प्रभुनाथ शुक्ल
क्या रिजर्ब बैंक की नीतियां जो सीधे अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करती हैं उस पर सरकार का नियंत्रण होना चाहिए? अगर होना चाहिए तो कितना और कब तक? रिजर्व बैंक के निवृत्त गर्वनर रघुराम राजन ने सरकार से गवर्नर का कद बढ़ाने की वकालत की है। उनकी बातों पर गौर किया जाए तो उन्होंने साफ और सीधा संदेश दिया है कि रिजर्ब बैंक को स्वायत्तशासी संस्था घोषित किया जाए। सरकार पर उसकी नीतियों का नियंत्रण नहीं होना चाहिए, फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखता है। सरकार इस बात को कभी स्वीकार करेगी यह मुझे नहीं लगता है। राजनीति और नौकरशाही देश की लोकतांत्रित व्यवस्था में दो धुरियां हैं। दोनों में तालमेल होना आवश्यक है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। राजतंत्र अपने को सर्वोपरि मानता है। कभी कभी उसकी तरफ से लिए गए फैसले देश की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ते हैं। भारतीय रिजर्ब बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का कार्यकाल अच्छी उपलब्घियों के लिए जाना जाएगा। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को बुलंदियों पर पहुंचाया लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में उन्हें बलि का बकरा बनाया गया। राजनीतिक कारणों और सरकार से अनबन के कारण उन्हें पद त्यागना पड़ा। हालांकि उन्होंने अपने तीन साल के कार्यकाल का पूरा उपयोग किया। हालांकि अब तक परंपरा रही है कि गवर्नरों को दो साल का सेवा विस्तार सरकार की तरफ से दिया जाता रहा है लेकिन राजन उसके अपवाद रहे। रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद कैबिनेट सचिव के समकक्ष होता है। प्रोटोकाल नियमों में वह कैबिनेट सचिव के बराबर होता है।
अभी तक यह होता रहा है कि वित्तमंत्री के सुझाव पर प्रधानमंत्री गवर्नर की नियुक्ति करते थे लेकिन इस बार कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली समिति ने उर्जित पटेल का नाम रखा। यह नई व्यवस्था के तहत हुआ है। इसमें गवर्नर की गरिमा और पद की महत्ता को घटाने की कोशिश की गयी। क्योंकि जिस समिति ने नए गवर्नर के रुप में उर्जित पटेल का नाम सुझाया वह कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली समिति थी। जब गवर्नर का पद कैबिनेट सचिव के बराबर होता है तो उस स्थिति में वह गवर्नर का नाम कैसे प्रस्तावित कर सकता है? राजन की पीड़ा में यह बात भी शामिल है। उनका वेतन भी सचिव के बराबर होता है।
भाजपा के बरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने जिस तरह राजन पर हमला बोला और सरकार के नुमाइंदे चुप रहे। पीएम नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी जब इस मसले पर अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी तो जाहिर हो गया था कि सरकार राजन के पक्ष में नहीं है। राजन का कार्यकाल शानदार उपलब्धियों भरा रहा है। उन्होंने नान परफार्मिंग एसेट्स यानी एनपीए और रुपया को बचाने में अहम भूमिका निभायी। रुपया लगातार गिर रहा था लेकिन राजन की नीतियों से इस पर विराम लगा। रिजर्व बैंक का जमाकोष 100 अरब डालर से आगे बढ़ा।
राजन का नाम उन चुनिंदा लोगों में शामिल है जिन्होंने 2008 में आर्थिक मंदी की भविष्यवाणी की थी। भारतीय अर्थव्यवस्था संभालने के लिए उनकी खुलकर तारीफ की जाती है। राजन के जाने से अर्थव्यवस्था पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि उन्होंने अर्थनीति का सारा खाका पहले से खींच रखा है। नए गवर्नर को भी इसी लकीर पर चलना होगा। उन्होंने ब्याज दरों को संतुलित रखकर मुद्रा को स्थिर रखा। विदेशी मुद्रा भंडार रिकार्ड स्तर पर बढ़ा। राजन कोई साधरण इंसान नहीं थे वे अतंरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रमुख अर्थशास्त्रियों में शामिल थे। भारत आज दुनिया की सबसे प्रगतिशील अर्थव्यवस्था में शामिल है। इसमें राजन का अहम योगदान है।
आम तौर पर अब तक जितने गवर्नर रहे हैं वे सरकार से उपकृत होते रहे हैं। आर्थिक नीतियों और आरबीआई की विसंगतियों पर खुल कर फैसला नहीं ले पाए लेकिन राजन उन गवर्नरों में नहीं रहे। उन्होंने ऐसी कंपनियों की सूची बनायी और उसे जारी किया जिन्होंने बैंकों से भारी भरकम बैंकों कर्ज लिया और ब्याज भी अदा नहीं किया। उन्होंने इन पूंजीपतियों का नाम भी सार्वजनिक किया। पूंजीपतियों की बड़ी लॉबी इससे नाराज हुई। क्योंकि इनका संबंध सीधे राजनेताओं से होता है। विजय माल्या का प्रकरण इसी से जुड़ा एक उदाहरण है। ऐसी स्थिति में बवाल होना स्वाभाविक था।
सरकारी फैसलों में गवर्नर का क्या स्थान है यह परिभाषित नहीं है। लेकिन यह सहमति है कि गवर्नर अपने फैसलों को सीधे प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को अवगत कराएंगे। राजन ने मुख्य रूप से रिजर्ब बैंक की स्वायत्तता और उसकी आजादी को लेकर अपनी बात रखी। वे चाहते थे कि केंद्रीय बैंक की भूमिका को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए। राजन तो चले गए लेकिन उनके द्वारा उठाए गए सवाल अभी जिंदा हैं और सरकार से जवाब की मांग करते हैं।