संदर्भ-1
मुख्यमंत्री शिवराजसिंह ने पिछले दिनों मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों की बैठक में बड़े ही तल्ख अंदाज में कहा था कि ‘’मैं जो भी बात या घोषणा करूं उसे पत्थर की लकीर समझा जाए। फिर उसे फाइलों या टेबलों में घुमाने की प्रथा बंद की जाए।‘’ आपको याद दिला दें कि प्रदेश की आंगनवाडि़यों में पोषण आहार की ठेकेदारी प्रथा समाप्त करने और भोपाल शहर के बीचोंबीच नया कत्लखाना बनाने की योजना को रद्द करने का ऐलान मुख्यमंत्री ने इसी बैठक में किया था।
संदर्भ-2
पिछले साल सितंबर माह में 12 तारीख को मध्यप्रदेश में एक अत्यंत हृदय विदारक दुर्घटना हुई थी। झाबुआ जिले के पेटलावद में अवैध रूप से रखे गए विस्फोटकों के गोदाम में आग लग जाने से भीषण विस्फोट में 78 लोगों की मौत हो गई थी। घटना के तत्काल बाद मुख्यमंत्री पेटलावद पहुंचे थे और स्थानीय नागरिकों के भारी विरोध के बावजूद उन्होंने पीडि़त परिवारों से मुलाकात कर उनके लिए मुआवजे और भारी भरकम राहत पैकेज का ऐलान किया था।
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पेटलावद की घटना के एक साल बाद उस हादसे की बरसी पर मीडिया में जो खबरें छपी हैं वे कहती हैं कि मुख्यमंत्री की ज्यादातर घोषणाएं पूरी नहीं हो सकी हैं। पीडि़त परिवारों को नौकरी का वादा किया गया था लेकिन सिर्फ 26 को नौकरी मिली। कई परिवार राहत के लिए भटक रहे हैं।
पेटलावद कांड के बाद झाबुआ संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव हुआ था और उसमें सत्तारूढ़ दल भाजपा की करारी हार हुई थी। लेकिन उस हार के तत्काल बाद मुख्यमंत्री ने झाबुआ पहुंचकर कहा था कि हम यहां के लोगों की समस्याएं दूर करेंगे और उनका विश्वास जीतेंगे।
जिस पेटलावद में विस्फोट की घटना हुई थी वह इसी झाबुआ संसदीय क्षेत्र में आता है। और इस लिहाज से देखें तो पहले से ही मुख्यमंत्री के रडार पर रहा यह शहर, लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद लिए गए संकल्प के बाद तो और भी ज्यादा तेजी से घोषणाओं पर अमल की अपेक्षा रखता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
अब यह कहना तो निहायत टुच्ची बात होगी कि झाबुआ हार जाने के बाद सरकार ने उस इलाके से आंखें फेर ली। मुख्यमंत्री की व्यक्तिगत संवेदनशीलता के स्तर को देखते हुए यह असंभव सा लगता है। तो फिर क्या हुआ कि पेटलावद के घावों पर राहत का मरहम रखने के बजाय उपेक्षा का नमक रख दिया गया?इस सवाल का जवाब आपको हाल ही में 6 सितंबर को भोपाल में हुई मंत्रियों व अफसरों की बैठक में कही गई मुख्यमंत्री की उस बात में मिलेगा जिसका जिक्र हमने शुरुआत में ही किया है। अब इन संदर्भों में जरा उस बात को दुबारा पढि़ए, मुख्यमंत्री ने अफसरों से कहा- ‘’मैं जो भी बात या घोषणा करूं उसे पत्थर की लकीर समझा जाए। फिर उसे फाइलों या टेबलों में घुमाने की प्रथा बंद की जाए।‘’
याद रखिए यह बात उस मुख्यमंत्री को कहनी पड़ी है जो पिछले करीब 11 साल से प्रदेश के मुखिया हैं। प्रदेश में ऐसा सख्त बयान देने की जरूरत शायद ही किसी मुख्यमंत्री को पड़ी हो। जिन लोगों को द्वारका प्रसाद मिश्र, गोविंदनारायण सिंह, प्रकाशचंद सेठी, अर्जुनसिंह, ओमप्रकाश सखलेचा और सुंदरलाल पटवा जैसे मुख्यमंत्रियों का जमाना याद है वे आपको बताएंगे कि इन लोगों के समय नौकरशाही किस तरह काम करती थी। इनमें से शायद कभी किसी को अफसरों से यह कहने की जरूरत नहीं पड़ी कि- मेरा कहा मानिए…
ऐसा लगता है कि मुख्यमंत्री की सदाशयता का नौकरशाही जमकर फायदा उठा रही है। और फायदा क्या अब तो महसूस होता है कि वह मुख्यमंत्री के आदेशों निर्देशों की भी अनदेखी करने लगी है। वरना क्या कारण है कि पेटलावद जैसी गंभीर घटना में, जहां मुख्यमंत्री गुस्साई भीड़ के बीच जान हथेली पर रखकर पहुंचे थे और उन्होंने पीडि़त परिवारों के लिए राहत का पैकेज घोषित किया था, उस पर पूरी तरह अमल नहीं हो पाया।
पेटलावद की घटना के समय मुख्यमंत्री ने कहा था कि मैं रात भर सो नहीं सका। उनके इस कथन पर हमने इसी कॉलम में टिप्पणी की थी कि राजा का काम सेनापतियों की कामचोरी के कारण खुद की नींद उड़ाना नहीं बल्कि ऐसे सेनापतियों की नींद हराम कर देना है।
जिस पत्थर की लकीर का जिक्र मुख्यमंत्री ने किया है, उसका टेस्ट पेटलावद की घटना के संदर्भ में ही हो जाना चाहिए। इतने बड़े हादसे के बाद इस भारी भरकम नौकरशाही में क्या कोई नहीं था जो मुख्यमंत्री की घोषणाओं को अमली जामा पहनाने की चिंता करता? सवाल पूछा जाना चाहिए मुख्य सचिव से,मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव से कि आखिर वे क्या कर रहे थे?
लेकिन विडंबना यह है कि वर्तमान मुख्य सचिव चलाचली की बेला में हैं और तत्कालीन प्रमुख सचिव उनकी कुर्सी पर पदारूढ़ होने के सपने देख रहे हैं। जिस व्यवस्था में सबको अपनी-अपनी ही पड़ी हो, वहां पत्थर की लकीरें तो रेत की लकीरों में बदलेंगी ही.