पुलवामा ने उजागर किया मीडिया का खोखलापन

जब से पुलवामा में सीआरपीएफ के जवान शहीद होने का हादसा हुआ है, देश में इसी की चर्चा है। चारों तरफ से तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं, तरह-तरह के सुझाव और तरह-तरह की बातें सामने आ रही हैं। लेकिन इस पूरे घमासान में एक बात ने बहुत शिद्दत से मेरा ध्‍यान खींचा है और वह है मीडिया में इस पूरे घटनाक्रम का कवरेज।

इस अत्‍यंत दुखद और दहला देन वाली घटना का मीडिया ने अब तक जिस तरह कवरेज किया है और अब भी जिस तरह से इस पर बातें की जा रही हैं वो साफ बताता है कि भारतीय मीडिया, खासतौर से हमारा टीवी मीडिया इस बात के लिए प्रशिक्षत ही नहीं है कि ऐसी घटनाओं का कवरेज कैसे किया जाए और उस कवरेज का आधार और दिशा क्‍या हो?

जिस क्षण पुलवामा की घटना के बारे में खबर आई, उस क्षण की ब्रेकिंग से लेकर अभी तक मीडिया या तो उत्‍तेजना और उकसावे की कार्रवाई कर रहा है या फिर उसने इस पूरे मामले को अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए देश की जनता का भावनात्‍मक शोषण करने में इस्‍तेमाल किया है। पहले दिन से पाकिस्‍तान को चीर डालो, बरबाद कर दो, चीथड़े उड़ा दो जैसे फतवे जारी करने के साथ वह शहीदों के परिवारों की चीत्‍कारों और आंसुओं का सौदा करने से भी नहीं चूका।

पहले चौबीस घंटे बार-बार उस घटनास्‍थल का धुंधला सा वीडियो दिखाने से लेकर पाकिस्‍तान को बरबाद करने वाले नारे गढ़ने और शहीदों के शवों और उनकी अंतिम यात्रा के बेकग्राउंड में इमोशनल फिल्‍मी गाने चलाने में बीते। जब इन बातों का पूरी तरह दोहन/शोषण हो गया तो अगला टारगेट शहीदों के माता पिता, भाई बहन, पत्‍नी और उनके बच्‍चे बच्चियों को बनाया गया।

कई शूरवीर एंकर और एंकरियों ने पत्रकारिता के आदर्शों की धज्जियां उड़ाने की इस स्‍पर्धा में ऐसे बढ़चढ़कर भाग लिया मानो उन्‍हें मुंहमांगी मुराद मिल गई हो। एक एंकरी ने कहा- पुलवामा के दृश्‍य देखकर मेरा खून खौल रहा है, मैं जब भी उन शहीदों के परिवारों को देखती हूं अपने को रोक नहीं पाती, आखिर भारत कब तक यूं ही चुप बैठा रहेगा, वो दिन कब आएगा जब हम उसे सबक सिखाएंगे, इस सांप का फन कुचल डालेंगे… वगैरह

ऐसा कहने वाली वह अकेली एंकर नहीं थी। लगभग चारों तरफ ऐसा ही माहौल था। लग रहा था मानो गुस्‍सा सिर्फ उन्‍हें ही आ रहा है, देश के बाकी लोग तो अप्रभावित बैठे हैं। एंकर ऐसे नथुने फुला रहे थे मानो उनका बस चले तो वे अभी अपने स्‍टूडियो से ही मिसाइल दागकर पाकिस्‍तान को नेस्‍तनाबूद कर दें। जब खुद बोल-बोल कर मुंह से झाग आने लगा तो दुकान चलाने के लिए चारों तरफ से ऐसे मुंहजोर जुटाए गए जो इस गालीगलौज को और आगे तक ले जाएं।

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में पुलवामा की घटना के कवरेज को बहुत सहेज कर रखा जाना चाहिए। इसलिए नहीं कि मीडिया ने उस घटना का बहुत महान कवरेज किया बल्कि इसलिए कि यह अपने आपको बहुत महान, बहुत ज्ञानी और सर्वशक्तिमान समझने वाले मीडिया के खोखलेपन का ऐसा उदाहरण है जिसे पत्रकारिता की भावी पीढि़यों को जानना भी चाहिए और उससे सबक भी लेना चाहिए।

