मनोहर नायक
अच्छा लगा कि लोगों ने शायर राहत इंदौरी को इतने प्यार और सम्मान से याद किया। लोगों ने ढ़ूँढ़- ढू़ँढ़ कर उनके अशआर और वीडियो सोशल मीडिया पर डाले… उन पर बहुतों ने संस्मरण लिखे और इनमें सभी रंगतों के लोग हैं, ज़ाहिर है इन सबको उनकी शायरी ने कम-ज़्यादा अपने असर में लिया। उन लोगों ने भी कुछ पंक्तियाँ लिखीं जो राहत साहब जब भी गुज़रते, ये पंक्तियाँ वे लिखते ही। नामुराद हिंदी अख़बारों के बारे में क्या कहें, हर मामले में उनकी अपनी समझ कुछ रही नहीं, उनका देखना-बताना सब सरकारी… हर सुबह वे और ख़ाक में मिला देते हैं।
औरों का तो नहीं मालूम लेकिन हमारे यहाँ जो हिंदी का महान अख़बार आता है, उसमें दूसरी बार ढ़ूँढ़ने पर अंदर छोटी-सी फ़ोटो के साथ सातेक लाइन कि ख़बर मिली कि… दुनिया से रुखसत हो गये। हिंदी अख़बारों से अपेक्षया उदार और भले अंग्रेज़ी अख़बारों में ठीकठाक ख़बर थी, यानि ख़बर में वह सब कुछ था जिससे उसे उतनी स्पेस देने का कारण पता चलता है। ग़ैरअंग्रेज़ी वालों के प्रति बेगानगी के बावजूद कुछेक ऐसे ग़ैरों को अंग्रेज़ी अख़बारों में, मर कर ही सही, कुछ जगह और थोड़ी अमरता मिल जाती है। बहरहाल, ‘इंडियन एक्सप्रेस‘ ने गुरुवार को राहत साहब को सम्पादकीय में भी अलविदा कहा।
यह सब अच्छा लगा क्योंकि इससे एक नयी हक़ीक़त खुली कि लोग मार-तमाम फ़रेबी प्रचार के बाद भी ग़लत को ग़लत मानते हैं और अच्छे की सराहना करने का दिल रखते हैं। भक्तों और समर्थक मीडिया के होहल्ले व कोलाहल के बावजूद ऐसे लोग हर तरफ़, हर जगह हैं और बड़ी तादाद में हैं। यह एक छोटी चीज़ से बड़ा निष्कर्ष निकालना नहीं है,यह वस्तुस्थिति है।
राहत इंदौरी आज के नहीं पुराने शायर थे, पर मोदी शासन के धत्कर्मों, मुसलमानों पर बढ़ते ज़ुल्मों, उनके ख़िलाफ़ साजिशों-अपराधों के साथ-साथ राहत इंदौरी उभरते गये। मुशायरों में वे बवंडर की तरह रहते। कवि सम्मेलन हो या मुशायरा, वे तो वहीं हैं जहाँ वे दशकों पहले पहुँच चुके थे, बल्कि और ही हास्यास्पद हो चुके हैं। राहत साहब इन्हें अपने कलाम से नया मक़ाम देते। मुशायरों और श्रोताओं के मूड को इस तरह मोड़ना, एक ऐसे समय में जब सिर्फ़ एक चेहरे, एक आवाज़ पर फ़ोकस करने का चौतरफ़ा दबाव है, बड़ी बात है।
वे हर मुशायरे, कवि सम्मेलन के लिए ज़रूरी बन गये थे। वे हर जगह बुलाये जाते, यहाँ तक कि शुद्ध मनोरंजनवादी जगहों पर वे दिखायी देते, जहाँ आमतौर पर तितलियाँ और भौंरे ही होते हैं। यहाँ पर भी वे अपनी दीगर शायरी के साथ वह सब सुनाते जिसके लिये उनकी प्रसिद्धि बढ़ रही थी। उनके पास हर तरह का माल था, इनमें अजब-अजब बहरों, रदीफ़-काफ़ियों वाली उम्दा ग़ज़लें भी शामिल हैं। मौक़े के मुताबिक़ चुस्त फ़िकरों की भी कमी नहीं थी। गरज़ यह कि वे इन ग़ैरसंजीदा और हँसोड़ जगहों को भी लूट लेते।
मैंने उन्हें सोशल मीडिया के वीडियो में ही देखा- सुना। वे अपनी प्रतिरोध की शायरी ही गहरे लगाव और बेचैनी के साथ सुनाते… इसी को सुनने के लिये वे बुलाये जाते, गम्भीरता से सुने जाते, तालियाँ-वाहवाही पाते और इन्हीं के लिये वे याद रखे जायेंगे। उन्होंने यही किया कि देश में उन मुद्दों को जिन्हें छिपाया जा रहा था, उन पर सुनाना शुरू किया।
कुछ कवि हृदयों ने कहा कि उनकी शायरी प्रतिक्रिया की राजनीति थी। इसका क्या जवाब हो सकता है। राहत इंदौरी निस्संदेह उस दर्द को अभिव्यक्त कर रहे थे, जिससे मुसलमान कराह रहे थे; धौंस, धमकी, लिंचिंग, अपमान, दंगे ख़ूंरेजी… सीएए, एनआरसी जैसे कानून… पूरी तैयारी उन्हें हाशिये और दोयम दर्जे में धकेलने की। कश्मीर की कारगुज़ारी भी इसका ही हिस्सा थी।
