गिरीश उपाध्याय
मध्यप्रदेश के ढाई साल पुराने शिवराजसिंह मंत्रिमंडल का जिस तरह से विस्तार हुआ है, उसने पिछले कई सालों से चले आ रहे पार्टी की अंदरूनी राजनीति के अपेक्षाकृत शांत पानी में बहुत बड़ा पत्थर फेंककर हलचल मचा दी है। जाहिर ये लहरें जल्दी शांत होने वाली नहीं हैं। परिवार हो चाहे पार्टी, कुनबे का विस्तार एक खुशी का मौका होता है, लेकिन शपथग्रहण समारोह के दौरान राजभवन में भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के चेहरों पर खुशी कम, तनाव ज्यादा दिखाई दे रहा था। यह तनाव भी मंत्रिमंडल विस्तार से पहले हुई कवायद के कारण उतना नहीं था, जितना विस्तार हो जाने के बाद पैदा होने वाली परिस्थितियों से निपटने की चिंता को लेकर है।
शिवराजसिंह राज्य में दस साल से मुख्यमंत्री हैं, और इससे पहले भी उन्होंने अपने मंत्रिमंडल का विस्तार किया है, लेकिन इस बार जैसी परिस्थितियां बनीं वैसी परिस्थितियां पहले कभी देखी नहीं गईं। शिवराज को साम,दाम,दंड,भेद हर तरह की राजनीति में माहिर माना जाता है, और इन चारों तरीकों से ऊपर उनके पास उनकी विनम्रता का ब्रह्मास्त्र भी है। यह उनके लिए कवच का काम भी करता रहा है। लेकिन इस बार ऐसा लगा कि शायद पार्टी आलाकमान ने उनके इस कवच को भी भेदा और उनसे कुछ कठोर बनने की अपेक्षा की।
चूंकि यह कठोरता शिवराज के स्वभाव में नहीं है या कम से कम सार्वजनिक रूप से तो वे खुद को कठोर कतई नहीं दिखाना चाहते, इसलिए विस्तार से पहले पार्टी की ओर से उम्रदराज मंत्रियों को हटाए जाने के दबाव को उन्होंने पार्टी की तरफ डायवर्ट कर दिया। शायद यही कारण था कि गृह मंत्री बाबूलाल गौर और लोक निर्माण विभाग के मंत्री सरताजसिंह को पार्टी के इस फैसले की सूचना देने खुद पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और प्रदेश के प्रभारी विनय सहस्त्रबुद्धे और प्रदेश भजपा अध्यक्ष नंदकुमारसिंह चौहान इन दोनों नेताओं के घर गए। तीसरी नेता कुसुम मेहदेले को मुख्यमंत्री ने बात करने के लिए अपने घर बुलाया,लेकिन वे पहुंची ही नहीं।
नौ मंत्रियों को केबिनेट में शामिल करने की कवायद के बाद पार्टी नौ दिन चले अढ़ाई कोस वाली स्थिति में है। ऐसा लगता है कि शायद शिवराजसिंह को इन स्थितियों का अहसास था और इसीलिए वे इस काम को इतने दिनों से टालते आ रहे थे। संभवत: वे जान रहे थे कि यदि एक बार यह पिटारा खुला तो पता नहीं इसमें से कौन-कौन से जीव जंतु निकलेंगे जो उन्हें और उनकी सरकार को डंसने के लिए फन उठाकर खड़े हो जाएंगे। यह बर्र का ऐसा छत्ता था जिसमें शिवराज हाथ डालने से भरसक बचने की कोशिश कर रहे थे।
