संस्‍कृति पुरुष राम…

विजयबहादुर सिंह 

पांच, सात या दस हजार 10000 साल पुराने भारत देश के संस्कृति पुरुषों के नाम हम लेना चाहें तो राम का नाम सबसे पहले आता है। भारत के आदि-कवि ऋषि वाल्मीकि द्वारा रचित आदि-काव्य रामायण के नायक वही हैं। पर वह हमारा आदि काव्‍य इसलिए भी है कि उसका नायक हमारी ही तरह का है, एकदम मनुष्यवत। उसके सुख-दुख, उसके जीवन में आने वाली बाधाएं, चुनौतियां और उनसे जुड़ी कठिनाइयां- इसके बाद भी अपनी सूझबूझ और पौरुष के बल पर उनके सटीक उत्तर और उन पर अपनी विजय की पताका फहराने वाला- हमारा लोकोत्तर नायक, हमारा मर्यादा पुरुषोत्तम निरंतर अपनी उदार मनुष्यता को और भी अधिक उदात्त बनाता हुआ समस्त भारतीय लोक में पुरुषोत्तम कहा जाने लगा। राम की यही पुरुषोत्तमता हम धरतीवासियों को यह अनुभव करने की प्रेरणा देती है कि ईश्वर अगर होगा तो ऐसा ही कुछ होगा।

राम के बाद भटके हुए भारत को रास्ते पर फिर लाने के लिए श्रीकृष्ण जैसे महानायक आए और महाभारत के देवोपम पुरुषोत्तम बने। समस्त विद्या-जगत में यह सर्वमान्य है कि कृष्ण का व्यक्तित्व महाभारत काव्‍य जितना ही जटिल, रोमांचक, चमत्कार पूर्ण और राम की तुलना में अधिक सप्राण और हमारे अपने जिए जाते जीवन के अधिक करीब है।

सब जानते हैं दुनिया का सबसे पुराना और भारत का सबसे पहला संस्कृति ग्रंथ ऋग्वेद है जिसमें सैकड़ों मंत्र द्रष्टा ऋषियों द्वारा अनुभव किया गया ब्रह्मांड साक्षात्कार है। रामायण- महाभारत कब, कितने दिन बाद रचे गए और क्यों कर लोकोत्तर मनुष्यों को इनके महानायक के रूप में प्रतिष्ठित किया गया, जबकि हमारे पास वेद थे। हमारा काम उसी सांस्कृतिक वैदिक वैचारिकी से क्यों नहीं चल पाया। इसका सीधा सा उत्तर है कि वेद और यज्ञ आदि धार्मिक क्रियाओं को ब्राह्मणों ने निजी संपत्ति और विशेषाधिकार का क्षेत्र बना लिया था। तब आम भारतीय को उसकी अपनी मनुष्यता और भारतीयता से जोड़ने के लिए ऐसे कथात्मक काव्य की जरूरत आ पड़ी।

सामान्य मानव बुद्धि, जिसे चौबीसों घंटे कुआं खोदकर पानी पीना पड़ता है, उसके लिए गहन चिंतन-मनन और अध्यवसाय में वक्त जाया करने की फुर्सत ही कहां थी? जीवन के रहस्यों को समझने और महत्ता का अनुभव करने के लिए तब रामायण-महाभारत ही सबसे उपयोगी लगे। इनमें सामान्य मनुष्य जैसी जीवन की समस्याएं हैं तो असाधारण मनुष्यता के बल पर उनका समाधान खोजने और पाने का सद्प्रयास भी। यहां हम अपने संस्कृति-नायकों द्वारा किए जाते कर्मों को साक्षात देख पाते हैं। हमारे ऊपर है कि हम उनका अनुसरण करें या ना करें। या फिर हमारे भीतर दबी- छिपी बैठी, इंतजार करती पशुता के वशीभूत हो, वह जैसा कहे, करने पर आमादा हो उठें। चुनाव की स्वतंत्रता तो हमारी अपनी मौलिक स्‍वतंत्रता का अधिकार है।

इस पशुता को समझना चाहें तो दुर्योधन के मामा शकुनि के माध्यम से समझ सकते हैं। दुर्योधन को हद दर्जे की पशुता की ओर ले जाने वाला शकुनी ही तो है। पर कथा यहीं खत्म नहीं होती। उसके भयावह परिणाम भी आगे बताए गए हैं। राम और कृष्ण मनुष्य को इसी दबी-छुपी पशुता से हमें आगाह करते हैं और बताते हैं कि उदात्त मनुष्यता ही महान मनुष्यता है। यही मनुष्यता ईश्वरता भी है।

