नए साल के आगमन की मौज मस्ती और शुभकामनाओं के आदान प्रदान के 24 घंटों के भीतर ही आई एक खबर ने मन खट्टा कर दिया। बीत चुके 2019 को याद करते समय कहा गया था कि वह साल भारत के लिए बहुत बुरा रहा। इसके साथ ही उम्मीद जताई जा रही थी कि 2020 में हालात सुधरेंगे और निराशाएं दूर होंगी। लेकिन साल के पहले ही दिन एक घटना ने संकेत दे दिए हैं कि 2019 जाते जाते भारत को नफरतों के जो घाव दे गया है उनसे लहू का रिसाव इतनी जल्दी थमने वाला नहीं है।
खबर यह है कि आईआईटी कानपुर ने मशहूर शायर फैज अहमद फैज की चर्चित नज्म ‘हम देखेंगे…’ को लेकर एक जांच कमेटी बनाई है जो पता लगाएगी कि क्या यह नज्म ‘हिन्दू विरोधी’ है? खबरें कहती हैं कि दिल्ली के जामिया मिलिया इस्लामिया में हुई पुलिस कार्रवाई के खिलाफ आईआईटी कानपुर में 17 दिसंबर को हुए छात्रों के प्रदर्शन के दौरान फैज अहमद फैज की यह नज़्म गाई गई थी। आईआईटी के ही एक फैकल्टी मेंबर ने इसे हिंदू विरोधी बताते हुए नज़्म के ‘बुत उठवाए जाएंगे’ और ‘नाम रहेगा अल्लाह का’ वाले हिस्से पर आपत्ति जताई है।
फैज अहमद फैज पाकिस्तान के मशहूर शायर थे और उर्दू साहित्य में उनका मुकाम बहुत ऊंचा है। वामपंथी विचारधारा से प्रेरित फैज को ‘लेनिन शांति पुरस्कार’ भी मिला था और उनका नाम नोबल सम्मान के लिए भी प्रस्तावित किया गया था। फैज पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के नजदीक थे और भुट्टो ने उन्हें शिक्षा एवं संस्कृति मंत्रालय में सलाहकार बनाया था। पाकिस्तान में सेना प्रमुख जिया उल हक ने भुट्टो सरकार का तख्ता पलट दिया था और उसके बाद फैज को कई सालों तक निर्वासित जीवन बिताना पड़ा था।
फैज की जिस नज्म को लेकर विवाद हुआ है वह जिया उल हक हुकूमत के खिलाफ मूल रूप से ‘व-यबक़ा-वज्ह-ओ-रब्बिक’ नाम से 1979 में लिखी गई थी। बाद के सालों में यह नज्म जन-आंदोलनों खासतौर से वामपंथी विरोध प्रदर्शनों का पसंदीदा हथियार बन गई। आज भी इस नज्म को ऐसे आंदोलनों में उसी शिद्दत से गाया जाता है। इस नज्म के बोल हैं-
हम देखेंगे/ लाज़िम है कि हम भी देखेंगे/ वो दिन कि जिस का वादा है/ जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है/ जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ/ रूई की तरह उड़ जाएँगे/ हम महकूमों के पाँव-तले/ जब धरती धड़-धड़ धड़केगी/ और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर/ जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी/ जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से/ सब बुत उठवाए जाएँगे/ हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम/ मसनद पे बिठाए जाएँगे/ सब ताज उछाले जाएँगे/ सब तख़्त गिराए जाएँगे/ बस नाम रहेगा अल्लाह का/ जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी/ जो मंज़र भी है नाज़िर भी/ उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा/ जो मैं भी हूँ और तुम भी हो/ और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा/ जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
विचारधारा किसी की कुछ भी हो, लेकिन यह बात समझ से परे है कि जिस नज्म को जाने कितने ही आंदोलनों, प्रदर्शनों में गाया गया हो, जाने कितने लेखों में इसका उद्धरण दिया गया हो, जिस पर आज तक धार्मिक या संप्रदायिक होने का आरोप नहीं लगा हो और जिसे हिन्दू-मुस्लिम नजरिये से कभी नहीं देखा गया हो, उसे आज क्यों इस तरह सांप्रदायिक चश्मे से देखा जा रहा है?राजनीतिक प्रतिबद्धताएं और विरोध अपनी जगह है लेकिन क्या इतिहास में जनता की आवाज या पसंद के रूप में दर्ज हो चुकी साहित्यिक रचनाएं भी अब इस तरह के विवादों में घसीटी जाएंगी?
