19 दिसंबर को तमाम टीवी न्यूज चैनलों के स्क्रीन नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में लगी आग से जलते नजर आए। सरकार की तमाम सफाई और शांति की अपीलों के साथ-साथ धरने और प्रदर्शन को रोकने के लिए पुलिस प्रशासन द्वारा लगाई गई निषेधाज्ञा के बावजूद लोग न सिर्फ सड़कों पर निकले बल्कि कई जगहों पर उन्होंने भारी पथराव और आगजनी करते हुए सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया।
नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में 19 दिसंबर को भारत बंद का नारा वामपंथी दलों ने दिया था और देश के राजनीतिक परिदृश्य में हाशिये से भी बाहर की स्थिति वाले इन दलों के इस आह्वान ने उन सभी लोगों को सड़कों पर उतरने और प्रदर्शन करने का मौका दे दिया जो संसद में यह कानून पारित हो जाने के बाद से ही इसका उग्र विरोध कर रहे हैं।
निश्चित रूप से यह केंद्र सरकार के लिए परेशानी का समय है। ऐसा नहीं है कि नागरिकता संशोधन बिल संसद में लाते समय सरकार ने इसके परिणामों और इस पर होने वाली प्रतिक्रियाओं का पूर्वानुमान नहीं लगाया होगा। सरकार ने हर संभावित प्रतिक्रिया के बारे में सोचा भी होगा और उससे निपटने के तौर तरीकों पर विचार भी किया होगा।
फिर सवाल उठता है कि, यदि सरकार को पूर्वानुमान था कि इस कानून को लेकर विरोध के स्वर उठ सकते हैं तो उसकी वे तैयारियां धरी की धरी क्यों रह गईं जो उसने ऐसे हर विरोध से निपटने के लिए की होंगी। आखिर क्या कारण रहे कि पूर्वोत्तर से शुरू हुई विरोध की इस आग ने धीरे धीरे पूरे देश को अपनी चपेट में ले लिया।
ऐसा लगता है कि इस मामले में सरकार एक बार फिर ‘अति आत्मविश्वास’ का शिकार हुई। उसे भरोसा रहा होगा कि छुटपुट टाइप का विरोध होगा और उससे ‘ठीक’ तरीके से निपट लिया जाएगा। लेकिन सरकार के पूर्वानुमानों के विपरीत जब विरोध छुटपुट के बजाय व्यापक और संगठित हो गया तो सरकारी मशीनरी के भी हाथ पांव फूल गए।
विरोध की स्थिति से सफलतापूर्वक निपट लेने का यह ‘अति आत्मविश्वास’ भी सरकार में यूं ही नहीं आ गया था। इससे पहले उसने जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटाने और राज्य के तीन हिस्से करने का कदम उठाकर इसका ट्रायल कर लिया था। यह फैसला करने से पहले जम्मू कश्मीर में वे सारे कदम उठा लिए गए थे जो किसी भी अप्रिय स्थिति से निपटने में सहायक होते। इन कदमों में सैलानियों, जिनमें अमरनाथ यात्री भी शामिल थे, को राज्य से बाहर निकालने से लेकर फील्ड में सेना और सुरक्षा बलों की भारी तैनाती और संचार के साधनों के नियंत्रित उपयोग जैसे उपाय शामिल थे।
इसमें कोई दो राय नहीं कि धारा 370 हटाने का कदम जितना ऐतिहासिक था उतना ही वह जोखिम भरा भी था। उस मामले में और भी ज्यादा उग्र प्रतिक्रिया की आशंका थी। और इसीलिये वहां पहले ही हर कदम फूंक फूंक कर उठाया गया। स्थिति यह है कि जम्मू कश्मीर में आज भी इंटरनेट और मोबाइल सेवाएं पूरी तरह बहाल नहीं हुई हैं और विपक्ष के तमाम बड़े नेता, जिनमें राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्री भी शामिल हैं, नजरबंद हैं।
