सेवाग्राम में गांधी के पहले मेहमान डॉ. भीमराव आंबेडकर थे। वही आंबेडकर जिनके और गांधी के बीच में बाद में मतभेद हुए। नागपुर का इलाका गांधी, आंबेडकर और आरएसएस तीनों विचारों के संगम का इलाका है। अब यह कहना मुश्किल है कि देश के तत्कालीन परिदृश्य से लेकर आज तक ये तीनों धाराएं साथ-साथ चल रही हैं या फिर एक दूसरे के विरुद्ध।
अगले सत्र के संचालनकर्ता चिन्मय मिश्र ने बताया कि अपनी मृत्यु वाले दिन यानी 30 जनवरी 1948 को गांधी ने लिखा था- ‘’हम जिस समय में रह रहे हैं वह यादवी संघर्ष की याद दिलाता है। हम लोग आपस में झगड़ कर समाज की कितनी हानि कर रहे हैं, इसका खयाल किसी को नहीं आता। फिर भी मेरे बस में जितना है, मैं उतना स्थितियों को सुधारने की कोशिश करूंगा, ताकि भावी पीढ़ी की गालियां सुनने को न मिलें।‘’
अगले सत्र का विषय था- क्या वर्तमान समय की चुनौतियां ज्यादा गंभीर हैं? इस पर वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकांत नायडू, अरविंद मोहन और डॉ. राकेश पाठक के अलावा मुझे अपनी बात कहनी थी। सबसे पहले मुझे ही बुला लिया गया।
मेरा कहना था कि आज ‘गांधी: एक माध्यम या संदेश’ जैसे प्रश्न के साथ साथ या उससे भी आगे जाकर ‘गांधी: विचार या व्यवहार’ जैसे प्रश्न पर बात करनी होगी। हमने गांधी को विचार तक ही सीमित कर दिया है, व्यवहार के स्तर पर गांधी हमसे बहुत दूर होते जा रहे हैं। गांधी को लेकर मेरे पास प्रश्न अधिक हैं और सामाधान बहुत कम हैं।
ज्यादातर मामलों में गांधी हमारे लिए सिर्फ एक विचार हैं… व्यवहार शायद वो नहीं हैं। तो क्या आज की परिस्थितियों में गांधी या गांधी के विचार को लेकर हम आगे बढ़ सकते हैं? क्या हमें गांधी के विचार को लेकर आगे बढ़ना चाहिए? और अगर हम ऐसा कर सकते हैं, तो गांधी के विचार को व्यवहार में लाने का हमारा उपक्रम क्या हो इस पर भी बात होनी चाहिए।
आज हमें युवाओं से पूछना चाहिए कि क्या वे अपने जीवन में गांधी को अपनाना चाहेंगे? अगर अपनाना चाहेंगे तो गांधी कितनी दूर तक आपके साथ चल सकते हैं? मेरे विचार से आज की पीढ़ी के लिए अव्वल तो गांधी को पढ़ना मुश्किल, पढ़ ले तो समझना मुश्किल, समझ ले तो अमल में लाना मुश्किल और यदि अमल में ले भी आए तो उन विचारों और आदर्शों के साथ जीना मुश्किल…
गांधी को उनके समकाल में ही खारिज करने की भरपूर कोशिशें हुईं। और आज भी ऐसा नहीं है कि गांधी को खारिज करने वाले लोग कम हो गए हों। वैश्विक स्तर की क्या बात करें, खुद हमारे लिए गांधी सिर्फ इस्तेमाल की चीज रह गए हैं।
चाहे बाजार में बेच लें या राजनीति में बेच लें, हम गांधी को अमल में नहीं ला रहे, अपने ‘मुनाफे’ के लिए उन्हें सिर्फ बेच रहे हैं। सारी तिकड़में इस बात को लेकर होती हैं कि गांधी के नाम का उपयोग (यहां दुरुपयोग पढ़ें) कैसे और कहां कहां किया जा सकता है?
