पत्रकार/मंत्री अकबर से रवीश कुमार ने मांगा गुरु मंत्र

0
1431

एम.जे.अकबर के नाम रवीश कुमार का पत्र

——————————-

आदरणीय अकबर जी,

प्रणाम,

ईद मुबारक़। आप विदेश राज्य मंत्री बने हैं, वो भी ईद से कम नहीं है। हम सब पत्रकारों को बहुत ख़ुश होना चाहिए कि आप भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता बनने के बाद सांसद बने और फिर मंत्री बने हैं। आपने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा। फिर उसके बाद राजनीति से लौट कर सम्पादक भी बने। फिर सम्पादक से प्रवक्ता बने और मंत्री। शायद मैं यह कभी नहीं जान पाऊँगा कि नेता बनकर पत्रकारिता के बारे में क्या सोचते थे और पत्रकार बनकर पेशगत नैतिकता के बारे में क्या सोचते थे? क्या आप कभी इस तरह के नैतिक संकट से गुज़रे हैं? हालाँकि पत्रकारिता में कोई ख़ुदा नहीं होता लेकिन क्या आपको कभी इन संकटों के समय ख़ुदा का ख़ौफ़ होता था ?

अकबर जी, मैं यह पत्र थोड़ी तल्ख़ी से भी लिख रहा हूँ। मगर उसका कारण आप नहीं है। आप सहारा बन सकते हैं। पिछले तीन साल से मुझे सोशल मीडिया पर दलाल कहा जाता रहा है। जिस राजनीतिक परिवर्तन को आप जैसे महान पत्रकार भारत के लिए महान बताते रहे हैं, हर ख़बर के साथ दलाल और भड़वा कहने की संस्कृति भी इसी परिवर्तन के साथ आई है। यहाँ तक कि मेरी माँ को रंडी लिखा गया और आज कल में भी इस तरह मेरी माँ के बारे में लिखा गया। जो कभी स्कूल नहीं जा सकी और जिन्हें पता भी नहीं है कि एंकर होना क्या होता है, प्राइम टाइम क्या होता है। उन्होंने कभी एनडीटीवी का स्टुडियो तक नहीं देखा है। वो बस इतना ही पूछती है कि ठीक हो न। अख़बार बहुत ग़ौर से पढ़ती है। जब उसे पता चला कि मुझे इस तरह से गालियाँ दी जाती हैं तो घबराहट में कई रात तक सो नहीं पाई।

अकबर जी, आप जब पत्रकारिता से राजनीति में आते थे तो क्या आपको भी लोग दलाल बोलते थे, गाली देते थे, सोशल मीडिया पर मुँह काला करते थे जैसा मेरा करते हैं। ख़ासकर ब्लैक स्क्रीन वाले एपिसोड के बाद से। फिर जब कांग्रेस से पत्रकारिता में आए तो क्या लोग या ख़ासकर विरोधी दल, जिसमें इन दिनों आप हैं, आपके हर लेखन को दस जनपथ या किसी दल की दलाली से जोड़ कर देखते थे? तब आप ख़ुद को किन तर्कों से सहारा मिलता था? क्या आप मुझे वे सारे तर्क दे सकते हैं? मुझे आपका सहारा चाहिए।

मैंने पत्रकारिता में बहुत सी रिपोर्ट ख़राब भी की है। कुछ तो बेहद शर्मनाक थीं। पर तीन साल पहले तक कोई नहीं बोलता था कि मैं दलाल हूँ। माँ बहन की गाली नहीं देता था। अकबर सर, मैं दलाल नहीं हूँ। बट डू टेल मी व्हाट शूड आई डू टू बिकम अकबर। वाजपेयी सरकार में मुरली मनोहर जोशी जी जब मंत्री थे तब शिक्षा के भगवाकरण पर खूब तक़रीरें करता था। तब आपकी पार्टी के दफ्तर में मुझे कोई नफ़रत से बात नहीं करता था। डाक्टर साहब तो इंटरव्यू के बाद चाय भी पिलाते थे और मिठाई भी पूछते थे। कभी यह नहीं कहा कि तुम कांग्रेस के दलाल हो इसलिए ये सब सवाल पूछ रहे हो। उम्र के कारण जोशी जी गुस्साते भी थे लेकिन कभी मना नहीं किया कि इंटरव्यू नहीं दूँगा और न ऐसा संकेत दिया कि सरकार तुमसे चिढ़ती है। बल्कि अगले दिन उनके दफ्तर से ख़बरें उड़ा कर उन्हें फिर से कुरेद देता था।

