टाइम मिले तो इन कुत्‍तों की तरफ भी ध्‍यान देना

मध्‍यप्रदेश में नई सरकार अपने गठन के बाद से ही बहुत सारे बड़े-बड़े मसलों को सुलझाने में लगी हुई है। कर्ज माफी से लेकर युवाओं को रोजगार तक और मीसाबंदियों की पेंशन से लेकर वंदे मातरम तक हर मोर्चे पर सरकार की सक्रियता दिखाई दे रही है। इस सक्रियता से अभी एक बात तो जरूर लग रही है कि नई सरकार मामलों को ज्‍यादा लटकाए रखने के मूड में नहीं है।

लेकिन सरकार की इन्‍हीं बड़ी-बड़ी व्‍यस्‍तताओं के बीच आम जनता के कुछ छोटे-छोटे मुद्दे भी हैं जिन पर ध्‍यान देना बहुत जरूरी है। ऐसा इसलिए क्‍योंकि ये मुद्दे लोगों की रोजमर्रा परेशानियों और उनके जीवन से जुड़े हैं। यह सही है कि न भाजपा के दृष्टि पत्र में इन मुद्दों का जिक्र था और न कांग्रेस के वचन पत्र में, लेकिन ये ऐसे भी नहीं है कि जिनकी ओर से आप आंखें फेर लें।

जिस दिन राज्‍य की नई सरकार ‘वंदे मातरम’ के गायन को लेकर पैदा हुए विवाद को सुलझाने में लगी थी उसी दिन राजधानी भोपाल की सड़कों पर एक घटना घटी। हुआ यूं कि देर रात सिंधी कॉलोनी चौराहे के पास सड़क पर लड़ रहे सात-आठ कुत्‍ते वहां से गुजर रही बाइक से टकरा गए। अचानक हुई इस दुर्घटना के चलते बाइक का संतुलन बिगड़ा और उस पर सवार दो युवक काफी दूर तक घिसटते चले गए।

दुर्घटना में घायल दोनों युवकों को अस्‍पताल ले जाया गया जहां 22 साल के युवक तारिक की अधिक खून बहने से मौत हो गई। यह युवक एक होटल में काम करता था। यानी छोटा मोटा रोजगार कर खुद का भरण पोषण कर रहा था। लेकिन लंबे समय से चली आ रही आवारा कुत्‍तों की समस्‍या ने उसकी जान ले ली।

इसके पहले भी राजधानी में कुत्‍तों से बचने के फेर में भाग रहे बाइक सवार की मौत हो चुकी है। घर के बाहर खेल रहे डेढ़ साल के एक बच्‍चे को कुत्‍तों ने नोच कर मार डाला था। आवारा कुत्‍ते के काटने से कोलार इलाके की एक महिला की पिछले दिनों ही मौत हुई। और ये तो वे घटनाएं हैं जो मीडिया में रिपोर्ट हुई हैं, इनके अलावा दर्जनों ऐसी घटनाएं हैं जो सामने नहीं आईं।

मीडिया रिपोर्ट्स ही कहती हैं कि पिछले नौ महीनों में ही आवारा कुत्‍तों के कारण राजधानी में होने वाली यह चौथी मौत है। इंटीग्रेटेड डिसीज सर्विलांस प्रोग्राम की रिपोर्ट के अनुसार शहर में हर दिन कुत्‍ते 50 से अधिक लोगों को जख्‍मी कर रहे हैं। हर साल यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। आवारा कुत्‍तों का सबसे ज्‍यादा शिकार बच्‍चे, बूढ़े और दुपहिया सवार हो रहे हैं।

न केवल भोपाल बल्कि प्रदेश के अधिकांश शहरों में यह समस्‍या बढ़ती ही जा रही है। शायद ही कोई मोहल्‍ला या बस्‍ती ऐसी बची हो जहां आवारा कुत्‍तों का प्रकोप न हो। एक अनुमान के मुताबिक अकेले भोपाल शहर में ही सवा लाख से ज्‍यादा स्‍ट्रीट डॉग्‍स हैं। भोपाल नगर निगम प्रतिदिन औसतन 30 कुत्‍ते पकड़ने का दावा करता है। लेकिन दिक्‍कत यह है कि नसबंदी और टीकाकरण के बाद अधिकांश मामलों में ऐसे कुत्‍तों को वहीं छोड़ दिया जाता है।

