8 जनवरी को मैंने आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों को दस प्रतिशत आरक्षण देने वाले संविधान संशोधन विधेयक पर लोकसभा में चली बहस लगभग पूरी सुनी। इतनी देर टीवी के सामने बैठने की खास वजह यह थी कि हमारी पीढ़ी के लोगों को उन संविधान निर्माताओं को सुनने का मौका नहीं मिला जिन्होंने अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की थी।
इसलिए मैं जानना चाहता था कि आखिर देश की संसद और हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधि उन लोगों के बारे में क्या सोचते हैं जो आज यह सोच रहे हैं कि एससी/एसटी को दिए गए आरक्षण के कारण उनकी प्रतिभा और योग्यता का हनन हो रहा है, उनके अवसर छिन रहे हैं। देखना यह भी था कि हमारी संसद यदि यह ऐतिहासिक कदम उठाने जा रही है तो उसे उठाते समय हमारे नेताओं की भावभंगिमाएं क्या हैं?
यह तो जगजाहिर था कि लोकसभा में यह बिल खारिज होने का सवाल ही नहीं उठता। इक्का दुक्का सांसदों के राजनीतिक कारणों से किए गए विरोध या असहमति को छोड़ दें तो लगभग पूरी लोकसभा ने इस बिल का समर्थन किया और कहा कि यह देर से लाया गया एक दुरुस्त कदम है।
पर विरोधाभास देखिए कि इतने गंभीर विषय पर चर्चा के दौरान लोकसभा में सदस्यों की उपस्थिति बहुत ही कमजोर थी। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि संसद कोई ऐतिहासिक या सामाजिक बदलाव की दृष्टि से क्रांतिकारी साबित होने वाले किसी मुद्दे पर चर्चा कर रही है। चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों या कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, दोनों ही मतदान के कुछ समय पहले सदन में पहुंचे।
बिल पर हुई बहस में कुछ बातें नोट करने वाली रहीं। जैसे आरक्षित वर्ग के सांसदों ने आमतौर पर बिल का स्वागत और समर्थन तो किया लेकिन साथ ही वे इस बात पर जोर डालने से नहीं चूके कि सरकार भविष्य में जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक करे। उनका जोर इस बात पर था कि जिस जाति का जितना जनसंख्यात्मक आधार है उसे उसी अनुपात में आरक्षण का लाभ दिया जाए। इसके साथ ही निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग भी उठी।
सरकार ने हालांकि इन मांगों पर साफ साफ तौर पर कुछ नहीं कहा लेकिन संसद में जो बातें उठी हैं वे भविष्य में देश और समाज की एकजुटता के लिहाज से बहुत गंभीर हैं। जिस तरह हर जाति और हर वर्ग अपने लिए आरक्षण की मांग कर रहा है और जिस तरह उसका राजनीतिक लाभ लिया और दिया जा रहा है, वह देश की एकता और अखंडता के लिए बहुत बड़ा खतरा बनेगा।
या तो हम इस खतरे को देख नहीं पा रहे या फिर उसे देखते हुए भी नजरअंदाज कर रहे हैं कि हम एक भारतीय समाज बनने के बजाय, जातियों और समुदायों में बंटा कबीलाई समाज बनने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। चाहे सामाजिक तौर पर हो या आर्थिक तौर पर, वंचितों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने से किसी को कोई ऐतराज नहीं है। सरकारों का भी यह कर्तव्य है कि वे ऐसे लोगों का सहारा बनें उनके बारे में सोचें।
लेकिन प्रश्न यह है कि वंचितों की मदद के बारे में सोचते समय हमारा लक्ष्य क्या हो? उन्हें कमजोर और पिछड़ा मानते हुए उनकी मदद करना या उन्हें वोट बैंक मानते हुए उन्हें नया झुनझुना या लॉलीपॉप पकड़ाना। संसद में विपक्ष के जितने भी नेताओं ने बिल का समर्थन किया उनकी इस बात में दम था कि यह सारा खेल लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए रचा गया है। यह सवाल भी मौजूं था कि जब नौकरियां उपलब्ध ही नहीं हो रहीं तो आरक्षण का मतलब क्या है?
बिल पेश करते हुए सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गेहलोत ने कहा कि सरकार ने इस बिल के जरिये उन लोगों की सुध ली है जो किसी भी तरह के आरक्षण की परिधि में नहीं आते लेकिन उन्हें सहारे की जरूरत है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी अपनी बहुत सधी हुई तकरीर में इस बात पर जोर दिया कि सामाजिक न्याय और अवसरों की समानता ही इस बिल का उद्देश्य है।
पर बिल को लेकर विपक्षी दलों की आशंका और इसके पीछे की असली मंशा उस समय उजागर हो गई जब इस पर बोलते हुए सरकार के मंत्रियों ने संसद में ही लोगों से दुबारा वोट देने और एनडीए की सरकार बनाने की अपील कर डाली। इस अपील ने बता दिया कि बिल को लाने के पीछे लोकहित की मंशा कितनी है और राजहित की कितनी।
कई सदस्यों ने चर्चा के दौरान, आर्थिक रूप से गरीब लोगों को आरक्षण देने की व्यवस्था के भविष्य को लेकर एक अहम सवाल उठाया। पहले तो उनका कहना था कि ऐसे गरीबों की पहचान का मैकेनिज्म क्या होगा, फिर उसके बाद उनका सवाल आया कि यदि इस आरक्षण का लाभ लेकर कोई व्यक्ति संपन्न हो जाता है तो क्या उसके बाद भी उसके परिजनों को इसका लाभ मिलता रहेगा?
दरअसल आरक्षण का लाभ लेकर सक्षम बन जाने के बाद संबंधित को इस सुविधा के दायरे से बाहर करने का विवाद बहुत पुराना है। अनारक्षित वर्ग के कमजोर तबके को भविष्य में मिलने वाले आरक्षण के लाभ को लेकर तो यह सवाल अभी से उठा दिया गया, लेकिन चाहे एससी/एसटी वर्ग हो या अन्य आरक्षित वर्ग, उनके बारे में भी क्या इस दृष्टिकोण से नहीं सोचा जाना चाहिए?
क्या अब समय नहीं आ गया है जब इस बात का भी आकलन हो कि एससी/एसटी को दिए गए आरक्षण का लाभ लेने वाले जो लोग संपन्न हो गए हैं, उन्हें इस दायरे से बाहर किया जाए। ओबीसी आरक्षण में तो क्रीमी लेयर का प्रावधान है लेकिन एससी/एसटी आरक्षण के तहत सक्षम और संपन्न हो जाने वालों को भी क्या पीढ़ी दर पीढ़ी इसका लाभ मिलते रहना चाहिए? आरक्षण देने के साथ साथ उसके दायरे से लोगों को बाहर करने के किसी मैकेनिज्म पर क्या बात नहीं होनी चाहिए?