तो फिर राहुल गांधी से कैसे अलग हुए राज ठाकरे

शनिवार को जब वह खबर आई थी, तभी उसने मुंह का स्वाद कसैला कर दिया था। मैं उम्मीद कर रहा था कि कोई तो इस पर जरूर बोलेगा। खबर यह थी कि पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर फिल्म बनाने वाले निर्माताओं की फिल्मों के विरोध पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने एक बैठक बुलाई। इसमें पाकिस्तानी कलाकारों से सजी करण जौहर की फिल्म दिल है मुश्किल का मुद्दा सबसे अहम था। राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) ने अल्टीमेटम दिया था कि चूंकि इसमें पाकिस्तानी कलाकार फवाद खान ने काम किया है इसलिए वे इसका प्रदर्शन नहीं होने देंगे। फडणवीस की मौजूदगी में करण जौहर के साथ हुई बैठक के बाद राज ठाकरे ने कहा कि चूंकि उनकी मांगें मान ली गई हैं इसलिए अब उनकी पार्टी फिल्म का विरोध नहीं करेगी।

राज ठाकरे के नरम पड़ने और इस समझौते तक पहुंचने का एक प्रमुख आधार मनसे की उस मांग को मान लिया जाना बताया गया जिसमें ठाकरे ने कहा था कि पाकिस्तानी कलाकार को फिल्म में लेने वाले प्रोड्यूसर को आर्मी रिलीफ फंड में पांच करोड़ रुपए देने होंगे।

फिल्म प्रोड्यूसर्स गिल्ड ऑफ इंडिया की अगुआई कर रहे मुकेश भट्ट ने ऐलान किया कि देश की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए अब भारतीय प्रोड्यूसर किसी भी पाकिस्तानी अभिनेता, गायक या तकनीशियन के साथ काम नहीं करेंगे।

दरअसल जब से उरी के सैन्‍य शिविर पर पाकिस्तानी आतंकवादियों का हमला हुआ है, देश में अलग अलग कारणों से सेना और उसके कामकाज को हर बात में घसीटा जा रहा है। उरी की घटना के बाद सेना द्वारा की गई ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ तक को विवाद का मुद्दा बना दिया गया। इसी कड़ी में पाकिस्तानी कलाकारों से लेकर चीनी माल के बहिष्कार जैसे नारे दिए गए। निश्चित रूप से देश के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाली कोई भी बात बर्दाश्त करने लायक नहीं है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि देशाभिमान के नाम पर चिरकुट नेताओं की बन आई है। वे ऐसी ऐसी हरकतें कर रहे हैं जिनसे न तो देश का सिर ऊंचा हो रहा है और न ही सेना का।

करण जौहर की फिल्म के रिलीज होने या न होने संबंधी विवाद को लेकर यह शर्त रखने का आखिर क्या मतलब है कि आर्मी वेलफेयर फंड में पांच करोड़ रुपए दो तभी फिल्‍म दिखाने देंगे। क्‍या यह रुख आर्मी वेलफेयर के नाम पर ब्लैकमेल करने जैसा नहीं है? यदि पाकिस्‍तानी कलाकारों से सजी फिल्‍म न दिखाने देने का फैसला किसी नीति, सिद्धांत या विचार से जुड़ा है तो फिर उस पर कोई समझौता कैसे हो सकता है, और समझौता भी यह कि पैसा दे दो तो सब ठीक है। इसका मतलब तो यह हुआ कि पैसा फेंक कर आप जब चाहें देश का स्वाभिमान गिरवी रख सकते हैं।

यदि पांच करोड़ रुपए देकर पाकिस्तानी कलाकारों वाली फिल्‍म दिखाई जा सकती है तो फिर उन बेचारे व्यापारियों का क्या कसूर है जो चीनी माल खरीदकर बैठे हैं। ऐसा ही कोई मनसेवादी समझौता उनके साथ भी क्यों न कर लिया जाए। उन्हें भी यह सुविधा क्‍यों न दे दी जाए कि यदि वे बिक्री से होने वाली आय का 25 फीसदी आर्मी वेलफेयर फंड में जमा करा दें तो उन्हें चीनी माल बेचने की खुली छूट रहेगी।

जब कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने परोक्ष रूप से ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ को लेकर ‘खून की दलाली’ का आरोप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लगाया था, तो बहुत हल्ला मचा था। उस बयान ने राहुल और कांग्रेस का जीना हराम कर दिया था। लेकिन अब फिल्म वालों के साथ जो सौदेबाजी हो रही है, क्या वह सेना के नाम पर दलाली नहीं है? इस हिसाब से तो राहुल और राज ठाकरे एक ही नाव पर सवार हैं।

राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव के इस कथन को फिर आप कैसे खारिज करेंगे कि ‘कोई आर्मी के नाम पर वोट मांग रहा है तो कोई नोट। दक्षिणपंथियो शर्म करो, शर्म। गाय और राम से पेट नहीं भरा क्या? सेना को तो बख्श दो।’

मुंबई में जो फैसला हुआ है, उसकी धज्जियां उड़ाते हुए सेना के पूर्व अधिकारियों द्वारा व्‍यक्‍त की गई नाराजी बिलकुल जायज है। सेना के इन अधिकारियों ने नसीहत दी है कि ‘सुरक्षा बलों के नाम पर राजनीति न करें।…हम सिर्फ उसी फंड को स्वीकार करते हैं जो स्वेच्छा से दिया जाता है, न कि इस तरह की जबरदस्ती से।’

कई पूर्व सैनिकों ने ट्विटर पर अपनी नाराजगी का खुलकर इजहार करते हुए पूछा है कि फिल्म प्रोड्यूसर्स से वसूले गए 5 करोड़ रुपये को क्या सेना स्वीकार करेगी? इस सवाल के जवाब में लेफ्टिनेंट जनरल सैयद अता हसनैन (रिटायर्ड) ने कहा- ‘’हरगिज नहीं।‘’

एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर (रिटायर्ड) ने कहा, चार दशकों के अपने सेवाकाल में मैंने कभी भी जबरन वसूले गए धन का समर्थन नहीं किया। मेरे देश में यह क्या हो रहा है?’ ‘…सेना वेलफेयर फंड में सहयोग के पीछे देशवासियों की भावनाओं और प्यार पर कभी भी शक नहीं करती। लेकिन यह राज ठाकरे द्वारा वसूला हुआ नहीं हो सकता।’

निश्चित रूप से सेना से जुड़े लोगों की इन भावनाओं को समझा जाना चाहिए। अभी तो ऐसा लग रहा है कि राजनीति की बोटियां चखने में लगे लोग, सेना का मांस नोचने से भी बाज नहीं आ रहे।

 

 

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