धारा 370 हटाने के बाद जब एहतियाती उपायों के चलते वहां वैसी कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई या कि उतनी हिंसा नहीं हुई जितनी कि आशंका थी, तो सरकार का हौसला बढ़ा। शायद उसने मान लिया कि जब इतने बड़े फैसले के बाद होने वाली किसी भी विपरीत प्रतिक्रिया को वह सफलता से संभाल सकती है तो फिर क्यों न ऐसे दूसरे कदम भी उठा ही लिए जाएं।
और इसी गुमान में उसने आनन फानन में नागरिकता संशोधन बिल संसद में पेश किया और उसे पास भी करवा लिया। लेकिन 370 हटाने और नागरिकता संशोधन बिल लागू करने की स्थितियों में फर्क करने में उससे शायद चूक हो गई। दरअसल 370 एक राज्य से जुड़ा मामला था। वह राज्य जो लंबे समय से वैसे ही सेना और सुरक्षा बलों की निगरानी में चल रहा है। दूसरी बात यह कि भावनात्मक रूप से देश इस बात से सहमत था कि धारा 370 हटनी चाहिए। इसलिए उस फैसले का देश के अन्य भागों पर कोई विपरीत असर नहीं हुआ, उलटे लोगों ने मोटे तौर पर उसका स्वागत ही किया।
लेकिन नागरिकता संशोधन कानून में पेंच मोटा है। यह किसी एक राज्य या क्षेत्र के लोगों से नहीं बल्कि पूरे देश में मौजूद एक समुदाय विशेष के लोगों से वास्ता रखता है। पूर्वोत्तर में तो स्थिति और भी पेचीदा है। वहां यह मसला किसी समुदाय विशेष से भी नहीं बल्कि बाहर से आने वाले हर व्यक्ति के विरोध से जुड़ा है। क्योंकि वहां के लोगों को लगता है कि चाहे किसी भी धर्म या संप्रदाय के लोग हों, उनकी घुसपैठ स्थानीय लोगों के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृति हितों के साथ साथ उनकी पहचान पर भी संकट बनकर टूट रही है।
यही कारण रहा कि नागरिकता संशोधन कानून का विरोध पूर्वोत्तर से शुरू हुआ और धीरे धीरे वह और फैलता गया। इसी बीच सबसे बड़ी मुश्किल यह हुई कि इस कानून के विरोध का वायरस शिक्षा संस्थानों खासतौर से अल्पसंख्यक पहचान वाले शिक्षा संस्थानों में फैला और वहां से होता हुआ अन्य विश्वविद्यालयों तक जा पहुंचा। इसी दौरान जामिया मिलिया में हुई हिंसा और पुलिस कार्रवाई वह टर्निंग पाइंट बनी जिसका विस्तार आज हम देश के कई भागों में देख रहे हैं।
अब जो हालात हैं उनमें हमें यह मानना होगा कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध को देश के विभिन्न शिक्षा संस्थानों के छात्रों ने आगे बढ़ाया है और युवा पीढ़ी के सामने आते ही वे तमाम राजनीतिक दल उनके साथ हो लिए जो संसद में इस बिल को पास होने से रोकने में नाकाम रहे थे। अब छात्र और युवा पीढ़ी भी इस कानून के विरोध में है तो सरकार के चिरविरोधी खास विचारधारा वाले बुद्धिजीवी भी। और इसी बीच वे लोग भी हिंसा और आगजनी कर अपने हाथ सेंक रहे हैं जिनका काम ही ऐसे मौकों का फायदा उठाना है।
सरकार का यह कहना ठीक हो सकता है कि विपक्षी दल नागरिकता संशोधन कानून को लेकर लोगों में भ्रम और अफवाहें फैला रहे हैं। लेकिन राजनीति में आप विपक्ष से क्या अपेक्षा करेंगे? क्या आप इतने मासूम हैं जो यह मानते हैं कि सत्ता को झुकाने या दबाने का यह सुनहरा मौका विपक्ष हाथ से जाने देगा? वह वही कर रहा है जो इस देश की राजनीति में अब तक होता आया है और शायद आगे भी होता रहेगा… परिणाम भुगतना देश के भाग्य में पहले भी लिखा था, आगे भी लिखा रहेगा…