देश में पत्रकारिता को पढ़ाने वाले जितने भी संस्‍थान हैं उनमें इस घटना के पूरे कवरेज के वीडियो छात्रों को उदाहरण के रूप में बार बार दिखाए जाकर उन्‍हें सचेत किया जाना चाहिए कि मीडिया के पेशे में आने के बाद उन्‍हें क्‍या नहीं करना है। मानाकि ऐसा करने का उन पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन वे कम से कम किसी को यह दोष तो नहीं दे सकेंगे कि उन्‍हें किसी ने नहीं बताया था कि उन्‍हें क्‍या करना है और क्‍या नहीं करना।

क्‍या युद्ध भड़काना पत्रकारों का काम है? क्‍या शहीदों के उन बच्‍चों को रोते बिलखते दिखाना और एक तरह से बच्‍चों का मानसिक उत्‍पीड़न करना क्‍या पत्रकारिता है?नहीं यह सीधे सीधे बच्‍चों के खिलाफ अपराध का मामला है। आप अपनी कहानी में आंसुओं का तड़का लगाने के लिए बच्‍चों का इस्‍तेमाल करने की सोच भी कैसे सकते हैं? और क्‍या मतलब है यह कहने का कि जो ताबूत शहीदों के घर पहुंचे हैं उनमें पता नहीं उस शहीद का शरीर है भी या नहीं, और है भी तो किस रूप में।

आखिर यह सब दिखाकर हासिल क्‍या किया जा रहा है? इससे किसका भला हो रहा है? और भले की बात तो छोडि़ए इससे तो उलटे वो लोग और ज्‍यादा खुश हो रहे होंगे जिन्‍होंने इस जघन्‍य कृत्‍य को अंजाम दिया है और जो चाहते हैं कि पूरी दुनिया उनकी इस ‘नामर्द बहादुरी’ के नतीजे में रोते-बिलखते और छाती पीटते हिन्‍दुस्‍तान को देखे। आप अनजाने में ही क्‍या उनके मकसद को पूरा नहीं कर रहे?

पुलवामा के कवरेज ने भारतीय मीडिया के खोखलेपन और उथली मानसिकता को उजागर किया यह बात मैंने इसलिए कही क्‍योंकि जो लोग आज बड़े-बड़े चैनलों में चेहरा बनकर यह घटिया काम कर रहे हैं, उनमें से ऐसे दर्जनों लोगों को मैं जानता हूं जो अकादमिक बहसों में और पत्रकारिता संस्‍थानों के कार्यक्रमों में भावी पत्रकारों के सामने अमेरिका के वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर की घटना का उदाहरण देकर यह कहते हुए नहीं थकते कि देखो वहां के मीडिया को, उन्‍होंने एक भी घायल या एक भी मृतक का फोटो नहीं दिखाया।

इतना बड़ा हादसा होने के बाद अमेरिका भी दुखी था, लेकिन दुनिया को कहीं भी वह छाती पीटता हुआ नहीं दिखा। पर ऐसा लगता है कि देश को छाती पीटते हुए, रोते बिलखते हुए दिखाना हमारे लिए संवेदना का नहीं अपनी दुकान चमकाने का विषय है। चैनलों पर क्‍या-क्‍या नहीं हुआ। और जब सब कुछ चुक गया तो नया करने के नाम पर भाई लोग उस शोक के माहौल में देशभक्ति गीतों के आर्केस्‍ट्रा कार्यक्रम दिखाने पर उतर आए।

जब भी ऐसे मौके आते हैं मीडिया अपनी सीमाएं, अपना दायित्‍व और अपना दायरा भूल जाता है। विवेक और बुद्धि की या तर्क और तथ्‍य की तो खैर उससे अपेक्षा करना भी बेकार है। चाहे वह मुंबई हमले का मामला हो या घरेलू मोर्चे पर होने वाली किसी अन्‍य घटना का। हर बार सूचना और सावधानी का तत्‍व ढूंढने के बजाय या तो सनसनी ढूंढी जाती है या फिर आंसू… और जब पूरा मामला कारोबार का ही हो तो सरोकार की बात कौन करे…

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