क्या हम चीजों को इतना सतही तौर पर देख कर ही उनके बारे में फैसले करने लगेंगे। और जो लोग इस तरह की आपत्तियां उठा रहे हैं उन्हें क्या यह पता भी है कि फैज ने यह रचना एक फौजी तानाशाह के खिलाफ लिखी थी। उन्होंने इसमें ‘बुत’ और ‘अल्लाह’ जैसे शब्दों का प्रतीकात्मक रूप से इस्तेमाल किया है जो एक शायर का हक है। क्या हमारे यहां आपातकाल के समय बहुत सी बातें प्रतीकात्मक रूप से नहीं कही गई थीं, क्या स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान हमारे साहित्यकारों ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रतीकों का सहारा लेकर अपनी बात नहीं कही थी?
हम यह क्यों भूल रहे हैं कि पाकिस्तान के जिन हुक्मरानों को हम दिनरात कोसते रहते हैं, यह नज्म फैज ने उन्हीं हुक्मरानों के खिलाफ लिखी थी। जिया उल हक जैसे तानाशाह के खिलाफ, जिसने भाषाई तंगदिली का परिचय देते हुए अपने मुल्क में ‘खुदाहाफिज’ कहने पर पाबंदी लगाते हुए उसके बजाय ‘अल्लाहहाफिज’ कहने का फरमान जारी किया था, वो भी सिर्फ इसलिए कि ‘खुदा’ फारसी का शब्द है और ‘अल्लाह’ अरबी का। इस फौजी तानाशाह ने अपने मुल्क में महिलाओं के साड़ी पहनने पर रोक लगा दी थी और उसके इस फैसले के खिलाफ पाकिस्तान की मशहूर गायिका इक़बाल बानो ने लाहौर के एक स्टेडियम में साड़ी पहन कर 50000 लोगों के सामने फ़ैज़ की यही नज़्म गाई थी।
हमारे यहां विरोध प्रदर्शनों में कविताओं, गीतों, नज्मों, शेरों, दोहों, चौपाइयों आदि का इस्तेमाल आज से नहीं आजादी के आंदोलन से हो रहा है। यूपीए सरकार के समय अण्णा हजारे के आंदोलन के दौरान चर्चित कवि शलभ श्रीरामसिंह की कविता- नफ़स-नफ़स, क़दम-क़दम/ बस एक फ़िक्र दम-ब-दम/ घिरे हैं हम सवाल से, हमें जवाब चाहिए/ जवाब दर-सवाल है कि इन्क़लाब चाहिए- को खूब गाया गया था तो क्या सरकार ने उस पर पाबंदी लगा दी थी?
साहित्य का इस तरह सांप्रदायीकरण किसी भी सूरत में ठीक नहीं है। किसी भी रचना को उसके मूल संदर्भ में देखा जाना चाहिए। बात सिर्फ पाकिस्तान के वामपंथी शायर फैज अहमद फैज की ही नहीं है, भारत में भी कई शायरों और कवियों ने हिन्दू देवी देवताओं के लिए काव्य रचा है, उन्हें तो इस तरह बुतपरस्त बताकर खारिज नहीं किया गया। आज फैज पर आपत्ति उठाने वाले क्या रसखान को खारिज कर पाएंगे, क्या हिन्दी फिल्म इतिहास के सार्वकालिक गीत- ‘’मन तड़पत हरि दर्शन को आज’’ को हम मिटा सकेंगे, जिसे लिखा था शकील बदायूंनी ने, गाया था मोहम्मद रफी ने और जिसका संगीत दिया था नौशाद ने…