डॉ. जयकुमार ‘जलज’, चंद्रकांत देवताले, डॉ. राजाराम तिवारी, डॉ. हरीश पाठक,रामकुमार मेहरा, रमेश गुप्ता ‘चातक’, डॉ. कमला शर्मा… ये वो नाम हैं जिनका अहसान शायद मैं जिंदगी भर नहीं उतार पाऊंगा… आज यदि मैं हिन्दी में कुछ लिख पा रहा हूं तो वह मेरे पिता और मेरे परिवार से मिले हिन्दी के संस्कारों के अलावा इन्हीं लोगों की बदौलत है…
बात 1979 से 81 के बीच की है। रतलाम का शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय,जहां मुझ जैसे विज्ञान के स्नातक ने, हिन्दी साहित्य में एम.ए. के लिए दाखिला लिया। और जो नाम मैंने ऊपर गिनाए उन्हीं गुरुजनों ने मुझे हिन्दी का संस्कार दिया और वो राह दिखाई जिस पर मैं आज चल पा रहा हूं।
36-37 साल बाद अपने गुरुजनों की याद इसलिए आई क्योंकि मंगलवार यानी ठीक 15 अगस्त के दिन मुझे एक दुखद खबर मिली। खबर थी मेरे गुरु और हिन्दी के सुविख्यात कवि चंद्रकांत देवताले के निधन की। वाट्सएप के एक संदेश ने मुझे बताया कि वे नहीं रहे। यकीन नहीं हुआ तो मित्रों से पूछताछ की और जवाब मिला- हां, खबर सही है, सर का 14 अगस्त की रात दिल्ली में देहावसान हुआ। अंतिम संस्कार भी वहीं होगा।
इसके बाद तो यादों की एक लकीर से खिंचती चली गई। मेरा सहमते हुए एम.ए. हिन्दी की कक्षा में जाना, बाकी सहपाठियों की तुलना में हिन्दी की कम पढ़ाई करने के कारण कक्षा में सवाल पूछने और जवाब देने से झिझकना और गुरुजनों द्वारा मेरा हौसला बढ़ाना। मुझे याद है पहली बार कक्षा में आमना सामना होने पर मैं काफी देर देवताले जी को सिर्फ देखता ही रहा था। किसी रोमन योद्धा जैसा व्यक्तित्व, चौड़ा माथा, आगे से सपाट लेकिन पीछे से लटके हुए लंबे बाल, चौतरफा रौब झाड़ती हुई ये मोटी मोटी आंखें… सच कहूं तो मुझे पहली नजर में वो आदमी बहुत डराता हुआ सा लगा…
कक्षा में परिचय के दौरान ही उन्होंने पूछा– तुम निर्मोही जी के बेटे और प्रकाश उपाध्याय के भाई हो ना… मेरे मुंह से सिर्फ इतना ही निकला- जी सर… उन्होंने कहा- ‘’तुम मुझे नहीं जानते लेकिन तुम्हारे पिताजी मुझे बहुत स्नेह करते थे, मैं इंदौर में तुम्हारे अहिल्यापुरा वाले मकान की लाइब्रेरी में भी आ चुका हूं और वहां से कुछ किताबें भी लेकर मैंने पढ़ी हैं।‘’
उस मुलाकात के बाद मेरे मन से उस इंसान के प्रति डर थोड़ा दूर हुआ, सोचा चलो,ये पिताजी और बड़े भाई को जानते हैं, ज्यादा पंगा नहीं होगा। देवताले जी हमें आधुनिक काव्य और आलोचना शास्त्र पढ़ाया करते थे। पढ़ाया क्या करते थे, पढ़ाने का अभिनय करते थे। आप इस वाक्य को अन्यथा या नकारात्मक ढंग से न लें। दरअसल उनके पढ़ाने का ढंग आम प्रोफेसरों जैसा न होकर नितांत अलग और अनौपचारिक था। कभी भी किसी बात को सीधे तरीके से नहीं कहना उनकी सबसे बड़ी कमी या खासियत थी। और बीच-बीच में लालबुझक्कड़ की मानिंद कुछ भी पूछ लेना उनकी आदत में शुमार था।
शायद यही कारण था कि उनकी क्लास में हमें साइमन द बुवा और कद्दू की सब्जी दोनों के बारे में एक-सी इन्फार्मेशन मिलती थी। हां, मैं सच कह रहा हूं। मैंने ज्यां पाल सार्त्र, नीत्शे, कामू और उनके अस्तित्ववाद, क्षणवाद और नास्तिकतावाद के बारे में रोचक ढंग से उन्हीं के मुंह से जाना। सार्त्र और साइमन द बुआ के रिश्तों के बारे में बताते समय उनकी आंखों में एक अजीब सी चमक आ जाया करती थी। वैसी ही चमक आप उनकी आंखों में उस समय भी देख सकते थे जब पढ़ाते-पढ़ाते अचानक वे बीच में पूछ बैठते- आप लोगों को कद्दू की सब्जी कैसी लगती है?
