वैसे तो आजकल सार्वजनिक समारोहों के भाषणों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। मौका चाहे जो भी हो नेताओं या अफसरों के भाषण सिर्फ रस्म निभाने के लिए दिए जाते हैं। उनमें बातें तो बहुत उपदेश की होती हैं लेकिन यथार्थ की दुनिया में झांकें तो ये सारे उपदेश शायद आपको कूड़ेदान में भी नजर नहीं आएं। कभी रहा होगा वो समय जब जनता ‘बड़े लोगों’ या ‘नेताओं’ के भाषण गौर से सुना करती होगी और उस पर गौर भी किया करती होगी। लेकिन आजकल लोग ऐसे भाषणों पर गौर नहीं करते बल्कि उनसे ‘बोर’ होते हैं। भाषण देने वाले को भी पता है कि वह जो कह रहा है उससे कुछ होना जाना नहीं है और सुनने वाला भी जानता है कि उसके कानों में इतनी देर से जो बातें पेली जा रही हैं उन्हें एक तरफ से सुनना और दूसरे तरफ से तत्काल निकाल देना है।
इसलिए जब शुक्रवार को मैंने अखबारों में 20 अप्रैल को देशभर में आयोजित ‘सिविल सर्विस डे’ की खबरें पढ़ी तो मैं सोच में पड़ गया कि आखिर ये बातें कौन, किसको सुना रहा है और क्यों? मुझे इस मौके पर दिल्ली से लेकर भोपाल तक हुए आयोजन की खबरें पढ़कर हंसी भी आई और चचा गालिब की तर्ज पर कहने को मन हुआ- कौन न मर जाए ऐ खुदा इस मासूमियत पर…
एक अखबार ने इस आयोजन की खबर को छापने में गजब का दिमाग लगाया। उसने दिल्ली में राजनाथसिंह की और भोपाल में शिवराजसिंह की खबरें आमने सामने छाप दीं। कोई अगर इन्हें बारीकी से देखे तो साफ नजर आएगा कि दिल्ली में जो बात कही जा रही है उसके ठीक विपरीत नसीहत भोपाल में दी जा रही है।
राजनाथसिंह ने दिल्ली में अफसरों से कहा- ‘’आप नेताओं के गलत आदेश के खिलाफ खड़े हों और उनके ‘यस मैन’ न बनें। नौकरशाहों को निष्पक्ष रहना चाहिए और फैसले लेने में संकोच नहीं करना चाहिए। अगर राजनेता गलत आदेश देते हैं तो अफसर उन्हें बताएं कि वह गलत हैं। अफसर हां में हां न मिलाएं और जमीर के खिलाफ न जाएं। सिविल सर्विस में पावर है। लेकिन पावर के साथ जवाबदेही भी जुड़ी है, ये बात हमेशा ध्यान रखनी चाहिए।‘’
गृह मंत्री ने कहा- ‘’जवाबदेही और जिम्मेदारी के अलावा निष्पक्षता नौकरशाही के लिए बेहद अहम है। इसके बिना निर्णय लेने की क्षमता प्रभावित हो सकती है। फैसले न लेकर आप देशहित को नुकसान पहुंचाते हैं।‘’
और इधर भोपाल में अपने शिवराजसिंह की पीड़ा कुछ अलग ही नजर आई। वे बोले- ‘’कई अफसर ऐसे हैं, जो आज भी खुद को शासक समझते हैं। वे सोचते हैं कि हमारा कोई क्या बिगाड़ लेगा। यदि लोक सेवा में आने के बाद आपने जनता के लिए कुछ नहीं किया तो आपका जीवन बेकार है।… अधिकारी एक आदेश निकालकर अपना काम पूरा मान लेते हैं, वे यह न भूलें कि उसे नीचे तक लागू करवाना भी उन्हीं का काम है। अधिकारी अपना काम समय पर नहीं करते और जो काम करते हैं, उसमें भी कोई न कोई पेंच फंसा कर रखते हैं।‘’
अब सवाल यह है कि निष्पक्षता और राजशाही मानसिकता को परिभाषित कौन करेगा? उसकी पहचान कैसे होगी? गांव से लेकर भोपाल और दिल्ली तक, तंत्र चाहे राजनीति का हो या प्रशासन का, उसकी बुनियाद में अभी तक गुलामी के जमाने की ही ईंटें लगी हुई हैं। कहने को हम लोकतंत्र हैं, लेकिन व्यवस्था तो शासक और शासित वाली ही है। अंग्रेजों के जमाने की ईंटों से तैयार इस बुनियाद पर एक तरफ राजनीति ने अपने महल खड़े कर लिए हैं तो दूसरी तरफ अफसरशाही की आलीशान कोठियां खड़ी हो गई हैं।
राजनाथ सिंह कहते हैं अफसर ‘यस मैन’ न बनें, दूसरी तरफ शिवराज की पीड़ा है कि अफसर हर काम में फच्चर फंसा देते हैं। तो नेताओं व अफसरों के लिए सीमा रेखाएं क्या हैं? हो सकता है जिस मामले को नौकरशाही ‘यस मैन’ न बनकर निपटा रही हो उसे भोपाल में पेंच फंसाना समझा जाए और जो पेंच न फंसा रहा हो उसे ‘यस मैन’ करार दे दिया जाए।
दरअसल समस्या की जड़ में वही शासक और शासित की मानसिकता है। यह मानसिकता सरकार/प्रशासन व जनता के बीच भी दिखती है और नेताओं व अफसरों के बीच भी। हर जगह एक सामंत वर्ग बैठा हुआ है, जो सामने वाले को अपनी रियाया या गुलाम समझकर बर्ताव करता है। बाहर तो लोगों को पता नहीं चलता लेकिन जो लोग इस तंत्र को भीतर से देख पाते हैं उन्हें अच्छी तरह पता है कि सरकार और अफसरशाही भी एक दूसरे के पूरक या समानांतर नहीं बल्कि एक दूसरे के खिलाफ खड़े अथवा काम करते नजर आते हैं। हरेक को अपने मनमुताबिक काम करने की ‘छूट’ चाहिए। क्योंकि यही छूट उस ‘लूट’ का आधार बनती है जिससे उन महलों और कोठियों का निर्माण होता है जिसका जिक्र मैंने ऊपर किया।
रही बात सिद्धांत की तो दो उदाहरण ले लीजिए- एक भाषण में कहा गया कि आजकल कलेक्टर को बदलने पर जनता जुलूस निकालती है, हमें ऐसे ही अधिकारी चाहिए। लेकिन जब कटनी में ऐसा अधिकारी काम करता है तो उसे बदल दिया जाता है। दूसरी तरफ ‘यसमैन’ न बनने की सलाह दी जाती है, लेकिन दीपाली रस्तोगी यदि सरकार की शौचालय योजना पर तार्किक सवाल उठाती हैं उन्हें कारण बताओ नोटिस जारी हो जाता है।
आप ही बताइए ऐसे में कोई करे तो क्या करे….?