मध्यप्रदेश में आम आदमी पार्टी का वैसा कोई व्यापक जनाधार नहीं है। हां, गाहे बगाहे इस पार्टी से जुड़े लोग अपने धरना, प्रदर्शन आदि के चलते चर्चा में जरूर रहते हैं। इसके बावजूद ‘आप’ के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जब भी भोपाल में रैली करते हैं उसमें अच्छी खासी भीड़ जुट जाती है।
केजरीवाल ने जब 20 दिसंबर 2016 को भोपाल के छोला मैदान पर ‘परिवर्तन रैली’ आयोजित की थी, उस समय भी उसमें अच्छी खासी संख्या में लोग मौजूद थे और करीब एक साल बाद रविवार यानी 5 नवंबर 2017 को जब वे बीएचईएल के दशहरा मैदान पर आम आदमी पार्टी की ‘शंखनाद रैली’ को संबोधित करने आए तो उसमें काफी लोग उन्हें सुनने पहुंचे।
एक समय था जब इस तरह की राजनीतिक रैलियां लोगों के बनते-बिगड़ते राजनीतिक मूड का थर्मामीटर हुआ करती थीं। राजनीतिक दलों से लेकर प्रशासनिक गलियारों तक में भीड़ की संख्या को लेकर यह सूंघने की कोशिश होती थी कि ‘हवा का रुख’ किधर जा रहा है। लेकिन जब से आयोजित-प्रायोजित रैलियों का चलन शुरू हुआ है, भीड़ की मौजूदगी के आधार पर अंदाज लगाना मुश्किल होता है कि राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा। और बैठना तो दूर, यह भी पता नहीं चलता कि वह ऊंट करवट लेने के मूड में भी है या नहीं।
इन दिनों देश में बहुत राजनीतिक जगह रैलियां चल रही हैं। गुजरात और हिमाचल प्रदेश, विधानसभा चुनावों के कारण ऐसी रैलियों और जनसभाओं का केंद्र बने हुए हैं। वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभाओं में भी भीड़ आ रही है और कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की सभाओं में भी। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि यह भीड़ वोट में कितनी तब्दील होगी और सत्ता प्राप्ति का आशीर्वाद किसे मिलेगा।
हां, इन रैलियों के बारे में एक बात जरूर कही जा सकती है कि इनके जरिये जनता को राजनीति की अंदरूनी और बाहरी दोनों उठापटक का अंदाजा हो जाता है। रोज नए जुमले, नए तीर निशाने, मनोरंजन भी करते हैं और सोचने पर मजबूर भी। कई बार ऐसी सभाओं में कुछ ऐसी बातें कही या सुना दी जाती हैं जो दूर तलक जाने की संभावना रखती हैं।
जैसे अरविंद केजरीवाल ने रविवार को भोपाल की सभा में एक अच्छा जुमला दिया। उन्होंने अपने नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार के कामकाज का हवाला देते हुए कहा कि जो काम हमने दिल्ली में ढाई साल में कर दिखाए वे काम मध्यप्रदेश में चौदह साल पुरानी शिवराज सरकार क्यों नहीं कर पाई? भीड़ की ओर देखकर वे बोले- जब मैं यहां आया तो सोच रहा था कि हजारों लोग यहां क्यों आए है? फिर समझ में आया कि इतनी बड़ी संख्या में लोगों की मौजूदगी इस बात का सबूत है कि मप्र की जनता वर्तमान सरकार से दुखी है।
मध्यप्रदेश के राजनीतिक और प्रशासनिक चाल चलन में नासूर बन चुके भ्रष्टाचार के बारे में केजरीवाल ने पूछा कि हमारे यहां तो ढाई साल में भ्रष्टाचार में 81 प्रतिशत कमी आई है, लेकिन मध्यप्रदेश में क्या हुआ, यह सबको दिख रहा है। मध्यप्रदेश के साथ ही उन्होंने मोदी सरकार को भी लपेट लिया। सेन्ट्रल विजिलेंस कमीशन की रिपोर्ट का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि मोदी सरकार के राज में भ्रष्टाचार में68 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
जाहिर है भ्रष्टाचार का जिक्र करके केजरीवाल ने मध्यप्रदेश के उन अधिकांश लोगों के मन की बात कही है, जो कई बरसों से इसका शिकार होने को मजबूर हैं। देश में कई लोग ऐसे हैं जिन्हें केजरीवाल की हरकतों से लेकर उनकी सूरत और फितरत तक से सख्त नफरत है। लेकिन भोपाल आकर उन्होंने भ्रष्टाचार का जो सवाल उठाया है, उससे असहमत होने वाले लोग शायद ही मिलें।
इसके साथ ही ढाई साल बनाम 14 साल का जिक्र करके केजरीवाल ने अनजाने में ही राजनीति के चरित्र में गहरे धंसा हुआ एक सवाल उठा दिया है। वह सवाल यह है कि राजनीतिक नेतृत्व की भी क्या कोई मियाद होनी चाहिए? राजनीति में पकी हुई उम्र के लोगों को रिटायर करने के मुद्दे पर तो देश में काफी बहस हुई है। मध्यप्रदेश में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों बाबूलाल गौर और सरताजसिंह को पार्टी ने उम्र के आधार पर ही हटाया था। लेकिन क्या ऐसा भी कोई पैमाना तय होना चाहिए कि कोई एक व्यक्ति अमुक अवधि तक ही देश प्रदेश का नेतृत्व कर सकेगा?
अमेरिका में यह प्रावधान है कि दो बार से ज्यादा कोई व्यक्ति वहां का राष्ट्रपति नहीं रह सकता। लेकिन भारत में पार्षद, विधायक से लेकर सांसद चुने जाने तक ऐसी कोई बंदिश नहीं है कि एक व्यक्ति इतनी अवधि या इतनी बार तक ही जन प्रतिनिधि हो सकता है। यही मापदंड जनप्रतिनिधियों के बीच से चुने जाने वाले मंत्रियों, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री पर भी लागू होता है।
ऐसे में जब केजरीवाल ढाई साल बनाम 14 साल का जिक्र करते हैं तो वे शायद यह मुद्दा भी उठा रहे होते हैं कि एक ही व्यक्ति को इतने लंबे समय तक कमान सौंपे जाने के हानि लाभ का भी समुचित और वस्तुनिष्ठ आकलन होना चाहिए। लेकिन भारतीय राजनीति की जो तासीर है उसमें क्या यह मुमकिन है? यदि कोई व्यक्ति अपने नेतृत्व में पार्टी को लगातार जीत दिला रहा है तो क्या कोई राजनीतिक दल केवल इसलिए उसे हटाना चाहेगा कि उसका निश्चित अवधि का कार्यकाल पूरा हो गया है।
कुल मिलाकर एक व्यक्ति के लगातार सत्ता शीर्ष में बने रहने का यह मामला एक तरह से राजनीतिक मुखियाओं की ‘एक्सपायरी डेट’ तय करने का है। लेकिन क्या जिस तरह से दवाओं या खाद्य वस्तुओं की एक्सपायरी डेट तय की जाती है, उसी तरह नेताओं की भी कोई एक्सपायरी डेट तय की जा सकती है, या की जानी चाहिए…?
और क्या वर्तमान परिस्थितियों में यह प्रश्न विचारणीय भी है???