राकेश अचल
मेवाती घराने के मूर्धन्य गायक पंडित जसराज अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जिन्होंने उन्हें गाते हुए सुना है उनके कानों में लम्बे समय तक पंडित जसराज की खनकदार आवाज गूंजती रहेगी। 90 साल के पंडित जसराज भारतीय शास्त्रीय संगीत की उन गिनी चुनी हस्तियों में से एक थे जो अपने आप में शास्त्रीयता का साक्षात्कार कराती थी। आज उनका न होना एक ऐसा शून्य पैदा कर गया है जिसमें कोई गूंज-अनुगूंज नहीं बची है।
हिसार में 28 जनवरी 1930 को जन्मे पंडित जसराज को गाते-बजाते हुए 80 साल हो गए थे। पंडित जसराज मेवाती घराने से ताल्लुक रखते थे, जो संगीत का एक स्कूल है और ‘ख्याल’ के पारंपरिक प्रदर्शनों के लिए जाना जाता है। जसराज ने ख्याल गायन में कुछ लचीलेपन के साथ ठुमरी, हल्की शैलियों के तत्वों को जोड़ा। आलोचनाएं सहीं लेकिन अपने काम से पीछे नहीं हटे।
ग्वालियर से उनका बड़ा पुराना रिश्ता रहा, संगीत सम्राट तानसेन की समाधि पर होने वाले सालाना तानसेन समारोह के अलावा अन्य निजी कार्यक्रमों में भी वे ग्वालियर आते-जाते रहे, लेकिन ग्वालियर और मध्यप्रदेश सरकार को लेकर उनके मन में एक चुभन ताउम्र बनी रही।
पंडित जसराज को भारतरत्न छोड़कर लगभग सभी शीर्ष सम्मान मिले, लेकिन जिस सम्मान की हसरत उनके मन में थी वो उन्हें नहीं मिल पाया। पंडित जी तानसेन के नाम पर सालाना दिए जाने वाले सम्मान के अभिलाषी थे, लेकिन मध्यप्रदेश में सक्रिय शास्त्रीय संगीत की चौकड़ी ने कभी उनका नाम आगे ही नहीं किया। पंडित जी की पीढ़ी के अनेक लोग इस सम्मान के लिए चुने गए, बाद में तो अनेक कनिष्ठ कलाकारों को तानसेन सम्मान दिया गया, लेकिन पंडित जसराज को हर बार छोड़ दिया गया। उन्होंने खुलकर इसकी शिकायत कभी नहीं की लेकिन मुझसे निजी बात में वे अपनी इस टीस को कभी नहीं छिपा सके।
आज से कोई चार दशक पहले मात्र पांच हजार रुपये की राशि का तानसेन सम्मान आज दो लाख रुपये का है। पांच हजार की ये राशि पहले पचास हजार रुपये हुई फिर एक लाख और बाद में दो लाख। तानसेन सम्मान में राशि से ज्यादा नाम का महत्व था। 1980 में जब पहला तानसेन सम्मान पंडित कृष्ण राव शंकर पंडित को प्रदान किया गया था तो वे अपने पद्मविभूषण के सम्मान मिलने से भी अधिक खुश थे। मैंने ग्वालियर में तानसेन सम्मान पाकर पुलकित होते हुए हीराबाई बड़ोदकर, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, पंडित रामचतुर मलिक, पंडित नारायण राव व्यास, पंडित दिलीप चंद्र बेदी, उस्ताद निसार हुसैन खा, गंगूबाई हंगल, पंडित भीमसेन जोशी से लेकर पिछले साल 2019 में पंडित विद्याधर व्यास तक को देखा है। लेकिन पंडित जसराज का नाम इस फेहरिस्त में कभी शामिल नहीं किया गया।
संगीत में इस राजनीति से पंडित जसराज का मान कम नहीं हुआ, लेकिन तानसेन सम्मान की जूरी हमेशा के लिए सवालों के घेरे में बनी रहेगी। जसराज को तानसेन सम्मान मिलता तो सम्मान का मान कम नहीं होता, किन्तु न जाने कौन से अदृश्य हाथ थे जो पंडित जसराज को इस सम्मान से हमेशा पीछे धकेलते रहे। वे मुझे जब भी मिले मैंने उनसे इस राजनीति पर पड़ा परदा उठाने का आग्रह किया, लेकिन वे मर्यादा के धनी निकले, उन्होंने उसाँस तो भरी लेकिन कभी किसी को इसके लिए जिम्मेदार नहीं बताया, उंगली नहीं उठाई।
