मध्यप्रदेश की कारोबारी राजधानी कहे जाने वाले इंदौर शहर में पिछले दिनों हुई एक घटना ने प्रदेश की राजनीति और नौकरशाही के रिश्तों के भीतर खदबदाते लावे को सतह पर ला दिया है। सर्विस रोड की समस्या को लेकर इंदौर की एक बस्ती में लोग नाराज थे और इंदौर नगर निगम के उपायुक्त रोहन सक्सेना उन्हें समझाने गए थे। समस्या हल करने को लेकर उत्तेजित भीड़ से बात चल ही रही थी कि अचानक एक व्यक्ति ने उपायुक्त को थप्पड़ जड़ दिए। घटना से स्तब्ध उपायुक्त कुछ देर तो समझ ही नहीं सके कि आखिर ये क्या हुआ और कैसे हुआ। जब तक लोग कुछ समझ पाते, थप्पड़ मारने वाला वहां से फरार हो चुका था।
बाद में प्रशासनिक स्तर पर घटना को लेकर हलचल हुई और भीड़ को उकसाने के आरोप में स्थानीय पार्षद सरोज चौहान, उनके पति व कुछ समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया। उसके बाद से इंदौर में राजनीतिक घमासान मचा हुआ है।
दरअसल प्रदेश में राजनेताओं और अफसरों के बीच समन्वय के अभाव और रिश्तों में खटास के चलते, न तो शासन व्यवस्था के काम ठीक से हो पा रहे हैं और न ही जन कल्याणकारी योजनाओं का ठीक से क्रियान्वयन हो रहा है। जिनका काम आपसी तालमेल से जनता की समस्याएं हल करना है, वे आपस में ही ऐसे उलझे हैं कि, समस्याएं हल करना तो दूर, खुद समस्या बन गए हैं।
इंदौर की घटना के दो बड़े पहलू हैं। और ये दोनों पहलू केवल इंदौर ही नहीं राज्य के कई शहरों में मौजूद मिल जाएंगे। पहला पक्ष राजनीतिक है। चुनी हुई संस्थाओं के प्रतिनिधि लगातार यह शिकायत कर रहे हैं कि अफसर उनकी नही सुनते। चूंकि राजनेता जनता की नुमाइंदगी करते हैं, इसलिए उन पर लोगों का सीधा दबाव होता है। जन प्रतिनिधि की उपलब्धता भी अफसर के बजाय आसान होती है, इसलिए भी लोग उसके पास जाकर अपनी शिकायत दर्ज करवाते हुए, यह उम्मीद करते हैं कि उसका जल्द से जल्द निराकरण होगा। ऐसे में यदि अफसरशाही का अड़ंगा लग जाए तो जाहिर है, नेता को अपने मतदाताओं के विरोध का सामना करना पड़ेगा। यानी काम नहीं हुए तो राजनीतिक जमीन ही दांव पर लग जाती है। चूंकि राजनीति ही उसकी रोजी रोटी है, इसलिए उसकी खातिर वह सारे हथकंडे अपनाता है। चूंकि जनता ही उसका हथियार है इसलिए वह जनता को कभी ढाल के रूप में तो कभी तलवार के रूप में इस्तेमाल करता है। काम न होने पर लोगों को सड़क पर ले आना ऐसा ही हथियार है। समस्या कोई भी हो, लोग जब सड़क पर होते हैं तो फिर कोई नहीं कह सकता कि वे क्या करेंगे। वे शांति से किसी की बात सुन भी सकते हैं और किसी की भी न सुनते हुए आग भी लगा सकते हैं। इसीलिए प्रशासन की कोशिश होती है कि लोग सड़क पर न आएं। नेता भी लोगों को सड़क पर ले आने वाले हथियार को ब्रह्मास्त्र की तरह ही इस्तेमाल करता है। क्योंकि उसे भी पता है कि यदि रोज रोज ऐसा किया तो इस हथियार की धार ही खत्म हो जाएगी।
इंदौर में राजनीतिक पक्ष का आरोप है कि चूंकि अफसर उनकी बात नहीं सुन रहे, इसलिए सड़क पर उतरना उनकी मजबूरी हो गया है। और जब सड़क मौजूद भीड़ को उत्तेजना की खुराक मिल जाए तो वह यह नहीं देखती कि सामने किसका गाल है और किसका माल। रोहन सक्सेना ऐसी ही उत्तेजना और निगम प्रशासन के खिलाफ पार्षदों में अंदर ही अंदर खदबदा रहे लावे का शिकार हुए। ऐसा एक न एक रोज होगा, इस आशंका से कोई अनजान नहीं था। रोहन सक्सेना न होते तो कोई और होता। स्थितियां यदि नहीं संभाली गईं तो यह भी तय है कि यह पहला और आखिरी थप्पड़ नहीं हैं। निगम के गलियारों में ऐसे कई हाथ गालों की तलाश में घूम रहे हैं। लिहाजा इस आग को तत्काल बुझाने की जरूरत है।
दूसरा मामला राजनीतिक दबंगई और गुण्डागर्दी का है। जन प्रतिनिधियों का दबाव और दखल तो समझ में आता है, लेकिन उनके नाम पर उनके चंगू-मंगू, अफसरों पर रौब गांठने लगें तो न तो उसे सहन किया जा सकता है और न ही उससे कोई व्यवस्था ठीक से चल सकती है। प्रदेश में पार्षद पतियों और सरपंच पतियों आदि की समस्या बहुत पुरानी है। पत्नी के नाम पर अपनी दुकान चलाने और गुंडागर्दी करने वाले पतियों की कहानियां समय-समय पर सामने भी आती रहती हैं। खुद मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान कई बार इस बात को सार्वजनिक मंचों से कह चुके हैं कि महिला जनप्रतिनिधियों को उनका काम करने दिया जाए। उनके पति उसमें कोई दखल न दें। लेकिन असली सत्ता महिला जनप्रतिनिधि की नहीं उनके पतियों की चलती है। जाहिर है, पार्षद पत्नी के नाम पर, कोई आदमी जाकर किसी अफसर को धमकाए, तो वह मुंह पर कहे या न कहे, लेकिन उसकी पहली प्रतिक्रिया यही होगी कि- तू कौन है भई? नगरीय निकायों के गलियारों में छुट्टे सांडों की तरह घूमने वाले इन लोगों पर सख्ती से लगाम लगनी ही चाहिए। इसके लिए उन महिला जनप्रतिनिधियों को भी जवाबदेह बनाया जाना चाहिए जो सिर्फ मोहरा बनकर जनप्रतिनिधि होने का दायित्व (?) निभा रही हैं।
गिरीश उपाध्याय