभ के पद का सवाल है तो इसकी कोई सुस्पष्ट व्याख्या नहीं है। ‘लाभ का पद’ तय करना चुनाव आयोग और अदालत के विवेक पर निर्भर है। हालांकि राज्य सरकारें कानून बनाकर इसे वैध बनाती रही हैं,लेकिन आम आदमी पार्टी ने इस मामले में भी देरी कर दी। पिछले विधानसभा चुनाव में ‘आम आदमी पार्टी’ के 67 विधायक जीत कर आए थे। संवैधानिक रूप से इनमें से केवल 7 ही मंत्री बन सकते थे। ऐसे में बाकी 60 का क्या करें, यह सवाल अरविंद केजरीवाल के सामने था। चूं‍कि यह बहुमत ‘डरावना’ भी था, इसलिए मुख्यमंत्री केजरीवाल ने बाकी साठ में से 21 को संसदीय सचिव का झुनझुना पकड़ाया।

केजरीवाल ने ये नियुक्तियां 13 मार्च 2015 को कीं। इसके तीन माह बाद ही राष्ट्रपति के पास इन नियुक्तियों को रद्द करने की याचिका लगी। मामला कोर्ट में गया और अदालत ने पाया कि ये नियुक्तियां उपराज्यपाल की सहमति के बगैर की गईं। उधर राष्ट्रपति ने यह शिकायत चुनाव आयोग को भेजीं और आयोग ने ये नियुक्तियां अवैध मानकर सम्बन्धित विधायकों की मान्यता रद्द करने की सिफारिश की, जिसे राष्ट्रपति ने मंजूर कर लिया।

इस पूरे घटनाक्रम के पीछे आम आदमी पार्टी केन्द्र में सत्तारूढ़ मोदी सरकार का अदृश्य हाथ देख रही है। उसका मानना है कि चूंकि केजरीवाल देश की राजधानी दिल्ली में बैठकर मोदी सरकार की छाती पर मूंग दल रहे हैं, इसलिए उनको घर में ही निपटा दिया जाए। ‘आप’ की नजर में इस काम में पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त की भूमिका भी संदिग्ध रही। हालांकि भाजपा ऐसे किसी भी आरोप को खारिज करती है। उसका मानना है कि केजरीवाल ने अपने लिए गड्ढा खुद खोदा। कांग्रेस भी केजरीवाल सरकार को ही इसके लिए दोषी मानती है क्योंकि कांग्रेस के वोट बैंक पर ही आम आदमी पार्टी की हवेली खड़ी हुई।

जो भी हुआ, अब आम आदमी पार्टी की कोशिश है कि ‘अयोग्यता’ के इस दाग को भी ‘दाग अच्छे हैं’ की तरह पेश किया जाए। इसीलिए मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने चुनाव आयोग और मोदी सरकार को कोसते हुए कहा कि पूरे ब्रह्मांड का समर्थन उनके साथ है। अदालत से न्याय नहीं मिला तो जनता की अदालत में जाएंगे। यह बात अलग है कि जनता की अदालत में जाने का डर ही उन्हें भीतर से भयभीत किए है। सो वे तर्क दे रहे हैं कि उनकी बात को नहीं सुना गया। हमने संसदीय सचिवों को कोई ‘लाभ’ नहीं दिया। न खर्चा पानी और न ही गाड़ी बंगला। फिर भी ‘लाभ के पद’ के शिकार हो गए। यानी गुनाह बेलज्जत।

अब सवाल यह है कि जब संसदीय सचिव के पद में कोई ‘लाभ’ था ही नहीं तो उन्हें नियुक्त ही काहे को किया गया? एक दलील आई कि वे सब जनता की सेवा करना चाहते थे और ऐसे काम में मुख्यमंत्री को भी हेल्पिंग हैंड की जरूरत थी। संसदीय सचिव भी इसी किस्म के ‘सेवादार’ थे। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि जन सेवा का ऐसा कौन सा काम था, जो विधायक रहते नहीं किया जा सकता था। अगर वे सब कुछ अपनी जेब से खर्चा करके कर रहे थे तो किसी और पद की उन्हें क्या जरूरत थी, उन्हें फिर संसदीय सचिव का बिल्ला लगाना क्यों जरूरी था?

जनसेवा ऐसी उत्तर क्रिया भी नहीं है कि जिसे खास तरह के ब्राह्मण ही सम्पन्न कराते हों। जाहिर है कि संसदीय सचिव का पद वास्तव में दिल्ली के विधायकों को बांटी गई ऐसी रेवड़ी थी, जिसमें गुड़ भी ठीक से नहीं पड़ा था। इस गुड़ पर भी संवैधानिक बाध्यताओं की मक्खी बैठ गई। आम आदमी पार्टी अब अगले चुनाव तक इस इश्यू को जिंदा रखना चाहती है, सो राज्य के उपमुख्ययमंत्री मनीष‍ सिसोदिया पब्लिक के नाम चिट्ठी लिख रहे हैं। लेकिन ‘आप’ ने यह बवाल न्‍योता क्यों, इसका जवाब किसी चिट्ठी में नहीं मिल रहा है।

(सुबह सवेरे से साभार)

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