1973 में एक फिल्म आई थी ‘धर्मा’… इस फिल्म में प्रसिद्ध चरित्र अभिनेता प्राण ने डाकू का रोल किया था। फिल्म का एक दृश्य है जिसमें पुलिस अंधेरे में डाकू धर्मा के गिरोह को घेर लेती है। फिर गिरोह को चौंकाते हुए अचानक अपने साथ लाई गई फ्लैश लाइट्स ऑन कर देती है। मकान रोशनी में नहा जाता है और गिरोह को समर्पण की चेतावनी दी जाती है। लाइट्स की चकाचौंध से घिरे डाकू समर्पण का नाटक करते हैं लेकिन बाद में पुलिस पर हमला कर देते हैं। दोनों तरफ से गोलियां चलने लगती हैं। और इसी दौरान डाकू धर्मा, पुलिस को चुनौती देता हुआ एक डायलॉग बोलता है- ‘’इंस्पेक्टर बाबू बत्ती जलाकर धर्मा नहीं पकड़ा जाता…’’
यह दृश्य और यह संवाद मुझे छिंदवाड़ा कलेक्टर की ओर से वेलेंटाइन डे पर जारी एक आदेश के कारण याद आया। कलेक्टर जे.के. जैन का यह आदेश कहता है कि युवाओं द्वारा प्रेम दिवस (?) के रूप में मनाए जाने वाले 14 फरवरी यानी वलेंटाइन डे को मातृपितृ सेवा दिवस के रूप में मनाया जाए।
6 फरवरी को जारी इस फरमान में कहा गया है कि- ‘’बच्चों तथा युवा वर्ग में माता-पिता के प्रति पूज्य भाव प्रदर्शित करने की आवश्यकता को दृष्टिगत रखते हुए आगामी 14 फरवरी 2017 को छिंदवाड़ा जिले में मातृ-पितृ पूज्य दिवस के रूप में मनाया जाए। जिले की समस्त शैक्षणिक तथा सामाजिक संस्थाओं में यह कार्यक्रम विशेष रूप से मनाया जाए। घर, परिवार, गांव तथा शहरों एवं मोहल्लों में भी इस प्रकार के आयोजन कर इसे वृहद स्वरूप प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है।‘’
कलेक्टर महोदय के इस आदेश की प्रतिलिपि जिले के सभी सरकारी व गैर सरकारी स्कूलों, सभी सरकारी व गैर सरकारी कॉलेजों के अलावा जिला शिक्षा अधिकारी और जिला शिक्षा केंद्र के समन्वयक को भेजी गई है। इनसे अपेक्षा की गई है कि वे इस संबंध में आवश्यक कार्यवाही करें।
कथित नैतिकतावादी संगठनों के कुछ दुर्दांत एवं दुरुत्साही सदस्यों की हरकतों के चलते पिछले कुछ सालों से वेलेंटाइन डे सुर्खियों में रहता आया है। इस दिन मॉरल पुलिसिंग के नाम पर कुछ हुड़दंगी, नैतिकता के ठेकेदार बनकर निकलते हैं और बाग बगीचों या एकांत स्थानों पर बैठे, बतियाते युवा जोड़ों को अपना निशाना बनाते हैं। पिछले कुछ सालों से 14 फरवरी को ऐसी अनेक घटनाएं रिपोर्ट हो रही हैं जिनमें नैतिकता का सबक सिखाने के नाम पर लड़कियों की पिटाई और उनके कपड़े तक फाड़ देने जैसे‘साहसिक/नैतिक कारनामों’ को अंजाम दिया गया।
समाज युवा पीढ़ी को राह से भटकने या गलत राह पर जाने से रोके, ऐसा करने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन उसका तरीका यह नहीं हो सकता जैसा पिछले कुछ सालों से हुड़दंगियों की फौजें करती आ रही हैं। ऐसी हरकतें खुद को लाइम लाइट में लाने की कुछ संगठनों की चाल के अलावा कुछ नहीं है। इनका न तो नैतिकता से कोई लेना देना है और न ही समाज सुधार से।
लेकिन ताज्जुब तब होता है जब कानून व्यवस्था में लगी मशीनरी और उसके कर्ताधर्ता भी इसी अंदाज में काम करने लगते हैं। इससे कौन इन्कार कर सकता है कि बच्चों अथवा युवा पीढ़ी को माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों या बुजुर्गों के प्रति सम्मान भाव प्रदर्शित करना चाहिए। प्रशासन इसके लिए जागरूकता लाने या प्रेरणा जगाने का कोई अभियान चलाए, उसमें भी किसी को कोई ऐतराज नहीं होगा। लेकिन यदि यह काम किसी आदेश या निर्देश के जरिए किया जाएगा तो उसके सफल होने की गुंजाइश कम ही होगी।
यह सवाल उठाया जा सकता है कि क्या माता पिता की सेवा के लिए बच्चों को प्रेरित करने जैसे कदम का भी अब विरोध किया जाएगा? तो इसका जवाब है- नहीं! न तो समाज इसका विरोध करेगा और न ही इसका विरोध होना चाहिए। ऐतराज सिर्फ इस ‘प्रेरणा’ के तरीके पर है। पहली बात तो यह कि ऐसा कोई आदेश 14 फरवरी या किसी खास दिन ही क्यों लागू किया जाए? यह किसी और दिन भी हो सकता है। या फिर इसे पूरे साल भर क्यों नहीं चलना चाहिए?
दरअसल इस तरह का आदेश जारी किया जाना, एक अच्छे उद्देश्य के विरोध को खुद ही न्योता देने वाला कदम है। आप सहमत भले ही न हों, लेकिन यह सबको पता है कि इस खास दिन को युवा पीढ़ी किसी और रूप में मनाती है। तो जानबूझकर विवाद पैदा करने की कोशिश क्यों होनी चाहिए? जब भी इस तरह के कदम उठाए जाते हैं वे अनावश्यक विरोध भाव को पैदा करते हुए, एक अच्छे लक्ष्य के प्रति भी अनिच्छा या बगावत का वातावरण पैदा कर देते हैं। माता पिता की सेवा जबरन नहीं कराई जा सकती। उसके लिए तो भीतर से ही भाव जगाना होगा।
कॉलम की शुरुआत में बरसों पुरानी एक फिल्म का उदाहरण मैंने इसीलिए दिया। उसमें जिस तरह एक डाकू पुलिस बल को चुनौती देते हुए कहता है कि बत्ती जलाकर डाकू नहीं पकड़े जाते, उसी तरह प्रशासन के ऐसे कदमों पर क्या यह कहने को मन नहीं करता कि इस तरह के आदेशों से सेवा और समर्पण के भाव नहीं जगा करते।