डॉ. नीलम महेंद्र
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्म दिन 23 जनवरी पर विशेष
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अपनी आजादी की कीमत तो हमने भी चुकाई है
तुम जैसे अनेक वीरों को खो के जो यह पाई है।
आजादी के समय से ही नेताओं द्वारा अपने निजी स्वार्थों को राष्ट्रहित से ऊपर रखे जाने का जो सिलसिला आरंभ हुआ था, वो आज तक जारी है। राजनीति के इस खेल में न सिर्फ इतिहास को तोड़ा मरोड़ा गया बल्कि कई सच छुपाए गए, तो कई अधूरे बताए गए।
22 अगस्त 1945, जब टोक्यो रेडियो से नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की 18 अगस्त, ताइवान में एक प्लेन क्रैश में मारे जाने की घोषणा हुई, तब से लेकर आज तक उनकी मौत इस देश की अब तक की सबसे बड़ी अनसुलझी पहेली बनी हुई है। प्रश्न यह है कि मृत्यु के लगभग 70 सालों बाद भी यह वास्तव में एक रहस्य है या फिर किसी स्वार्थवश इसे रहस्य बनाया गया है?
नेताजी की 119 वीं जयंती पर जब मोदी सरकार ने जनवरी 2016 में उनसे जुड़ी गोपनीय फाइलों को देश के सामने रखा, तो उम्मीद थी कि अब शायद रहस्य से पर्दा उठ जाएगा लेकिन रहस्य बरकरार है। यह अजीब बात है कि उनकी मौत की जांच के लिए 1956 में बनी शाहनवाज समिति और 1970 में बनी खोसला समिति दोनों के ही अनुसार नेताजी उक्त विमान दुर्घटना में मारे गये थे, इसके बावजूद उनके परिवार की जासूसी कराई जा रही थी क्यों?
2005 में गठित मुखर्जी आयोग ने ताइवान सरकार के हवाले से बताया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं थी! जब दुर्घटना ही नहीं तो मौत कैसी? 1945 के बाद भी नेताजी को रूस और लाल चीन में देखे जाने की बातें पहली दो जांच रिपोर्टों पर प्रश्न चिह्न लगाती हैं। इसलिए देश को हक है उनके विषय में सच जानने का।
नेताजी की मौत की खबर पर न सिर्फ अंग्रेजों को बल्कि खुद नेहरू को भी यकीन नहीं था, जिसका पता उस पत्र से चलता है जो उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली को 27 दिसंबर 1945 यानी कथित दुर्घटना के चार महीने बाद लिखा था। खेद यह है कि इस चिठ्ठी में नेहरू ने भारत के इस महान स्वतंत्रता सेनानी को ब्रिटेन का ‘युद्ध बंदी’ कह कर संबोधित किया, हालांकि कांग्रेस द्वारा इस प्रकार के किसी भी पत्र का खंडन किया गया है।
नेताजी की प्रपौत्री राज्यश्री चौधरी का कहना है कि अगर मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट बिना सम्पादित किए सामने रख दी जाए तो सच सामने आ जाएगा। बहरहाल फाइलें तो खुल गईं हैं सच सामने आने का इंतजार है।
बेहद अफसोस की बात है कि अपने विरोधियों को भी सम्मान देने वाले नेताजी अपने ही देश में राजनीति का शिकार बनाए गए, हालांकि उन्होंने आखिर तक हार नहीं मानी। वो नेताजी जो अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध अपने देश को न्याय दिलाने के लिए अपनी आखिरी सांस तक लड़े, उनकी आत्मा आज स्वयं के लिए न्याय के इंतजार में हैं।