अब सब बदल गया है। राजनीतिक नियंत्रण की नई संस्कृति आ गई है। हर रिपोर्ट को राजनीतिक पक्षधरता के पैमाने पर कसने वालों की जमात आ गई। यह जमात धुआँधार गाली देने लगी है। गाली देने वाले आपके और हमारे प्रधानमंत्री की तस्वीर लगाए हुए रहते हैं और कई बार राष्ट्रीय स्वयं संघ से जुड़े प्रतीकों का इस्तमाल करते हैं। इनमें से कई मंत्रियों को फालो करते हैं और कइयों को मंत्री। ये कुछ पत्रकारों को भाजपा विरोधी के रूप में चिन्हित करते हैं और बाकी की वाहवाही करते हैं।

निश्चित रूप से पत्रकारिता में गिरावट आई है। उस दौर में बिल्कुल नहीं आई थी जब आप चुनाव लड़े जीते, फिर हारे और फिर से संपादक बने। वो पत्रकारिता का स्वर्ण काल रहा होगा। जिसे अकबर काल कहा जा सकता है अगर इन गाली देने वालों को बुरा न लगे तो। आजकल भी पत्रकार प्रवक्ता का एक अघोषित विस्तार बन गए है। कुछ घोषित विस्तार बनकर भी पूजनीय हैं। मुझसे तटस्थता की आशा करने वाली गाली देने वालों की जमात इन घोषित प्रतिकारों को कभी दलाल नहीं कहती। हालाँकि अब जवाब में उन्हें भी दलाल और न जाने क्या क्या गाली देने वाली जमात आ गई है। यह वही जमात है जो स्मृति ईरानी को ट्रोल करती है।

आपको विदेश मंत्रालय में सहयोगी के रूप में जनरल वी के सिंह मिलेंगे जिन्होंने पत्रकारों के लिए ‘प्रेस्टिट्यूड’ कहा। उनसे सहमत और समर्थक जमात के लोग हिन्दी में हमें ‘प्रेश्या’ बुलाते हैं। चूँकि मैं एन डी टी वी से जुड़ा हूँ तो N की जगह R लगाकर ‘रंडी टीवी’ बोलते हैं। जिसके कैमरों ने आपकी बातों को भी दुनिया तक पहुँचाया है। क्या आपको लगता है कि पत्रकार स़ख्त सवाल करते हुए किसी दल की दलाली करते हैं? कौन सा सवाल कब दलाली हो जाता है और कब पत्रकारिता इस पर भी कुछ रौशनी डाल सकें तो आप जैसे संपादक से कुछ सीख सकूँगा। युवा पत्रकारों को कह सकूँगा कि रवीश कुमार मत बनना, बनना तो अकबर बनना क्योंकि हो सकता है अब रवीश कुमार भी अकबर बन जाये।

मै थोड़ा भावुक इंसान हूँ । इन हमलों से ज़रूर विचलित हुआ हूँ। तभी तो आपको देख लगा कि यही वो शख्स है जो मुझे सहारा दे सकता है। पिछले तीन साल के दौरान हर रिपोर्ट से पहले ये ख़्याल भी आया कि वही समर्थक जो भारत के सांस्कृतिक उत्थान की आगवानी में तुरही बजा रहे हैं, मुझे दलाल न कह दें और मेरी माँ को रंडी न कह दें। जबकि मेरी माँ ही असली और एकमात्र भारत माता है। माँ का ज़िक्र इसलिए बार बार कह रहा हूँ क्योंकि आपकी पार्टी के लोग ‘एक माँ की भावना’ को सबसे बेहतर समझते हैं। माँ का नाम लेते ही बहस अंतिम दीवार तक पहुँच कर समाप्त हो जाती है।

अकबर जी, मैं यह पत्र बहुत आशा से लिख रहा हूँ । आपका जवाब भावी पत्रकारों के लिए नज़ीर बनेगा। जो इन दिनों दस से पंद्रह लाख की फीस देकर पत्रकारिता पढ़ते हैं। मेरी नज़र में इतना पैसा देकर पत्रकारिता पढ़ने वाली पीढ़ी किसी कबाड़ से कम नहीं लेकिन आपका जवाब उनका मनोबल बढ़ा सकता है।

