विजयमनोहर तिवारी
मैं अब तक जितने मुसलमानों से मिला हूं उनमें बिलाशक पद्मविभूषण मौलाना अब्दुल करीम पारेख का नाम गरिमामय स्मृतियों में रहेगा। यही कोई बीस साल पहले उनसे किसी संयोग से इंदौर के प्रोफेसर फारूकी के जरिए मुलाकात हुई थी। हम कई बार मिले। उन्होंने मुझे खास अरबी से हिंदी में कुरान सुझाई, जिसमें हर सूरे की अलग भूमिका है। वह पढ़कर फिर कई सवालों के साथ मिला। नईदुनिया में एक इंटरव्यू किया था, जिसके बाद अभ्यास मंडल ने अपनी अगली व्याख्यानमाला में उन्हें आमंत्रित किया। इंदौर प्रेस क्लब ने मीडिया से उनकी मुलाकात कराई थी।
वे अकेले ऐसे दीनी मुसलमान थे, जिनमें इस्लाम की सर्वश्रेष्ठता का कोई ऐसा दंभ मुझे नहीं दिखा, जिसके आगे दूसरे धर्म दोयम दरजे के हों और जिसे दूसरों पर जबरन लादा भी जाए। मैंने पहली ही मुलाकात में उनसे कहा था कि मौलाना साहब मैं तो आशा पारेख को जानता हूं, ये अब्दुल करीम के नाम के साथ पारेख कहां से आ गया? बुजुर्ग मौलाना मेरी शरारत समझ गए और मुस्कुराकर बोले, “मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि मैं एक हिंदुपुत्र हूं। हमारे पुरखे श्वेतांबर जैन थे। उन्होंने इस्लाम अपना लिया। पारेख आज भी लिखते हैं और यह बात मैं दम से शंकराचार्य के समक्ष मंच से कह चुका हूं। हिंदुस्तान की यह खूबी है।‘’
उन्होंने भारत में व्याप्त बेहूदगियों पर खुलकर बात की थी। इस्लाम के हरे झंडे को लेकर इतराने वालों के लिए उन्होंने इंटरव्यू में कहा था कि हरे झंडे का इस्लाम से कोई लेना-देना ही नहीं है। खुद पैगंबर के झंडे का रंग सफेद था। हरा रंग तुर्क लेकर आए और यहां के मुसलमानों ने उसे ही टाँग लिया। पांच वक्त की प्रार्थना को भारत और पाकिस्तान में जिसे नमाज कहते हैं, वह दरअसल कोई शब्द ही नहीं है अरबी में। कुरान में उसके लिए सही शब्द है-‘सलात।’ अब नमाज कहां से आ गया? मौलाना ने फरमाया- “नमाज संस्कृत के नमन से बना है, जिसमें हाथ और पैर की दस-दस उंगलियाँ ईश्वर की प्रार्थना में भूमि को स्पर्श करती हैं। नमाज के मूल में नमन है।’’
मैंने उनसे पूछा कि दाऊद इब्राहिम, अबू सलेम और तमाम मुसलमान आतंकी-अपराधियों को देश विरोधी खबरों में पढ़कर आप एक हिंदुस्तानी होकर क्या महसूस करते हैं? वे दुखी मन से बोले थे कि जो आतंकी है, वह मुसलमान हो ही नहीं सकता। मुसलमान हो भी तो खारिज होगा। कट्टर और दकियानूसी मुसलमानों की मुश्किल यह है कि इस्लाम उनकी दाढ़ी में फँसकर रह गया है। वे कुरान का हवाला देंगे और कुरान पढ़ते तक नहीं हैं। मौलाना पाकिस्तान के पक्ष में नहीं थे। उनका मानना था कि बंटवारा किसी समस्या का हल नहीं था। अगर होता तो बंगाली मुस्लिम क्यों अलग होते? वे मदरसा वालों को कहते थे कि जो पढ़ा रहे हो, वह आसपास के लोगों को बुलाकर बताया करो। कोई शुबहा न हो कि मदरसों में क्या चल रहा है?
अयोध्या की रौनक अगर सुर्खी में है तो हमारे आसपास इस रौनक से बुझे हुए चेहरे भी कई होंगे। मैं सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय नहीं रहता लेकिन बहुत सारे समूहों और प्रोफाइलों में अक्सर देखता हूं। कुछ लोग हैं, जो कुछ खास मौकों पर अयोध्या या मंदिर के विषयों पर तेजाबी राय रखते हैं। आरिफ मोहम्मद खान के बारे में कुछ होगा तो गाली-गलौज पर भी उतर आएँगे। अमित शाह कोरोना पॉजिटिव आए तो ईदी मिलने जैसा अहसास! ये अनपढ़ नहीं हैं। वे पढ़े-लिखे और स्मार्ट फोन पर सोशल मीडिया के सारे आयामों में सक्रिय हैं। उनकी चौकन्नी निगाहें देश की हर हरकत पर हैं। 2014 के बाद यह तबका हताशा में है। 2019 के बाद मायूसी और गहराई है।
अयोध्या के पांच अगस्त के प्रसंग पर इतना ही कहूँगा कि अयोध्या केवल उन सौभाग्यशाली हिंदुओं की ही नहीं है, जो दस सदियों की दासता के क्रूर दमन में अपनी हिंदू पहचान बचाकर निकल आने में सफल हुए। अयोध्या उन हिंदुओं की भी उतनी ही है, जिनकी पहचानें गुलामी की भगदड़ में गुम हो गईं। जिन्होंने किसी सदी में खुद को नए नाम और नई शक्ल में देखा। वह सच नहीं है। वह पहचान भी गुलामी का प्रमाण है। चलते-फिरते ढाँचे जिन्हें हमें स्वयं ही ढहाना है और लौटना है अपनी अयोध्या में। अयोध्या यही याद दिला रही है…