पंडित जी को सुनना अपने आपमें एक स्वर्गिक अनुभव था, वे जब आधी रात के बाद अपने प्रिय राग भैरव में रचना सुनाते तो लगता जैसे पूरा परिवेश पवित्र हो गया। वे ग्वालियर जब भी आये अपनी पत्नी श्रीमती मधुरा के साथ आये, वे उनका इतना खयाल रखती थीं की पूछिए मत। दोनों की जोड़ी जैसे स्वर्ग में ही बनी थी। मुझे पंडित जसराज की गायकी ही नहीं अपितु उनका पूरा व्यक्तित्व आकर्षित करता था। ख्याल गायकी के लिए एक कलाकार में जो भी अवयव चाहिए होते हैं वे सब भगवान ने पंडित जसराज को मुक्त हस्त से प्रदान किये थे। खनकदार आवाज, विशाल भाल और उठी हुई नासिका, गौर वर्ण उन्हें समपूर्ण बनाता था। वे मंत्रमुग्ध करने वाले गायक नहीं थे, अपितु वे खुद मंत्रमुग्ध होकर गाते थे। संगीत उनके लिए प्रभु की आराधना ही थी।
मुझे याद आता है की वर्ष 2012 में पंडित जसराज को पंडित कृष्णराव शंकर पंडित की स्मृति में जो सम्मान दिया गया था उसे भी उन्होंने उसी तरह ग्रहण किया था जैसे पद्मविभूषण सम्मान को किया था। उनमें विनम्रता कूट-कूट कर भरी थी। आपको बता दूँ कि उनके पिताजी पंडित मोतीराम जी स्वयं मेवाती घराने के एक विशिष्ट संगीतज्ञ थे। जैसा कि आपने पहले पढ़ा कि पं. जसराज को संगीत की प्राथमिक शिक्षा अपने पिता से ही मिली परन्तु जब वे मात्र 3 वर्ष के थे, प्रकृति ने उनके सिर से पिता का साया छीन लिया।
पंडित मोतीराम जी का देहांत उसी दिन हुआ जिस दिन उन्हें हैदराबाद और बेरार के आखिरी निज़ाम उस्मान अली खाँ बहादुर के दरबार में राज संगीतज्ञ घोषित किया जाना था। उनके बाद परिवार के लालन-पालन का भार संभाला उनके बड़े सुपुत्र अर्थात् पं० जसराज के अग्रज, संगीत महामहोपाध्याय पं० मणिराम जी ने। इन्हीं की छत्रछाया में पं० जसराज ने संगीत शिक्षा को आगे बढ़ाया तथा तबला वादन सीखा। पंडित जी के परिवार में उनकी पत्नी मधु जसराज, पुत्र सारंग देव और पुत्री दुर्गा हैं
आवाज़ ही पहचान है
पं० जसराज के आवाज़ का फैलाव साढ़े तीन सप्तकों तक है। उनके गायन में पाया जाने वाला शुद्ध उच्चारण और स्पष्टता मेवाती घराने की ‘ख्याल’ शैली की विशिष्टता को झलकाता है। उन्होंने बाबा श्याम मनोहर गोस्वामी महाराज के सान्निध्य में ‘हवेली संगीत’ पर व्यापक अनुसंधान कर कई नवीन बंदिशों की रचना भी की है। भारतीय शास्त्रीय संगीत में उनका सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान है, उनके द्वारा अवधारित एक अद्वितीय एवं अनोखी जुगलबन्दी, जो ‘मूर्छना’ की प्राचीन शैली पर आधारित है। इसमें एक महिला और एक पुरुष गायक अपने-अपने सुर में भिन्न रागों को एक साथ गाते हैं। पंडित जसराज के सम्मान में इस जुगलबन्दी का नाम ‘जसरंगी’ रखा गया है।
पंडित जसराज के पहले मैं पंडित भीमसेन जोशी का मुरीद था। जसराज जी के पास भी जोशी जी जैसी ही पुरुषार्थ में डूबी आवाज थी। पंडित जी के पीछे उनका बृहद रचना संसार है, देश-विदेश में उनके असंख्य शिष्य हैं, वे स्वयं एक संस्था थे। वे ऐसे दूसरे बड़े भारतीय संगीतज्ञ हैं जो अमेरिका में दिवंगत हुए हैं। उनसे पहले पंडित रविशंकर का निधन भी अमेरिका में हुआ था। पंडित जसराज का जस सदियों तक भारतीय शास्त्रीय संगीत को प्रेरित करता रहेगा। मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।