मुसलमान ही नहीं, दलित-आदिवासी और तमाम असहमतों के ख़िलाफ़ षड़यंत्रकारी तेवर साफ़ सामने हैं। उनके दर्द और यातना को, उनकी मन:स्थिति को समझना आसान नहीं है, जिनका जीवन भयावहता में झोंक दिया जाने वाला हो। ऐसे ज़ुल्म और हैवानियत के ख़िलाफ़ प्रतिक्रिया की राजनीति प्रतिरोध की राजनीति होती है। इसी ने देश भर में शहर-शहर शाहीन बाग़ खिला दिये थे।
राहत इंदौरी कभी परेशान होकर तो कभी ललकार कर अपने ग़म और ग़ुस्से का इज़हार अपनी शायरी से करते… मेरा ही मकान थोड़ी है…किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है… वापस आओ तो ये घर नहीं मिलेंगे… लहू से पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना… मोहब्बत की इसी मिट्टी को हिंदुस्तान कहते हैं…
उनकी शायरी हर तरह से इस देश और इसकी माटी से अपनापा और हक़ जताती। मंचों से वे उन हुक्मरानों का नाम भी लेते जिनसे उन्हें नाराज़गी होती। ख़ुशी और तसल्ली ही है कि उनकी शायरी को समझा-सराहा गया यानि उसमें निहां दर्दोग़म को समझा-सराहा गया… आज जब सीनों पर भय पसरा हुआ है तब एक साहसी शायर को हाथों हाथ लेना कम साहस की बात नहीं है।
राहत साहब की बात ठीक जगह चोट कर रही थी, यह भी उनकी शायरी से उम्मीद बँधने का कारण था… उनके न रहने पर भक्तगणों ने सोशल मीडिया पर जैसी वाहियात और भर्त्सनीय पोस्ट लिखीं वह उनके दिमाग़ी सड़ेपन को तो बताती ही हैं, इससे यह भी पता चलता है कि राहत इंदौरी और उनकी शायरी को लेकर उनमें कैसी तिलमिलाहट थी। इनमें बहुतेरे अपने सगे-संबंधी भी हैं, उन्हीं की भड़ास पढ़कर यह सब लिखने का विचार हुआ। स्वयंसेवकों के यही संस्कार हैं… मोदीजी से लेकर नीचे तक इनका अजस्त्र प्रवाह है, चुटकला-चिंतक अटलजी के द्विअर्थी संवादों की याद हो तो मोदीजी के पहले उनका नाम अवश्य जोड़ लीजिये। इन संस्कारों की उच्च नस्ल संबित पात्रा हैं, जिनकी विषबुझी बातों ने एक उम्दा व्यक्ति राजीव त्यागी की जान ले ली।
एक मुशायरे में राहत साहब से वही ‘किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़ी है‘, सुनाने को जब कहा गया तो पहले उन्होंने कहा कि, ‘यह ग़ज़ल तीस-पैंतीस साल पुरानी है, अब फिर इसकी फ़रमाइश होती है, मुझे समझ नहीं आता कि उस समय से इस समय की ऐसी क्या संगति है?’ बाक़ी उन्होंने चुप रह कर कह दिया। याद करिये, तीस-पैंतीस साल पहले का वक़्त राम मंदिर आंदोलन के उभार का था। अपने पीछे दंगों और लाशों को छोड़ते जानेवाली रथयात्रा का था…
इसके लिये ‘द टेलीग्राफ़‘ अख़बार के सम्पादकीय पन्ने के लेख में आडवाणीजी को ‘राजनीति का नरभक्षी‘ कहा गया था… वह समय बाबरी ध्वंस का था। अपनी वह रचना राहत तब सुनाते थे और अब फिर वह बार-बार सुनाना पड़ रही थी… रथयात्रा सफल हो चुकी थी और उसका उन्मादी कहर शुरू हो चुका था … समय भी कैसे किसी कवि और कविता का पुनराविष्कार कर लेता है!
हमारी आज की बड़ी दिक़्क़त यह है कि हमारी राजनीति, साहित्य और पत्रकारिता ने जनता की गलियों में जाना लगभग बंद कर दिया है, जनता से उनकी दोस्तियाँ कमज़ोर पड़ गयी हैं | जीवनलाल वर्मा ‘विद्रोही‘ के एक गीत की ये पंक्तियाँ याद आती हैं, ‘भाई हम लिखते पढ़ते हैं/हम जबलपुर के जड़िया हैं/जनता की गलियों में जाकर/टूटी तस्वीरें मढ़ते हैं/भाई हम लिखते पढ़ते हैं।’ मर्मज्ञों को राहत साहब की शायरी में भले फ़िनिश न मिलता हो, वह खुरदुरी लगती हो,पर वह दिलों में राह करती थी… उनकी गुफ़्तगू अवाम से थी।