इस बार अपने समर्थकों को मंत्री बनवाने का दबाव कितना था, इसका अंदाजा इंदौर के साथ हुए व्यवहार को लेकर लगाया जा सकता है। मध्यप्रदेश में राजधानी भोपाल के बाद सबसे बड़ा शहर इंदौर ही है। उसे राज्य की वाणिज्यिक राजधानी भी कहा जाता है। कई मायनों में इंदौर का महत्व भोपाल से भी अधिक है। कुछ समय पहले तक प्रदेश की राजनीति के दिग्गज नेता कैलाश विजयवर्गीय केबिनेट में इंदौर का प्रतिनिधित्व करते आए थे। लेकिन प्रदेश राजनीति के समीकरण कुछ ऐसे बने कि पार्टी उन्हें राष्ट्रीय महासचिव बनाकर दिल्ली ले गई। उसके बाद से इंदौर शिवराज मंत्रिमंडल में प्रतिनिधित्वविहीन था। जब इस बार विस्तार की सुगबुगाहट चली तो सभी को लग रहा था कि, और किसी शहर को मिले या न मिले, लेकिन इंदौर को नुमाइंदगी जरूर मिलेगी। अंतिम समय तक चली चर्चाओं और अफवाहों के दौर में इंदौर से एक नहीं चार-चार नाम हवा में तैर रहे थे। लेकिन वहां से कोई भी नहीं लिया गया।
इंदौर के साथ हुए इस व्यवहार के पीछे राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और खुद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के अपने-अपने समीकरणों को कारण बताया जा रहा है। लेकिन दूसरी दृष्टि से देखें तो यहां शिवराज ने इस मायने में अपना पलड़ा भारी रखा है कि उन्होंने किसी को नहीं लिया। यानी उनकी अपनी पसंद या सहमति नहीं चली तो उन्होंने किसी और की पसंद को भी मंजूर नहीं होने दिया। पर इंदौर शिवराज का पीछा आसानी से नहीं छोड़ेगा।
एक मामला कुछ राज्य मंत्रियों को पदोन्नत कर केबिनेट मंत्री बनाने का भी था। इनमें पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा के बेटे सुरेंद्र पटवा और पूर्व मुख्यमंत्री कैलाश जोशी के बेटे दीपक जोशी के साथ ही लालसिंह आर्य का नाम चल रहा था। लेकिन वह भी टल गया। ऐसा लगता है कि खुद पर परिवारवाद को बढ़ावा देने का आरोप न लगे, इसलिए मुख्यमंत्री ने फिलहाल उसे टाल दिया है। क्योंकि ताजा विस्तार में उन्होंने प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेता कैलाश सारंग के बेटे विश्वास सारंग और पूर्व मुख्यमंत्री गोविंदनारायण सिंह के बेटे हर्षसिंह को मंत्री बनाया है। अब यदि वे वरिष्ठ नेताओं के बेटों को पदोन्नत भी कर देते तो भाई भतीजावाद के आरोप से बच नहीं पाते। पूर्व मुख्यमंत्री वीरेंद्र कुमार सखलेचा के बेटे ओमप्रकाश सखलेचा का नाम भी शायद इसीलिए कटा।
सवाल यह है कि इस विस्तार के बाद आगे क्या? ऐसा लगता है कि शिवराज को आने वाले दिनों में प्रदेश के प्रबंधन के बजाय राजनीतिक प्रबंधन में ज्यादा वक्त देना पड़ेगा। क्योंकि बाबूलाल गौर और सरताजसिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी के दबाव में इस्तीफा भले ही दे दिया हो, लेकिन ये चुप बैठने वाले नेताओं में से नहीं हैं। खासतौर से बाबूलाल गौर तो मंत्रिमंडल की बैठकों में भी अपना विरोध जाहिर करते रहे हैं। अब जब वे खाली होंगे तो मुंह पर पट्टी बांध लेंगे यह संभव नहीं लगता। हां यह हो सकता है कि पार्टी उनका मुंह बंद करवाने की खातिर उनके लिए कोई नई पेशकश कर दे। यदि ऐसा नहीं होता तो यह मानकर चला जाना चाहिए कि विपक्ष के रूप में शिवराज को परेशान करने या उलझन में डालने का जो काम कांग्रेस नहीं कर सकी, वह काम पाटी के भीतर पैदा होने वाला यह ‘परिस्थितिजन्य विपक्ष’ कर डालेगा। यानी ‘विस्तार’के बाद अब ‘निस्तार’ की चिंता करने का समय है।