मनुष्य की इस उदारता को हमारे संस्कृति-ग्रंथों में कई कई रूप में रूप से समझाया गया है। सार संक्षेप में कहें तो यह मेरा और वह पराया है, इसका भाव उत्पन्न होना ही हमारी आदमीयता को संकरा बनाता है। और उदार मनुष्य का लक्षण तो यह है कि सारी वसुधा ही उसके लिए घर परिवार जैसी हो। वन-पर्वत-नदी-नाले-चींटी-हाथी, हिंदू-मुसलमान, ब्राह्मण और दलित सब एक ही सृष्टि विधाता की औलादें हैं। इस भेदभाव, इस अलगाव बोध को जो पराजित कर पाता है वही तो उदार है। सारी वसुधा ऐसे के लिए कुटुंब जैसी बन जाती है।

हमारे राम अगर ऐसे ना होते तो सीता हरण के बाद उनकी खोज में व्याकुल हो निकल पड़े राम और लक्ष्मण पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों से सीता के बारे में क्यों पूछते? उनकी चेतना सचमुच इतनी व्यापक और उदार थी कि वे ऐसों को भी अपने सुख-दुख में शामिल कर सकने में समर्थ थे। वसुधैव कुटुंबकम वाला कथन उसी के योग्य है जो राम की तरह व्यापक और उदार चेतना वाला हो। अन्यथा तो वह ऐसों के लिए- जो दूसरों से घृणा करते हैं या फिर सत्ता राजनीति की तुच्छ सफलता के लिए ऐसे सांस्कृतिक कथनों को झूठ-मूठ दोहराते रहते हैं- मुंह में राम बगल में छुरी के अलावा और क्या है?

भारत की संस्कृति मंदिर या मस्जिद, या फिर गिरजाघरों से पहचानी गई कभी? या फिर उन महान व्यक्तियों के महान आचरणों से जिनकी याद में हम मंदिर या चैत्य विहार आदि बनाते हैं और सुबह शाम धूप-नैवेद्य आदि चढ़ाकर दिन भर के लिए कुछ भी करने को स्वतंत्र हो लेते हैं। हमारे अपने महानों का धर्म भाव उनके आचरण में है ना कि उनकी प्रतिमाओं में। इसीलिए तो कहा गया है कि धर्म मंदिर की मूर्तियों में नहीं, महापुरुषों के चरणों में है। धर्म खोजना है तो उन्हीं के चरणों में खोजो। मंदिर बना भी लिया और आचरण नहीं बदले तो लोक-समाज तुम्हारे कर्मों से त्रास का ही अनुभव करेगा। वही त्रास जिसका दमन करने को ही गीता के कृष्ण धर्म की स्थापना करते हैं।

गीता में जो ‘परित्राण’ शब्द आया है वह इसी त्रास से मुक्ति दिलाने के लिए आया है। राम और कृष्ण अगर मनुष्य योनि में जन्म लेकर भी ईश्वर मान लिए गए तो इसीलिए कि अपने कर्मों के बल पर उन्होंने लोकमंगल किया जिससे समस्त लोक जीवन भयमुक्त और त्रास मुक्त होकर जीने की स्थिति पा सका। हजारों सालों से अगर ये राम-कृष्ण हमारी स्मृतियों से जुड़े हुए हैं तो इसीलिए कि वे सत्य और धर्म का जीवन जीना हमें सिखाते हैं। और सत्य किसी एक अकेले का नहीं होता, जैसे कि विज्ञान एक अकेले का नहीं होता। उसी तरह धर्म भी कहां एक अकेले का होता है? सबका सच होकर ही वह सच बनता है। सबके आचरणों में उतरने की योग्यता पाकर ही वह धर्म बनता है। कहा तो यह भी गया है कि सत्य ही ईश्वर है और धर्म उस तक पहुंचाने का मार्ग। गांधी कहते ही रहते थे, सत्य ही ईश्वर है। गांधी से पहले इसे बुद्ध, महावीर और कबीर, नानक आदि ने भी कहा। कबीर का बड़ा प्रसिद्ध दोहा है-
हरि से तू मत हेत कर, कर हरिजन से हेत
माल मलूक हरिदेत हैं, हरिजन हरि ही देत