जब आप राजनीति से लौट कर पत्रकारिता में आते थे तो लिखते वक्त दिल दिमाग़ पर उस राजनीतिक दल या विचारधारा की ख़ैरियत की चिन्ता होती थी? क्या आप तटस्थ रह पाते थे? तटस्थ नहीं होते थे तो उसकी जगह क्या होते थे? जब आप पत्रकारिता से राजनीति में चले जाते थे तो अपने लिखे पर संदेह होता था? कभी लगता था कि किसी इनाम की आशा में ये सब लिखा है? मैं यह समझता हूँ कि हम पत्रकार अपने समय संदर्भ के दबाव में लिख रहे होते हैं और मुमकिन है कि कुछ साल बाद वो ख़ुद को बेकार लगे लेकिन क्या आपके लेखन में कभी राजनीतिक निष्ठा हावी हुई है? क्या निष्ठाओं की अदला बदली करते हुए नैतिक संकटों से मुक्त रहा जा सकता है? आप रह सके हैं?

मैं ट्वीटर के ट्रोल की तरह गुजरात सहित भारत के तमाम दंगों पर लिखे आपके लेख का ज़िकर नहीं करना चाहता। मैं सिर्फ व्यक्तिगत संदर्भ में यह सवाल पूछ रहा हूँ। आपसे पहले भी कई संस्थानों के मालिक राज्य सभा गए। आप तो कांग्रेस से लोकसभा लड़े और बीजेपी से राज्य सभा। कई लोग दूसरे तरीके से राजनीतिक दलों से रिश्ता निभाते रहे। पत्रकारों ने भी यही किया। मुझे ख़ुशी है कि प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेसी सरकारों की इस देन को बरक़रार रखा है। भारतीय संस्कृति की आगवानी में तुरही बजाने वालों ने यह भी न देखा कि लोकप्रिय अटल जी ख़ुद पत्रकार थे और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी अपने अख़बार वीरअर्जुन पढ़ने का मोह त्याग न सके। कई और उदाहरण आज भी मिल जायेंगे।

मुझे लगा कि अब अगर मुझे कोई दलाल कहेगा या माँ को गाली देगा तो मैं कह सकूँगा कि अगर अकबर महान है तो रवीश कुमार भी महान है। वैसे मैं अभी राजनीति में नहीं आया हूँ। आ गया तो आप मेरे बहुत काम आयेंगे। इसलिए आप यह भी बताइये कि पत्रकारों को क्या करना चाहिए। क्या उन्हें चुनाव लड़कर, मंत्री बनकर फिर से पत्रकार बनना चाहिए। तब क्या वे पत्रकारिता कर पायेंगे? क्या पत्रकार बनते हुए देश सेवा के नाम पर राजनीतिक संभावनाएँ तलाश करती कहनी चाहिए?  ‘यू कैन से सो मेनी थिंग्स ऑन जर्नलिज़्म नॉट वन सर’ !

मैं आशा करता हूँ कि तटस्थता की अभिलाषा में गाली देने वाले आपका स्वागत कर रहे होंगे। उन्हें फूल बरसाने भी चाहिए। आपकी योग्यता निःसंदेह है। आप हम सबके हीरो रहे हैं। जो पत्रकारिता को धर्म समझ कर करते रहे मगर यह न देख सके कि आप जैसे लोग धर्म को कर्मकांड समझकर निभाने में लगे हैं। चूँकि आजकल एंकर टीआरपी बताकर अपना महत्व बताते हैं तो मैं शून्य टीआरपी वाला एंकर हूँ। टीआरपी मीटर बताता है कि मुझे कोई नहीं देखता। इस लिहाज़ से चाहें तो आप इस पत्र को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं। मगर मंत्री होने के नाते आप भारत के हर नागरिक के प्रति सैंद्धांतिक रूप से जवाबदेह हो जाते हैं। उसी की ख़ैरियत के लिए इतना त्याग करते हैं। इस नाते आप जवाब दे सकते हैं। नंबर वन टी आर पी वाला आपसे नहीं पूछेगा कि ज़ीरो टी आर पी वाले पत्रकार का जवाब एक मंत्री कैसे दे सकता है वो भी विदेश राज्य मंत्री। वन्स एगेन ईद मुबारक सर। दिल से।

आपका अदना,

रवीश कुमार

———————-

रवीश कुमार के ब्‍लॉग कस्‍बा से साभार 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here