जहां तक चुनौतियों का सवाल है। हर समय की चुनौतियां अपने आप में गंभीर होती हैं। हम यह नहीं कह सकते कि गांधी के समय की चुनौतियां कम गंभीर थीं और आज के समय की चुनौतियां ज्यादा गंभीर हैं। उस समय कम से कम आजादी पाने का ‘लक्ष्य’ तो था, आज तो पता ही नहीं चलता कि ‘लक्ष्य’ क्या है?
दरअसल सब कुछ उस समय के समाज और उस समाज के नेतृत्व पर निर्भर करता है जो उन चुनौतियों से निपटने की राह दिखाता है। नेतृत्व के रूप में किसी कालखंड को गांधी और मार्क्स मिल जाते हैं, तो एक कालखंड को मोदी और ट्रंप… कोई नेतृत्व कालजयी है या नहीं, यह उसके स्वयं के आचरण और आदर्शों से प्रकट होता है।
फिर भी जहां तक हमारे समय की चुनौती का प्रश्न है, मैं गांधी के ही शब्दों में कहना चाहूंगा कि, मशीन को मनुष्य के सहायक के रूप में काम करना चाहिए न कि उस पर शासनकर्ता के रूप में। मेरी चिंता यह है कि बाकी चीजों को तो छोडि़ए हम सूचना, जानकारी और ज्ञान के संदर्भ में भी मशीनों पर निर्भर होते जा रहे हैं।
आज हम गांधी को उनकी किताबें पढ़कर नहीं, बल्कि या तो गूगल में सर्च करके जानते हैं या फिर वाट्सएप से आने वाली अधकचरी सूचनाओं के जरिये। आज तो स्थिति यह है कि इस जनरेशन को रास्ता भी गूगल सुझाता है। अब हम अपने गली मोहल्ले की पहचान भी खुद से नहीं गूगल मैप से करने लगे हैं। हमारी राह गूगल तय करने लगा है।
गांधी ने यह नहीं कहा था। उनका कहना था कि हम जहां जाना चाहें, हमारी आत्मा, हमारा आत्मबल हमारे संस्कार हमें जहां ले जाना चाहें हम वहां जाएं, हम किसी मशीन पर निर्भर न रहें। मानव और मशीन का द्वंद्व गांधी के समय उतना न रहा हो, लेकिन आज यह द्वंद्व समूची मानव सभ्यता के सामने मुंह फैलाकर खड़ा है।
सबसे बड़ा खतरा ज्ञान के क्षेत्र में है। मैं उस समय की कल्पना करके ही सिहर जाता हूं, जहां सारे लोग जानकारी और ज्ञान के लिए गूगल पर निर्भर होंगे और गूगल यदि कह दे कि गांधी नामका कोई प्राणी इस दुनिया में हुआ ही नहीं था तो हम शायद गांधी का नाम ही भूल जाएं। आज भी तो कई बार ‘गांधी’ को सर्च करने पर रिचर्ड एटनबरो आ ही जाते हैं ना…
दुनिया आज आर्टिफिशियल इंटलीजेंस (एआई) की तरफ बढ़ रही है। यह मनुष्य के दिमाग को कुंद करके उसे मशीनों के आसरे डालने की साजिश है। केल्यूलेटर जब आया तो हम छोटा मोटा जोड़-बाकी तक भूल गए। अब यह ‘एआई’ की दुनिया हमें कहां ले जाएगी, अंदाज लगाना भी मुश्किल है।
जरूरत इस बात की है कि ‘तीन बाय छह’ इंच के इस उपकरण (मोबाइल) से दूर होकर, इससे बाहर आकर, हम अपने आसपास के समाज और पर्यावरण को जानें, अपने लोगों को जानें, तभी शायद हम गांधी को भी थोड़ा बहुत जान पाएंगे… (जारी)