ठीक एक माह पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की वैश्विक रिपोर्ट में, मध्यप्रदेश के शहर ग्वालियर को विश्व के ‘टॉप फाइव’ प्रदूषित शहरों में शुमार किया गया था। और पहले पांच में भी, ग्वालियर का स्थान दरअसल दूसरा ही था। पहला स्थान ईरान के जबोल शहर का था। जबोल के बाद के चारों शहर भारत के थे। इनमें ग्वालियर के अलावा इलाहाबाद, पटना और रायपुर का क्रमश: तीसरा, चौथा और पांचवां स्थान था। विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, अपनी धूल भरी आंधियों के लिए कुख्यात ईरान के जबोल शहर में हवा में तैरने वाले सूक्ष्म कणों की मात्रा 217.1 माइक्रोग्राम प्रति घनमीटर पाई गई जबकि ग्वालियर में यह मात्रा 176.2 माइक्रोग्राम, इलाहाबाद में 170.3 माइक्रोग्राम, पटना में 149.6 माइक्रोग्राम और रायपुर में 144.7 माइक्रोग्राम मिली।
हवा में प्रदूषण की मात्रा पीएम 2.5 पैमाने से मापी जाती है। इसके मुताबिक 2.5 माइक्रोग्राम से छोटे आकार के कण, पीएम यानी पर्टिकुलेट मैटर कहलाते हैं। जिस स्थान की हवा में इन सूक्ष्म कणों की मात्रा जितनी अधिक होती है, वह स्थान वायु प्रदूषण के लिहाज से उतना ही खतरनाक माना जाता है। यानी हमारे मध्यप्रदेश का ग्वालियर शहर, हवा के प्रदूषण के लिहाज से अत्यंत खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की उस रिपोर्ट को लेकर अभी माथापच्ची चल ही रही है कि, एक और नई रिपोर्ट ने मध्यप्रदेश के योजनाकारों को मुश्किल में डाल दिया है। परिवहन मंत्रालय ने हाल ही में दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों का दुर्घटना लेखजोखा जारी किया है। इसमें मध्यप्रदेश ने फिर ‘नाम कमाया’ है। यहां भी पहले पांच शहरों में, हमारा इंदौर शहर चौथे स्थान पर है।
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2015 में सड़क दुर्घटनाओं में 444 लोगों की मौत के साथ इंदौर ने यह स्थान पाया है। घायलों की संख्या के लिहाज से देखें तो इंदौर 4685 घायलों के साथ दिल्ली के बाद दूसरे नंबर पर रहा है। इस सूची में मुंबई, दिल्ली और चैन्नई क्रमश: पहले, दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं, जबकि इंदौर के बाद पांचवां स्थान बेंगलुरू का है।
वर्ष 2015 में मुंबई में कुल 23 हजार 468 सड़क दुर्घटनाएं हुईं जिनमें 611 लोग मारे गए और 4029 घायल हुए, दिल्ली में 8085 दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या सर्वाधिक 1622 और घायलों की 8258 रही। चैन्नई में 7328 दुर्घटनाएं हुईं जिनमें 886 लोगों ने जान गंवाई और 7320 घायल हुए। इंदौर में कुल दुर्घटनाएं 5873 हुईं जिनमें मरने वालों की संख्या 444 और घायलों की 4685 थी। बेंगलुरू में 4834 दुर्घटनाओं में कुल 713 लोग मारे गए और 4057 घायल हुए।
ग्वालियर और इंदौर की इन ‘उपलब्धियों’ को यहां रेखांकित करने का मकसद केवल आंकड़ों का उल्लेख भर कर देना नहीं हैं। दरअसल ये आंकड़े नहीं बल्कि, वे चेतावनियां हैं जो हमें लगातार मिल रही हैं, और साथ में यह भी उजागर कर रही हैं कि अभी तक तो हम नहीं चेते हैं। हमारे न चेतने का ही दुष्परिणाम है कि एक तरफ हमारी भावी पीढ़ी के फेफड़ों में जाने लायक हवा हमारे शहरों में नहीं बची है, दूसरी तरफ हमारी सड़कें दिन पर दिन मौत का अड्डा बनती जारही हैं।
ऐसे समय में जब हम ‘स्मार्ट सिटी’ जैसी योजनाओं पर अमल करने के लिए सारी ताकत झोंक रहे हैं, यह बताना जरूरी हो जाता है कि, दरअसल हमें ‘स्मार्ट’ बनने के लिए कौनसी दिशा चुनने की जरूरत है। भोपाल में पिछले दिनों स्मार्ट सिटी के स्थान चयन को लेकर जो हल्ला मचा, उसके पीछे बहुत बड़ा कारण यह था कि, उस योजना को यदि जमीन पर उतारा जाता तो सैकड़ों पेड़ों की बलि देनी पड़ती। वो इलाका जो इस समय यातायात के लिहाज से उतना पेचीदा नहीं है, और अधिक जानलेवा हो जाता। यह अच्छी बात है कि सरकार ने उस योजना को बदल दिया।
लेकिन क्या आज भी हमें स्मार्ट सिटी जैसी योजनाओं को सार्थक बनाने की दिशा में नहीं सोचना चाहिए? हमारी सोच स्मार्ट सिटी के नाम पर कुछ और ‘कथित अत्याधुनिक’ ढांचे खड़े कर देने और संचार आदि की सुविधाएं बढ़ा देने तक ही सीमित क्यों रहनी चाहिए? हम साफ हवा और सुरक्षित यातायात जैसी जरूरतों के साथ स्मार्ट सिटी की कल्पना क्यों नहीं कर सकते?
आज यदि मध्यप्रदेश के शहरों की सड़कें चलने के लिहाज से खतरनाक होती जा रही हैं, तो इसका पूरा दारोमदार हमारे शहरी नियोजनकर्ताओं पर है। कहने को हमारे पास इस काम के लिए अलग से विभाग और कई संस्थाएं हैं, लेकिन क्या सचमुच वे संस्थाएं ‘आदर्श शहरी नियोजन’ की तरफ ध्यान दे रही हैं? आज जिस तरह से इन सरकारी विभागों और चुनी हुई नगरीय संस्थाओं का काम चल रहा है, वह तो यही बताता है कि अधिकतम रुचि जमीनों की खरीद फरोख्त और ढांचे खड़े करने में है। इस सोच को तत्काल बदलने की जरूरत है। ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि, हम सारे ‘स्मार्ट शहरों’ में एक दो वर्ग किमी का इलाका ऐसा विकसित करें, जो शहर का ‘प्राणवायु केंद्र’ हो। हम शहर के दो तीन चौराहे या सड़कें ऐसी विकसित क्यों नहीं कर सकते, जिनके बारे में यह दावा किया जा सके कि वे ‘जीरो एक्सीडेंट जोन’ हैं। लेकिन सवाल है कि इतना कष्ट कौन ले? हमने जब फायदे की हांडी का माखन चखना सीख लिया है, तो नुकसान की ओखली में क्यों सिर डालें? रिपोर्टों का क्या है, वे तो बरसों से आती जाती रही हैं…