देवत्व धन संपदा में नहीं रहता। धनसंपदा तो पौरुष बल से यों भी कमाई जा सकती है किंतु मनुष्यता की साधना का पथ यह नहीं है। उसके लिए तो हरि के भक्तों के पास ही जाना होगा क्योंकि उनके आचरणों में ही ईश्वर की झलक मिलेगी सूफी संतों के जीवन की अनेक कहानियों को पढ़ते वक्त मैं इस अनुभव तक पहुंच पाया कि धर्म की साधना, अरबपति और शंखपति बनने के पुरुषार्थ से, हजार हजार गुना कठिन है। हमारे संस्कृति-पुरुष राम, मनुष्य योनि में जन्म लेकर अगर इसे जीवन भर साधते रहे तो उनमें यह आत्म बल कहां से आया? किन उपायों से आया? किस चेतना से आया? संत कवि तुलसीदास ने कवितावली में राम के अयोध्या त्याग के वक्त का वर्णन करते हुए लिखा है-
राजीव लोचन राम चले तजि बापको राज बटाऊ की नाईं

इस पंक्ति को पढ़कर अपने बारे में सोचने लगा कि क्या मैं खुद अपनी पैतृक जायदाद इस तरह  -जैसे कि वह मेरे लिए एक धर्मशाला है जिसे मुझे छोड़ना ही है- छोड़ सकता हूं, तो मेरी संपूर्ण स्वार्थ लिप्त चेतना के पांव तो पांव, समूचा अस्तित्व ही थरथरा उठा। और एक राम हैं जो अयोध्या की अपनी आधिकारिक सत्ता को धर्मशाला में ठहरे हुए पथिक की तरह सहजता से त्याग कर चल देते हैं। इतना ही क्यों उन्होंने तो समस्त राज्य से वैभव त्याग दिया। शुद्ध अनजान अपरिचित आदमी होकर अजाने पथ पर निकल गए। लक्ष्मण और सीता के साथ के अलावा अन्य कुछ भी तो उनके साथ नहीं था। सब जानते हैं राम का रामत्‍व तो इसी वन-मार्ग पर वनवासी जीवन के तपोवन में ही सध पाया।

उनका प्रति नायक रावण तो आज के रावण की ही तरह सोने वाली लंकाओं में ही रहता था। सजा-संवरा, धन-वैभव के उन्माद से उन्‍मादित। सेना भी खूब सुसज्जित, अत्याधुनिक, फिर भी विजय तो राम की ही हुई। लेकिन कैसे? मात्र भालू, वानरों के बल पर नहीं। विभीषण की आशंकाओं का समाधान करते हुए राम ने समझाया कि युद्ध केवल सुसज्जित सेनाओं के बल पर नहीं जीते जाते। वे शौर्य और धैर्य से, संयम और दृढ़ता से, सत्य और शील जैसे गुणों के बल पर जीते जाते हैं। गांधी ने हमारे जमाने में यह करके भी दिखा दिया। इसीलिए भरोसा तो राम के इन कथनों पर ही करना पड़ेगा।

भारत जैसे देश में भला और कौन हुआ जिसने अपनी प्रजा के संतोष और सुख के लिए अपनी गर्भवती पत्नी को वनवास दे दिया। मान लें कि यह तो कथा मात्र है, तब यह सोचें कि वाल्मीकि ने ऐसी कल्पना-कथा कहने के लिए क्यों की? क्या हमारे कवि लोकहित की साधना के लिए ऐसी कल्पनाओं तक भी जाते रहे हैं? अगर जाते रहे हैं तो कहना होगा कि भारत की संस्कृति समूची दुनिया में अनुपम, असाधारण और अद्वितीय है। राम के चले जाने के बाद क्या फिर ऐसा कोई इस देश की धरती पर कभी उतरा? कभी उतरेगा? और राम की आराधना में उतरने का दिखावा करता हुआ राम के किसी एक गुण को भी अपने आचरण में उतार कर इस ऐतिहासिक अंधकार में हमारे डगमगाते विश्वासों को शरण दे सकेगा? या फिर हम एक राजनीतिक माया जाल से निकलकर दूसरे मायाजाल में जीने के लिए अभिशप्त बने रहेंगे?

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