यह अप्रत्याशित सा सवाल हमें उलझन में डाल देता। और उधर देवताले जी,आधुनिक काव्य के प्रोफेसर का चोला उतारकर किसी शेफ का एप्रन पहने बड़ी तन्मयता से बताते, मुझे कद्दू की सब्जी बहुत पसंद है। इस वाक्य का विस्तार इस रहस्योद्घाटन के साथ होता कि मैं खुद कद्दू की सब्जी बहुत बढि़या बनाता हूं। आप लोग कभी घर आइए, मैं आपको कद्दू की सब्जी खिलाऊंगा। थोड़े से गुड़, इमली और मैथीदाने के साथ क्या स्वाद आता है, आह… यह कहते कहते उनके मुंह में कद्दू की सब्जी का पूरा स्वाद उतर आता और हम लोग बस उनका मुंह देखा करते… इस प्रसंग का अंत वे एक शरारती हंसी के साथ यह कहते हुए करते- लेकिन मैं केवल सब्जी ही बना सकता हूं, रोटी नहीं, यदि आप लोग घर आओ तो अपनी रोटियां साथ लेकर आना… मेरे लिए भी…
रतलाम छोड़ने के बाद अभी दो तीन साल पहले उनसे उज्जैन में मुलाकात हुई। मैं उनका घर तलाशता हुआ देर शाम वहां पहुंचा। वे डॉक्टर के यहां से अपनी दाढ़ निकलवाकर आए ही थे। लंबे रिश्ते के कारण गुरु और शिष्य के बीच पनपी अनौपचारिकता का ही नतीजा था कि मैं पूछ बैठा- सर, अब तो थोड़ी कमी आ गई होगी… उन्होंने कहा किसमें? मैं बोला- आप अक्कल दाढ़ जो निकलवा आए हो… जवाब में मिला वही चिरपरिचित ठहाका।
दर्द के कारण उन्होंने मुझे अगले दिन मिलने बुलाया। उस दिन वे मुझे आग्रहपूर्वक अपने घर के पास की होटल में ले गए। चलो तुम्हें भुट्टे की कचोरी खिलाता हूं। मैंने कहा, लेकिन आप को तो डॉक्टर ने मना किया है, जवाब में उसी जानी पहचानी बाल-शरारत के साथ आंख दबाकर वे बोले, यहां कौन डॉक्टर देखने आ रहा है…
यादें तो इतनी हैं कि कई दिनों लिखता रहूं तो भी खत्म न हों… देवताले जी आम जिंदगी में जितने सहज या चंचल थे, कविता में उतने ही गंभीर। नए प्रतिमानों और बिम्बों के साथ लिखी उनकी कविताएं आग उगलती सी लगती हैं। यह देवताले जी का ही बूता था कि वे समाज से सहज ही सवाल कर सकते थे- ‘आकाश की जात बता भैया…’ मुझे पक्का यकीन है, ऊपर जाकर इस समय भी वे ऊपर वाले से पूछ रहे होंगे ‘स्वर्ग की जात बता भैया…’
सर! आप बहुत याद आओगे…
shandar. badhai.