बड़ा सवाल यह है कि आखिर हम बच्चों की पढ़ाई लिखाई क्यों करवाते हैं। जाहिर है उनके भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए। वे पढ़ें-लिखें ताकि इस लायक बनें कि अपने पैरों पर खड़े होकर अपना भरण पोषण कर सकें, पारिवारिक दायित्व संभाल सकें। देश में जिस तरह से शिक्षा का प्रचार प्रसार हो रहा है उसके चलते यह बात अब पुरानी हो चली है कि लोग साक्षर होने के लिए पढ़ रहे हैं। वे अपना नाम लिख सकें या हस्ताक्षर कर सकें इसके लिए साक्षर हो रहे हैं।
नहीं, अब ज्यादातर मामलों में ऐसा नहीं हो रहा। अपना नाम लिखने या हस्ताक्षर करने की क्षमता हासिल करने के लिए पढ़ना केवल पकी हुई उम्र के वे लोग कर रहे हैं जो अपने समय में अन्यान्य कारणों से पढ़-लिख नहीं पाए। बदले हुए जमाने में अब उन्हें भी लगने लगा है कि कहीं जाकर अंगूठा लगाने और ऐसा करने पर अंगूठा छाप कहलाने की शर्म झेलने से तो बेहतर है कि अपना नाम लिखना सीख लें।
पर जैसे जैसे शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ रही है, गरीब से गरीब मां-बाप भी कोशिश करने लगे हैं कि उनका बच्चा पढ़ लिख जाए। हां, यह सही है कि तमाम सुविधाओं और सरकारी योजनाओं एवं प्रोत्साहनों के बावजूद 2011 की जनगणमना के मुताबिक भारत की साक्षरता दर 74.04 है और उसमें भी मध्यप्रदेश की साक्षरता दर 70.63 फीसदी है। यानी देश की जनसंख्या के हिसाब से सौ में से करीब 25 आदमी और मध्यप्रदेश की जनसंख्या के हिसाब से सौ में से करीब 30 आदमी अभी भी साक्षर नहीं हैं।
तो हमारी सरकारों और हमारे योजनाकारों के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं। पहली तो यह कि जो आबादी साक्षर होने से वंचित रह गई है उसे साक्षर बनाना। लेकिन दूसरी और आज की असली चुनौती यह है कि जिन्हें साक्षर बताकर, साक्षरता का लक्ष्य हासिल करने का श्रेय लिया जा रहा है उनकी शैक्षिक योग्यता को गुणवत्तापूर्ण और सार्थक बनाना।
कोई व्यक्ति यदि किसी कागज पर अंगूठा लगाने के बजाय अपने हस्ताक्षर भर कर लेता है तो वह जनगणना की प्रकिया में, साक्षरों की संख्या में एक संख्या की बढ़ोतरी भले ही कर दे, लेकिन क्या हम कहेंगे कि उसके हस्ताक्षर करने की क्षमता ने उसे इस योग्य भी बना दिया है कि उसके बूते वह कोई काम या रोजगार हासिल कर सके।
वास्तव में अब जरूरत इस बात की है कि हम बुनियादी शिक्षा की जरूरत से ऊपर उठकर भावी पीढ़ी को रोजगारोन्मुखी शिक्षा दें। और दुर्भाग्य से हमारी समूची शिक्षा प्रणाली में इस बात का अभाव नजर आता है। वहां किताबी शिक्षा पर जोर है, उस शिक्षा की व्यावहारिक उपयोगिता पर नहीं। मजाक में ही सही एक मित्र की कही हुई बात अकसर मुझे याद आती है कि आठवीं, नौवीं कक्षा में प्रमेय सिद्ध करने के नाम पर जाने कितनी मार खाई, साला वह प्रमेय जिंदगी में आज तक कोई काम नहीं आया।
दरअसल साक्षर बनाने या शिक्षा का अर्थ हमने केवल एक पाठ्यक्रम निर्धारित कर बच्चों को किताबी ज्ञान दिलवाने तक ही सीमित कर दिया है। उसका कहां व्यावहारिक अथवा रोजगारपरक उपयोग हो सकता है इस पर ध्यान ही नहीं जा रहा। एक और उदाहरण लीजिए। हम प्राचीन गौरव का बखान करते हुए संस्कृत की शिक्षा पर बड़ा रोना धोना करते हैं। लेकिन स्कूल में पढ़ाई जाने वाली संस्कृत रोजी रोटी के लिहाज से भी उपयोगी हो सकती है इस पर हमने बहुत कम काम किया।
यदि हम संस्कृत को रोजगार से जोड़ने की कोशिश करते तो वह भाषा भी संकट में नहीं आती और उसका प्रचार प्रसार भी होता। जैसे तमाम आधुनिकताओं के बावजूद आज भी बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा परिवार भी अपने धार्मिक और सामाजिक संस्कारों व कर्मकांडों के लिए किसी पंडित को बुलाता है। अब यदि संस्कृत शिक्षा के नाम पर ऐसे ही कुछ संस्कारों या अनुष्ठान से संबंधित मंत्र आदि सिखा दिए जाएं तो क्या वह व्यक्ति उस आधार पर अपनी छोटी मोटी आय अर्जित नहीं कर सकता?
मूल रूप से हमें आज जिस साक्षरता पर जोर देना चाहिए वह है काम की साक्षरता, कौशल की साक्षरता। आपको किसी भी शहर में 12-15 साल के ऐसे बच्चे मिल जाएंगे जो भले ही अपना नाम न लिख सकते हों लेकिन वे बहुत होशियारी से आपका स्कूटर ठीक कर देंगे। कहने को आप भले ही पोस्ट ग्रेजुएट हों लेकिन नल की टोंटी ठीक करने के लिए आपको प्लंबर को ही बुलाना होगा। क्या हम उस प्लंबर से कभी यह पूछते हैं कि उसने कौनसी कक्षा पास की है?
जब कोई किशोर बिना पढ़े लिखे अपने पारिवारिक वातावरण से या अपनी लगन से स्कूटर मैकेनिक का या प्लंबर का काम सीख सकता है और बगैर किसी से रोजगार की भीख मांगे अपना गुजारा कर सकता है तो फिर हम ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट बच्चों की ऐसी फौज क्यों तैयार होने दे रहे हैं जो उन पर हजारों लाखों करोड़ का जनधन खर्च होने के बावजूद हाथ में कटोरा लिए खड़ी है। जरा अपने आसपास नजर घुमा कर देखिए, आपको अपने नजदीक ही दर्जनों ऐसे बच्चे मिल जाएंगे जो कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद भी निरुद्देश्य भटक रहे होंगे। आप उनसे पूछें कि क्या कर रहे हो तो सिर्फ एक जवाब मिलता है- नौकरी की तलाश।
यहां एक किस्सा मुझे याद आता है, एक युवक किसी प्रभावशाली व्यक्ति के पास काम मांगने गया। उस व्यक्ति ने युवक से पूछा तुम क्या कर सकते हो? जवाब आया- मैं पोस्ट ग्रेजुएट हूं। फिर वही सवाल कई बार दोहराया गया, पोस्ट ग्रेजुएट हो वो तो ठीक है, लेकिन तुम कर क्या सकते हो? युवक के पास कोई जवाब नहीं था। आज हम बेरोजगारों की जो फौज देख रहे हैं उन्हें नौकरी तो चाहिए पर उनमें से ज्यादातर के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि वे कर क्या सकते हैं? (जारी)