पर्वतसिंह जब रेलवे स्टेशन पर लौटा तो गीता वहां नहीं थी जहां उसे वह छोड़कर गया था। वह थोड़ी देर इंतजार करता रहा। शायद टॉयलेट गई होगी…। कालापीपल रेलवे स्टेशन भोपाल और उज्जैन के बीच मेन रेल लाइन पर है, लेकिन यहां से कोई बहुत ज्यादा गाडि़या नहीं गुजरतीं। लिहाजा रेलवे स्टेशन पर लोगों की भीड़ भाड़ भी कम ही रहती है। अलबत्ता जैसा इस तरह के किसी भी कस्बे के साथ होता है, यदि वह रेलवे मार्ग पर हुआ तो कस्बे के लोग यूं ही टहलते हुए स्टेशन का भी चक्कर मार लेते हैं। यहां भी लोग यूं ही आ जाया करते हैं। स्टेशन ऐसे ही लोगों की आवाजाही से आबाद रहता है।
गीता जब काफी देर तक नहीं लौटी तो पर्वतसिंह के मन में कुछ खुटका हुआ। उसने टॉयलेट से लेकर आसपास के इलाके को छान मारा पर गीता कहीं नहीं मिली। उसने यहां वहां लोगों से पूछताछ भी की लेकिन कोई भी गीता के बारे में कुछ न बता पाया। थक हार कर पर्वत ने यह सोचते हुए मन को तसल्ली दी कि हो न हो गीता भोपाल जाने वाले गाड़ी में बैठ गई होगी। यही अनुमान लेकर पर्वत भी भोपाल के लिए रवाना हो गया।
गीता और पर्वतसिंह को भोपाल ही जाना था। बेहरवाल गांव के ये पति पत्नी इलाज कराने भोपाल जाने के लिए घर से निकले थे। 50 साल की गीता को कैंसर बताया गया था और शनिवार को उन्हें उसके चैकअप के लिए भोपाल के जवाहरलाल नेहरू कैंसर अस्पताल आना था। उन्हें कालापीपल रेलवे स्टेशन से भोपाल जाने वाली गाड़ी पकड़नी थी। गाड़ी आने में थोड़ी देर थी, इसी बीच अपना मोबाइल गिरवी रखकर कुछ पैसे उधार लेने की जुगाड़ करने, पर्वतसिंह पत्नी गीता को रेलवे स्टेशन पर बिठा कर गया था। लेकिन लौटा तो गीता वहां नहीं थी।
भोपाल आने के बाद पर्वत सबसे पहले कैंसर अस्पताल पहुंचा लेकिन पता चला कि गीता वहां नहीं पहुंची। यह सोचते हुए कि शायद वह किसी और अस्पताल चली गई हो, पर्वत ने उसे सरकारी हमीदिया अस्पताल से लेकर आसपास के इलाके में भी ढूंढा लेकिन वह नहीं मिली। शनिवार और रविवार दो दिन तक वह गीता को खोजता रहा और थक हारकर गांव लौट आया।
सोमवार को कालापीपल में डॉयल-100 को एक कॉल आया और किसी ने बताया कि सड़क किनारे एक अधेड़ उम्र की महिला गंभीर अवस्था में पड़ी है। कालापीपल पुलिस ने मौके पर एक टीम को रवाना किया और पुलिस ने महिला को उठाकर कालापीपल के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचा दिया। उन्होंने महिला से कहा यहां तुम्हारा इलाज हो जाएगा। इतना कहकर पुलिस टीम वहां से चली गई।
महिला किसी तरह स्वास्थ्य केंद्र के भीतर पहुंची और वहां हॉल में जाकर लेट गई। वहां मौजूद डॉक्टरों ने उसकी बिगड़ी हुई हालत देखी तो उसे भोपाल के हमीदिया अस्पताल रेफर कर दिया। अब समस्या यह खड़ी हुई कि उसे हमीदिया लेकर कौन जाए? 108 एंबुलेंस वालों से कहा गया तो उन्होंने जवाब दिया कि जब तक महिला के साथ कोई अटेंडेंट नहीं होगा वे उसे नहीं ले जाएंगे।
स्वास्थ्य केंद्र वालों ने पुलिस को फोन लगाया और मांग की कि वे कोई कांस्टेबल मुहैया कराएं जो महिला को लेकर भोपाल चला जाए। लेकिन पुलिस की ओर से कहा गया कि यह उसका नहीं बल्कि स्वास्थ्य केंद्र के डॉक्टरों का काम है। वे ही इसका इंतजाम करें। दोनों ओर से फोन संदेशों का इसी तरह आदान प्रदान होता रहा और बदस्तूर चखचख भी होती रही…
मंगलवार को शुजालपुर पुलिस के पास सूचना पहुंची कि पास के जंगल में एक महिला की लाश पड़ी है। महिला के शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं है। पुलिस ने खोजबीन करवाई और पिछले कुछ दिनों के बीच लापता हुए लोगों के परिजनों से पूछताछ की। पूछताछ के दौरान ही पर्वतसिंह ने स्वीकार किया कि वह लाश उसकी पत्नी गीता की ही है।
मामला मीडिया तक पहुंचा तो पूछताछ हुई। अखबार वालों ने पुलिस और अस्पताल दोनों से सवाल किए। कालापीपल थाने के इंचार्ज उपेंद्र रिछारिया ने जवाब दिया- ‘’हमें फोन पर सूचना मिली थी और डॉयल-100 की टीम ने महिला को सड़क किनारे से उठाकर अस्पताल पहुंचा दिया था। बाद में अस्पताल प्रशासन ने हमसे एक कांस्टेबल की मांग की, वो हम कहां से देते? अस्पताल के लोगों को खुद अपना एक आदमी उसके साथ भेज देना चाहिए था।‘’
जब अस्पताल के लोगों से सवाल किए गए तो सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र कालापीपल के इंचार्ज जे.पी. दुबे का जवाब था- ‘’हमारे पास तो एक ही वार्डब्वाय है, हम उसे भी कैसे भेज देते? यह सही है कि वह महिला सोमवार साढ़े ग्यारह बजे तक अस्पताल में देखी गई। उसके बाद वह शुजालपुर बायपास तक कैसे पहुंची यह हमें नहीं पता। यह तो जांच से पता चल सकेगा।‘’
बुधवार को राजधानी के एक अखबार में खबर बनी- ‘’पुलिस और अस्पताल वाले अधिकार क्षेत्र को लेकर लड़ते रहे और कैंसर पीडि़त एक महिला की जंगल में संदेहास्पद स्थितियों में मौत हो गई।‘’
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जो लोग नहीं जानते उनके लिए यह बताना जरूरी है कि यह जो कालापीपल नाम की जगह है वह मध्यप्रदेश में ही है। और प्रदेश की राजधानी भोपाल से उसकी दूरी मात्र 75 किमी है। जो महिला मरी वह शपथ वाली नहीं बल्कि चलती फिरती, हाड़मांस से बनी ‘गीता’ थी। लेकिन उसका दुर्भाग्य यह रहा कि वह न तो किसी पाठ्यक्रम का हिस्सा थी और न ही शायद इस समाज का हिस्सा…
Hum kahan pahuch gaye…
सो तो है श्रीधर