कुत्‍तों के साथ उनकी बढ़ती संख्‍या वाली समस्‍या तो है ही उनके रेबीज का वाहक होने की भी जानलेवा समस्‍या है। नगर निगम की ओर से नसबंदी और एंटी रेबीज अभियान चलाने का दावा तो किया जाता है कि लेकिन पिछले एक साल में ही राजधानी में रेबीज से तीन लोगों की मौत हो चुकी है।

कुत्‍तों की नसबंदी के अभियान पर हर साल अकेले भोपाल में ही करीब डेढ़ करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। लेकिन उसका भी एक अलग ही रैकेट है। कौनसे कुत्‍तों की नसबंदी हो रही है और ऐसे कुत्‍तों को कहां छोड़ा जा रहा है इसका कोई सही सही लेखा जोखा नहीं है। शिकायतें तो एक ही कुत्‍ते की कई बार नसबंदी दिखाकर, संबंधित एजेंसी द्वारा पैसा वसूल लेने की भी हैं।

और जो कुत्‍ते रेबीज के वाहक नहीं है, सड़कों, गलियों, मोहल्‍लों में उनकी धमाचौकड़ी जानलेवा बन रही है। आसपास से गुजरते लोगों पर झपट पड़ना या नजदीक से निकल रहे दुपहिया वाहनों के पीछे दौड़ जाना, ऐसी घटनाएं हैं जिनमें व्‍यक्ति अचानक हुए हमले से संभल नहीं पाता और कुत्‍ता भले ही उसे कोई हानि न पहुंचाए, अपना नियंत्रण खोने के कारण वह हादसे का शिकार हो जाता है।

इस समस्‍या की गंभीरता का अंदाज आप इसी बात से लगा सकते हैं कि जिस तरह घर वाले आमतौर पर बच्‍चों को आपराधिक गतिविधि वाले इलाके से न गुजरने की सलाह देते हैं उसी तरह अखबारों में अब ऐसे गली मोहल्‍लों की सूचियां छपने लगी हैं जहां आवारा कुत्‍तों का आतंक है। लोगों को सलाह दी जा रही है कि वे इन रास्‍तों से या तो न गुजरें और यदि गुजर ही रहे हों तो सावधानी बरतें।

एक और मामला एंटी रेबीज इंजेक्‍शन की कम उपलब्‍धता का भी है। अकसर ये शिकायतें मिलती हैं कि सभी अस्‍पतालों में ये टीके अव्‍वल तो उपलब्‍ध नहीं हैं, जहां उपलब्‍ध भी हैं वहां पर्याप्‍त मात्रा में न होने के कारण लोगों को निजी तौर पर इन्‍हें खरीदने पर मजबूर होना पड़ रहा है। राजधानी के सरकारी जेपी अस्‍पताल में ही औसतन करीब 80 मरीज रोज एंटी रेबीज इंजेक्‍शन लगवाने के लिए पहुंचते हैं।

कुल मिलाकर समस्‍या काफी गंभीर है। हाल ही में मैं पढ़ रहा था कि सरकार इस बात पर फिर से विचार कर रही है कि इंदौर भोपाल जैसे शहरों में मेट्रो रेल चलाई जाए या मोनो रेल। मेरी गुजारिश बस इतनी है कि इन करोड़ों के प्रोजेक्‍ट के जाल में उलझकर कहीं आप आवारा कुत्‍तों जैसी समस्‍या की अनदेखी मत कर दीजिएगा। भविष्‍य में लोग मेट्रो में बैठेंगे या मोनो रेल में यह तो पता नहीं, पर अभी तो सचमुच उन्‍हें सड़क पर चलने में भी डर लगता है। इस डर का भी कुछ कीजिएगा…

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