मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के तेवर इन दिनों बहुत बदले हुए हैं। जो लोग शिवराज के स्वभाव को और राजनीति करने की उनकी शैली को जानते हैं, उनके लिए मुख्यमंत्री के व्यक्तित्व में आया यह बदलाव हैरान करने वाला है। बड़बोलेपन और मिरची भरे तेवरों वाली इस राजनीतिक फिजा में शिवराज की पहचान ही विनम्र राजनेता की है। लेकिन अब यह विनम्र राजनेता भी गरम हो रहा है।
शिवराज के बदले तेवर का पहला नमूना हाल ही में सबसे पहले भिंड जिले के अटेर विधानसभा उपचुनाव में देखने को मिला था जब उन्होंने सिंधिया घराने को आड़े हाथों लेते हुए बयान दे डाला कि इस घराने ने अंग्रेजों के साथ मिलकर क्षेत्र की जनता पर बहुत जुल्म ढाए।
यहां याद रखना जरूरी है कि जिस सिंधिया घराने को शिवराज कोस रहे थे यह वही घराना है जिसकी राजमाता विजयाराजे सिंधिया कभी भाजपा में ‘पूज्य’ हुआ करती थीं और जिनकी एक पुत्री वसुंधरा राजे इस समय राजस्थान की मुख्यमंत्री हैं, तो दूसरी यशोधरा राजे खुद शिवराज कैबिनेट में मंत्री।
दूसरा मौका 21 व 22 अप्रैल को धार जिले के मोहनखेड़ा में हुई भाजपा प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में आया जब मंत्रियों की गैरमौजूदगी पर बुरी तरह खफा होते हुए शिवराज ने प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान से कहा कि जिन लोगों के पास पार्टी के लिए समय नहीं हैं उन्हें बाहर का रास्ता दिखाइए। नए लोगों को मौका दीजिए।
अपने ही मंत्रियों को फटकार लगाते हुए शिवराज बोले कि लू लगने के बाद भी मैं दो दिन से यहां बैठा हूं। राष्ट्रीय कार्यसमिति में प्रधानमंत्री पूरे दो दिन रहते हैं। यदि सरकार के मंत्री और अन्य सदस्य बैठक में नहीं आ सकते तो इस्तीफा दे दें। मंत्री हमेशा इसी सोच में रहते हैं कि उन्हें टिकट नहीं मिलेगा तो उनका क्या होगा? इसी कारण जो भी कार्यकर्ता तेजी से उभरता हुआ दिखता है उसे निपटाने में लग जाते हैं।
शिवराज के ऐसे ही तेवर मंगलवार को केबिनेट की बैठक में भी दिखे। उन्होंने वहां भी अपने मंत्रियों को निशाने पर लेते हुए कहा कि बिना बताए कार्यसमिति, कैबिनेट या दूसरी महत्वपूर्ण बैठकों से गायब रहना मंत्रियों के लिए अब ठीक नहीं होगा। यदि कोई जरूरी काम भी है तो बता कर जाएं।
इन सारी बातों को पढ़कर आप सोच रहे होंगे कि ये तो सब ठीक है, लेकिन इन बातों का दिल्ली महानगर पालिका चुनाव परिणामों से क्या लेना देना है। तो जान लीजिए कि पार्टी के लोगों को टाइट करने की यह धारा ऊपर से ही चली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पार्टी में नई कार्यसंस्कृति विकसित करने और राजनीति की नई शैली अपनाने के जो प्रयोग हाल ही में किए हैं उनके परिणामों ने जता दिया है कि पार्टी के लिए कोई व्यक्ति अपरिहार्य नहीं है।
भाजपा ने किसी को भी अपरिहार्य न मानने का यह प्रयोग उत्तरप्रदेश के चुनाव में मुस्लिमों को एक भी टिकट न देकर किया था और हाल ही में इसका विस्तार दिल्ली महानगर पालिका में मौजूदा हर पार्षद का टिकट काटकर किया। यूपी और दिल्ली के अभूतपूर्व परिणामों ने पार्टी की इस रणनीति को जो सफलता दिलाई है उससे तय है कि पार्टी अब किसी की दादागीरी नहीं चलने देगी।
दिल्ली की सफलता ने न सिर्फ इस ‘पॉलिटिकल सर्जरी’ की सार्थकता साबित कर दी है, बल्कि पार्टी को इस दिशा में और मजबूती से आगे बढ़ने की ताकत भी दे दी है। यानी अब टिकट की नई कसौटियां तय होंगी। परफार्मेंस का पैमाना ही तय करेगा कि आपको टिकट मिलेगा या नहीं। आप परंपरागत रूप से किसी सीट से जीत भी रहे हों तो भी कोई जरूरी नहीं कि पार्टी आपको टिकट दे ही दे। टिकट देने के आधार अब अलग ही होंगे।
इसलिए उन सभी राज्यों में, जहां आने वाले एक दो साल में चुनाव होने जा रहे हैं, स्थानीय नेताओं, विधायकों और सांसदों को सावधान हो जाना चाहिए। पार्टी आलाकमान अब सीना ठोक कर कह सकता है कि जो लोग अपने दम पर चुनाव जीतने का दावा या दबाव बनाते हुए पार्टी को ब्लैकमेल करने की कोशिश करते हैं उनके लिए बाहर जाने के दरवाजे खुले हुए हैं।
और जो लोग अपने मध्यप्रदेश में, आमतौर पर शांत रहने वाले, मुख्यमंत्री शिवराजसिंह के हालिया तीखे तेवरों पर सवाल उठा रहे हैं या हैरानी जता रहे हैं, उनके तमाम सवालों का जवाब भी पार्टी के संगठन में पैदा इसी आत्मविश्वास में छिपा है। यदि शिवराज भी पार्टी की प्रदेश कार्यकारिेणी में और बाद में मंत्रिमंडल की बैठक में साफ-साफ कहते हैं कि जिसके पास पार्टी के लिए समय नहीं है वह शौक से बाहर जा सकता है, तो इसका मतलब यही है कि अपनी चिंता अब आपको खुद करनी है। पार्टी आपको ढोने वाली नहीं है।
ऊंची आवाज में बात करने से भी परहेज करने वाले शिवराज के ये तेवर यूं ही नहीं बदल गए हैं। दरअसल यह ऊपर से चल रही हवा का ही असर है, जिसे शिवराजसिंह ने भी बखूबी भांप लिया है। इस भाषा और इसके निहितार्थों को जो नहीं समझ रहे, वे मान कर चलें कि वे ‘डेंजर जोन’ में है…