अब न तो गांधी जैसा आंदोलन है न आंदोलन करने वाले 

अब गांधी तो हैं नहीं। लेकिन आजाद भारत में आंदोलन तो हैं। और जो बात बाबा साहब ने संविधान सभा की मसौदा समिति की अंतिम बैठक में कही थी उसके विपरीत आज हिंसक आंदोलन भी हो रहे हैं और कथित गांधीवादी आंदोलन भी। तो फिर हम क्‍या समझें…?

हुकूमत की ज्‍यादतियों के खिलाफ गांधी ने जो तरीका अपनाया था क्‍या वह आज खारिज करने योग्‍य है? दरअसल गांधी ने आंदोलन का जो अनूठा तरीका न सिर्फ भारत को बल्कि पूरी दुनिया को दिया, वह अहिंसा और संयम पर आधारित था। लेकिन आजाद भारत के ज्‍यादातर आंदोलन आज हिंसक, आक्रामक और डर पैदा करने वाले हैं।

मुझे नहीं पता कि आंबेडकर जिन Constitutional Methods यानी संवैधानिक तौर तरीकों की बात कर रहे थे, उससे उनका आशय क्‍या था। क्‍योंकि अपने उस भाषण में आंबेडकर ने गांधी के तौर तरीकों को तो खारिज किया था, लेकिन यह उन्‍होंने भी नहीं बताया था कि यदि उनके सुझाए गए ये Constitutional Methods भी काम न आएं तो हम क्‍या करें।

यानी हमने संविधान बना दिया, कानून बना दिया, लेकिन संविधान और कानून ही यदि अपना काम न कर पाएं तो उनसे कैसे निपटा जाए, इसका कोई पुख्‍ता मैकेनिज्‍म हमारे पास नहीं है। और यदि है भी तो क्‍या उसके सूत्र उस जन या लोक के पास हैं जो संविधान और कानून का निर्माण करने वाली संस्‍थाओं का निर्माता है।

ऐसे सारे सूत्र सत्‍ता या सरकारों के ही हाथ में हैं, जबकि करीब-करीब सारे आंदोलन ही इनके खिलाफ होते हैं। अकसर यह सवाल उठता है कि यदि हम सरकार के किसी फैसले के विरोध में हों या विरोध में न भी हों, उससे असहमत ही हों, तो हम अपनी असहमति कैसे प्रकट करें?

यदि मैं सरकार के किसी फैसले से असहमत होते हुए, व्‍यक्तिगत तौर पर या किसी समूह के साथ, उसके खिलाफ कोई प्रदर्शन या आंदोलन करता हूं, तो मुझसे निपटने का तरीका सरकार के पास सिर्फ उसी कानून के अंतर्गत है, जो कानून हमने बुनियादी तौर पर अपराधों से निपटने के लिए बनाया है।

यानी हमारे पास न तो असहमति या आपत्ति को प्रकट करने की कोई पुख्‍ता संवैधानिक प्रक्रिया है और न ही ऐसी स्थिति से निपटने का कोई सम्‍मानजनक तरीका। ऐसे में असहमत, उत्‍तेजित या उग्र भीड़ की ओर से प्रस्‍तुत किया जाने वाला आज विकल्‍प है ‘मॉब लिचिंग’ और पुलिस की तरफ से कानून के कथित पालन या कानून की कथित रक्षा के लिए पेश किया जाने वाला विकल्‍प है, लखनऊ का ताजा ‘गोली मारो’ कांड।

गांधी ने जिन आंदोलनों का नेतृत्‍व किया, उनके लगभग सारे सूत्र उनके हाथ में रहते थे। आंदोलन को शुरू करने से लेकर उसे खत्‍म करने या बीच में ही रोक देने की ताकत और सामर्थ्‍य दोनों उनमें थे। लेकिन आज ऐसा नहीं दिखता।

गांधी में आंदोलन खड़ा करने का दम तो था ही, साथ ही उनकी योजना के विपरीत जाने पर या उसमें हिंसा होने पर वे उस आंदोलन को वापस ले सकने की ताकत भी रखते थे। यानी ‘टेक ऑफ’ और ‘लैंडिग’ के गियर गांधी के हाथ में होते थे। चौरीचौरा कांड इसका बेहतरीन उदाहरण है।

पर आज ऐसा कोई नेतृत्‍व नहीं दिखता। आज अव्‍वल तो वैसे आंदोलन होते नहीं और थोड़ा बहुत धरना, प्रदर्शन आदि होता भी है तो किसी भी नेता में इतना दम नहीं कि वह बेकाबू हो चुके आंदोलनाकरियों को चुप या शांत करवा कर उन्‍हें घर बिठवा सके।

आज आग लगाने के लिए भड़काने वाले तो बहुत मिल जाएंगे, मॉब लिंचर्स को उकसाने वाले भी मिल जाएंगे, लेकिन कोई ‘माई का लाल’ ऐसा नहीं मिलेगा जो आग लगाने या मॉब लिंचिंग पर उतारू भीड़ को एक आवाज में वापस बुला सके या उन्‍हें चुप करवा सके।

तो जब आंदोलन के सूत्रधार ही उसके सूत्रों या उसकी लगाम को थामे रखने की कूवत नहीं रखते, तो जाहिर है हम गांधीवादी तौर तरीकों वाले आंदोलनों के बारे में सोच भी कैसे सकते हैं। आंदोलनों के संदर्भ में एक और विडंबना देखिये कि जिस देश ने ऐसे ही व्‍यापक आंदोलनों के जरिये आजादी पाई हो, वह आजाद होने के बाद आंदोलनों को नाजायज मानने लगा है।

अगर हिंसा हो, तब तो किसी आंदोलन पर कार्रवाई की बात समझ में आती है, लेकिन आज तो सरकारें आंदोलनों के लिए जगह तक देने को तैयार नहीं हैं। जनता के मसलों को लेकर आवाज उठाने वालों को हड़काया जा रहा है, जन असुविधा की बात करके, धरना प्रदर्शन करने की जगहों को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित किया जा रहा है। फिर चाहे भोपाल का यादगारे शाहजहानी पार्क हो या दिल्‍ली का जंतर मंतर।

वैसे अब तो सरकारें खुद ही आंदोलन खड़े करने लगी हैं। ऐसे आंदोलन जो वास्‍तविक समस्‍याओं से ध्‍यान भटकाकर, ध्‍यान बंटाने का काम करते हैं। एक तरह से आंदोलन की काट, आंदोलन से ही की जा रही है।

गांधी ने कभी व्‍यक्ति के लिए आंदोलन नहीं किया और न ही किसी व्‍यक्ति की सत्‍ता को स्‍थापित करने की कोशिश की। गांधी के बाद यदि कोई आंदोलन हुआ जिसे सचमुच आंदोलन कहा जा सकता है तो वह जेपी आंदोलन था। उसके बाद से, यानी 1975 के बाद से, देश में वैसा कोई आंदोलन नहीं हुआ। मोमबत्तिया धरना, प्रदर्शनों को मैं आंदोलन की श्रेणी में नहीं रखता।

गांधी का आंदोलन स्‍वदेशी था। उनका विचार भी स्‍वदेशी था और उनके आंदोलनों के टूल्‍स भी स्‍वदेशी थे। आज स्‍वदेशी की भावभूमि पर तो कोई आंदोलन दिखता ही नहीं। भूमंडलीकरण को हावी करने वाली ताकतें ऐसे किसी स्‍वदेशी विचार को पनपते ही कुचल देती हैं जो उनके विस्‍तारवाद के लिए खतरा हो।

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