ओम वर्मा
शहर का एक नामी गिरामी पब्लिक स्कूल! जहाँ के एक बच्चे की सालाना फीस के बराबर तो देश की आधी से अधिक आबादी की प्रति व्यक्ति सालाना आय भी नहीं है! जहाँ बच्चे छींकते भी हैं तो अँगरेजी में और गालियाँ भी देते हैं तो अँगरेजी में।
तो हुआ यूँ कि उस दिन शिक्षिका, मेरा मतलब ‘टीचर’ को पोस्टमेन पर निबंध लिखवाना था। उनके पोस्टमेन शब्द बोलते ही बच्चों के चेहरे पर कुछ ऐसे भाव आए मानों आज के किसी उदीयमान युवा नेता से आज़ादी की लड़ाई में भगतसिंह और आज़ाद के अलावा तीन चार अन्य शहीदों के नाम या गांधी जी के चरखे पर तीन-चार वाक्य लिखने को कह दिया गया हो। “ये पोस्टमेन क्या होता है?” कई बच्चों के ऐसा पूछने पर टीचर स्पीकी कि पोस्टमेन उसे कहते हैं जो आपके घर लेटर्स और पार्सल वगैरह लाता है।
“पर यह काम तो कूरियर वाला करता है,” एक बच्चे ने प्रतिवाद किया।
“नहीं वह नहीं, पोस्टमेन मतलब यह- टीचर ने अपने साथ लाई निबंध की एक किताब खोलकर उसमें से खाकी यूनिफॉर्म पहने व डाक सामग्री से भरा थैला लटकाए एक शख्स का फोटो दिखाते हुए प्राइवेट कूरियर सेवा और ‘इंडियन पोस्ट’ में अंतर समझाने का प्रयास किया। चित्र देखते ही अधिकांश बच्चे बोले कि “यह पोस्टमेन है? यह तो रोज टीवी पर आता है। इसके बार में तो हम जानते हैं।‘’ इस पर मैडम जी को कुछ राहत महसूस हुई। पीछा छुड़ाने के उद्देश्य से बोलीं, ठीक है, पोस्टमेन के बारे में आप जो भी जानते हैं बताइए!” बच्चों के जवाब का सार यह था कि पोस्टमेन ‘सुख-दुख का संदेशवाहक’ नहीं बल्कि ऐसा इंसान है जो आपकी हैसियत आपकी डिग्रियों से नहीं बल्कि आपके मकान की दशा देखकर तय करता है। उपभोक्ता का मकान अगर चमकदार रंग से सुसज्जित है तो वह पुराने स्कूटर वाले को भी ‘लीजिए सर’ कहकर लखनवी तहजीब से डाक सौंपता है। जबकि एम.डी. एवं एम.फिल. डिग्री धारक डॉ. घनश्याम दास को ‘घनश्यो’ नाम से चिल्लाते हुए पुकारता है और डाक फेंककर चला जाता है। और तो और यह पोस्टमेन इतना ‘तमीजदार’ होता है कि डॉ. द्वारा मकान पर एक खास कंपनी का रंग करवा लेने पर अपने पूरे स्टाफ के साथ लालकिले पर फौज द्वारा ध्वज को दी जा रही सलामी की तरह उनको व उनके मकान को सलामी देता हुआ गुजरता है।
यानी पोस्टमेन आज ‘सुख-दुख का संदेशवाहक’ नहीं बल्कि डाक के उपभोक्ता के सुख-दुख का कारक है। इसलिए अगर आपकी कोई जरूरी डाक या पार्सल आने वाली है तो पहले आप अपने आवास की आकर्षक ढंग से रँगाई-पुताई करवा कर रखें वरना यह शासकीय सेवक दौलतराम को ‘दौलू’ बनाने में देर नहीं करेगा। डाक में कोई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हुआ और आप बगीचे में पानी दे रहे हैं तो वह फेंककर उन्हें गीला भी कर सकता है। कल्पना करें कि साबरमती आश्रम में बापू चरखा चला रहे हैं और उनके नाम की डाक आई है। डॉ. घनश्याम दास को ‘घनश्यो’ कहकर पुकारने वाला यही पोस्टमेन कुटियानुमा आश्रम में धोती पहने व्यक्ति को चरखा चलाते देखकर संवेदनाओं के बाजारीकरण के इस युग में क्या कहकर पुकार सकता है यह मैं आपकी कल्पना पर ही छोड़ता हूँ।
मजे की बात यह है कि पोस्टमेन डाक विभाग की नजर में भले ही आपके घर गंगाजल पहुँचाने वाला भगीरथ हो, निबंध की किताबों में भले ही ‘सुख-दुख का संदेशवाहक’ हो मगर अब बाजारवाद के युग में हमारी औकात का निर्धारक है। बच्चों को सामान्य ज्ञान की बातें सीखने समझने के लिए अब दादा-दादी की जरूरत नहीं है, क्योंकि दादा-दादी का रिमोट उनके हाथ में नहीं होता। लिहाजा उनके लिए ज्ञान का एकमात्र सोर्स टीवी और आई-पेड है। बेचारे दादा-दादी घर के किसी कोने में आपस में ही एक दूसरे को कहानियाँ सुना-सुनाकर अपनी स्मृतियाँ ताजी करते रहते हैं।