मध्यप्रदेश के चुनाव को लेकर हमने अब तक ज्यादातर चुनावी गणित की ही बात की है। लेकिन चुनाव सिर्फ गणित ही नहीं होता। जो लोग गणित को आधार बनाकर चुनाव के परिणाम या उसका फलित बांचने की कोशिश करते हैं, वे वैसे ही भ्रमजाल में उलझ जाते हैं जैसे इस बार के तमाम एक्जिट पोल उलझे हुए हैं।
दरअसल गणित की अपनी सीमाएं हैं। वह यह तो बता सकता है कि दो और दो चार होंगे, लेकिन वह यह नहीं बता सकता कि ये अलग-अलग ‘दो’ जिनसे मिलकर ‘चार’ बनना है, वे आएंगे कहां से। गणित के हिसाब से तो बीस आदमी एक मकान को यदि 60 दिन में बनाते हैं तो 20 हजार आदमी उसे एक सेकंड से भी कम समय में बना देंगे। लेकिन सभी जानते हैं कि व्यावहारिक रूप से ऐसा होना संभव नहीं है।
चुनाव न तो गणित का फार्मूला है और न ही उसका कोई सवाल। यह मूलत: ऐसा रसायन है जो कई सारे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, जातीय आदि समीकरणों से मिलकर तैयार होता है। इसलिए चुनाव को समझना और उसकी कठिन पहेली को बूझना मेरे लिए हमेशा से दुष्कर रहा है। हम केवल कयास ही लगा सकते हैं, जो इन दिनों सभी लगा रहे हैं।
कौनसी पार्टी किस कारण से जीती और कौनसी किस कारण से हारी, इसके आकलन का आधार भी हार-जीत हो जाने के बाद ही तैयार हो पाता है। उससे पहले तो सिर्फ और सिर्फ अटकलबाजियां ही होती हैं। परिणाम पूर्व लगाए जाने वाले तमाम अनुमानों में व्यक्तिगत रुचियां और रुझान भी बहुत मायने रखते हैं। और इन दिनों तो वे निष्कर्षों को बहुत ज्यादा प्रभावित या दूषित करने लगे हैं।
कुछ करना ही हो तो हम ज्यादा से ज्यादा यह कर सकते हैं कि इतिहास को खंगाल कर, उसमें से वर्तमान के लिए कुछ संकेत, कुछ सबक, कुछ सीख आदि खोज लें। और आज मैं इतिहास के ऐसे ही कुछ संकेतों की बात करना चाहता हूं जिनका आधार तो गणित है लेकिन वे मूलत: चुनाव के रसायन से ताल्लुक रखते हैं।
ऐसा ही एक मोटा आधार मतदान में पुरुष और महिला मतदाताओं द्वारा डाले गए वोटों की संख्या का है। इस आधार की इन दिनों बहुत चर्चा हो रही है। सत्तारूढ़ भाजपा के लोग इस बात को लेकर खुद को आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं कि इस बार चूंकि महिलाओं ने अच्छी खासी संख्या में वोट डाले हैं, इससे उनका पक्ष मजबूत हुआ है। ऐसी खुशफहमी पालने के पीछे रसायनिक कारण यह बताया जा रहा है कि महिलाएं शिवराजसिंह सरकार की नीतियों से काफी प्रसन्न हैं।
अब प्रसन्नता को मापने का कोई पैमाना तो होता नहीं, इसलिए मैं न तो यह कह सकता हूं कि भाजपा का यह दावा सही है और न ही इसे गलत करार दे सकता हूं। मैं हमेशा की तरह सिर्फ मतदान के आंकड़ों को महिला पुरुष की कसौटी पर कस कर जरूर देख सकता हूं। तो आएं देखें, इस संबंध में इतिहास और वर्तमान से जुड़े आंकड़े क्या कहते हैं।
हम बहुत दूर नहीं जाते सिर्फ पिछले यानी 2013 के चुनाव से ही तुलना कर लेते हैं। उस समय कुल 4 करोड़ 66 लाख 9024 मतदाताओं में से महिला मतदाताओं की संख्या 2 करोड़ 20 लाख 57 हजार 782 थी और इनमें से 70.11 फीसदी यानी एक करोड़ 54 लाख 64 हजार 710 महिलाओं ने वोट डाले थे।
इस बार यानी 2018 में कुल मतदाताओं की संख्या 5 करोड़ 4 लाख 33 हजार 79 है और इनमें महिला मतदाता 2 करोड़ 41 लाख 3390 हैं। इस बार 74.03 यानी एक करोड़ 78 लाख 43 हजार 739 महिला मतदाताओं ने मतदान किया।
अब कहने को तो 2013 की तुलना में 2018 में महिला मतदान में 3.92 फीसदी की बढ़ोतरी हो गई, लेकिन वास्तविकता क्या है? वास्तविकता यह है कि 2013 में जहां 65 लाख 93 हजार 72 महिलाएं वोट डालने के लिए नहीं निकली थीं, वहीं इस बार 62 लाख 59 हजार 651 महिलाओं ने वोट डालने में रुचि नहीं दिखाई।
इसका मतलब यह हुआ कि पिछली बार की तुलना में इस बार सिर्फ 3 लाख 33 हजार 421 महिलाएं ही अधिक संख्या में वोट डालने के लिए निकलीं। प्रदेश के 51 जिलों के हिसाब से यह संख्या प्रति जिला 6538 और 230 विधानसभा क्षेत्रों के लिहाज से प्रति विधानसभा क्षेत्र 1450 ही बैठती है।
अब आप ही सोचिए, पिछले चुनाव की तुलना में हर चुनाव क्षेत्र में डेढ़ हजार से भी कम महिलाओं के ज्यादा वोट को क्या हम महिलाओं का प्रचंड मतदान कह सकते हैं, और क्या इस आधार पर किसी भी दल की हार जीत का आकलन हमें करना चाहिए? इतनी मामूली सी बढ़ोतरी तो मतदान में स्वाभाविक रूप से भी हो सकती है, इसके लिए सरकार के प्रति जबरदस्त रुझान जैसा निष्कर्ष निकालना क्या उचित होगा?
देखिये, चुनाव एक ऐसी रसायनिक क्रिया है जो देश, काल और परिस्थिति के मिश्रण से संपन्न होती है। इसमें ऐसी ऐसी चीजें कैटेलिटिक एजेंट के रूप में काम करती हैं जिनका हमें अंदाज तक नहीं होता। इसलिए बेहतर यही होगा कि हम चुपचाप नतीजे आने का इंतजार करें। कौन हवा में है और कौन जमीन पर, आज रात तक सब सामने आ जाएगा। असल मुद्दा यह है कि जो भी नतीजा आएगा अंतत: आपके लिए उसके नतीजे क्या होंगे?