यह शीर्षक आपको बहुत अजीब सा या कुछ कुछ उलटबांसी जैसा लग रहा होगा। खास तौर से मैंने इसमें जो दो शब्द इस्तेमाल किए हैं वो आपके लिए नए या चौंकाने वाले हो सकते हैं। तो पहले आपको इन शब्दों ‘रामचरड़ा’ और ‘कचकड़ा’ के बारे में बता दूं। ये दोनों शब्द मैंने अपनी मालवी बोली से लिए हैं।
हमारे मालवा में ऐसी कथा या किस्सा जिसके बारे में लगे कि उसका कभी कोई अंत होगा ही नहीं वह ‘रामचरड़ा’ कहलाती है। हालांकि लिपि में यह शब्द जिस तरह लिखा गया है, उस तरह उच्चरित नहीं होता। चरड़ा शब्द आधा ल,ड़,र आदि को मिलाकर ध्वनित किया जाता है। इस तरह ‘रामचरड़े’ का उच्चारण ही इतना प्रभावी और असरकारी बन पड़ता है कि वह बिना कोई और व्याख्या के कई बातों को ध्वनित कर देता है। उसमें व्यंग्य भी है और संबंधित कथा से उपजी खीज या बोरियत का भाव भी।
दूसरा शब्द है ‘कचकड़ा’। कचकड़ा यानी ऐसा घटिया प्लास्टिक जो कतई टिकाऊ नहीं होता और जरा से दबाव से या तो उसमें हजारों सलवटें पड़ जाती हैं या फिर वह जगह जगह से चटक जाता है। इस प्लास्टिक की एक और खासियत होती है कि इसे यदि मसला या मरोड़ा जाए तो वह अजीब-सी और इरिटेशन पैदा करने वाली ‘कचड़-कचड़’ की आवाज करता है। शायद इसी आवाज के चलते देसी अंदाज में इसे ‘कचकड़ा’ नाम दिया गया होगा।
इस शब्द की उत्पत्ति अथवा किसी भाषा वैज्ञानिक व्याख्या में आपकी रुचि हो तो भाषा विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मैं आपका मन समझाने के लिए इतना ही कह सकता हूं कि इस शब्द का आविष्कार उस प्लास्टिक के कच्चे और कड़े दोनों होने के कारण भी हुआ हो सकता है। पर इन शाब्दिक व्याख्याओं की जुगाली से परे ‘कचकड़े’ की अपनी अलग सत्ता और अहमियत है। इस शब्द का आनंद भी आप इसका उच्चारण करके ही ले सकते हैं, जैसेकि रामचरड़ा शब्द का।
अब मुद्दे की बात… मुझे ये ‘रामचरड़ा’ और ‘कचकड़ा’ क्यों याद आए? दरअसल इन्हें याद करने के पीछे देश के सबसे ज्वलंत मुद्दे नोटबंदी का हाथ है। नोटबंदी को लेकर देश जिस हालत में फंसा है और रोज इस कहानी के नए-नए पहलू जिस तरह सामने आ रहे हैं, उससे यह नोटबंदी कथा भी किसी ‘रामचरड़े’ से कम नहीं लग रही।
ऐसा लगता है कि देश इस‘नोटबंदी के रामचरड़े’ से बाहर कभी निकलेगा ही नहीं। सरकार इस किस्से को जितना खत्म करने की कोशिश करती है, रक्तबीज की तरह उससे जुड़ा एक नया किस्सा उठकर खड़ा हो जाता है। नोटबंदी एक ऐसा दलदल बन गई है जिससे निकलने के लिए जितना जोर लगाया जा रहा है, पैर उतने ही धंसते चले जा रहे हैं।
दूसरी तरफ इस नोटबंदी के चलते हमारी पूरी अर्थव्यवस्था ‘कचकड़ा’ बनकर रह गई है। समझ ही नहीं आता कि उसका भविष्य कच्चा होगा या कड़ा। अभी तो इस व्यवस्था के चारों तरफ से कचड़-कचड़ की आवाज ही आ रही है। जिस तरह कचकड़े के डिब्बे को मसलने से पैदा होने वाली विचित्र सी ध्वनि देर तक सुने जाने पर इरिटेशन पैदा करती है, उसी तरह नोटबंदी के चलते मसली जा रही अर्थव्यवस्था से निकलने वाली आवाज भी इरिटेशन और गुस्सा पैदा कर रही है।
शुक्रवार को सरकार ने रही सही कसर यह कहते हुए पूरी कर दी कि वह जल्दी ही प्लास्टिक के नोट लेकर आएगी। इसके लिए तैयारियां शुरू भी कर दी गई हैं। यानी सोने की चिडि़या कहलाने वाले इस देश ने सोने, चांदी, तांबे, पीतल, गिलट और अल्यूमीनियम के सिक्के भी देखे और कागज के नोट भी। अब हम जल्दी ही प्लास्टिक के नोट भी देखेंगे।
करेंसी के कैशलेस सिस्टम में ‘प्लास्टिक मनी’ एक चर्चित शब्द है जो मुख्य रूप से क्रेडिट या डेबिट कार्ड के प्लास्टिक में होने के कारण प्रचलन में आया है। लेकिन अब तो हम सचमुच की प्लास्टिक मनी या प्लास्टिक करेंसी की ओर बढ़ रहे हैं। आप यह भी कह सकते हैं कि पेपरलेस गवर्नमेंट के जमाने वाली यह सरकार केशलेस इकॉनॉमी के साथ साथ पेपरलेस करेंसी की ओर बढ़ रही है। सचमुच देश नई क्रांति की ओर अग्रसर है।
कहा जाता है कि हमारे यहां अढ़ाई दिन की बादशाहत मिलने के बाद एक भिश्ती ने चमड़े के सिक्के चलवा दिए थे। उसका वह काम आज भी एक मुहावरे के रूप में अकसर याद किया जाता है। नोटबंदी से कैशलेस सोसायटी और डिजिटल ट्रांजैक्शन की ओर बढ़ रही वर्तमान सरकार को भी हो सकता है भविष्य में ‘प्लास्टिक करेंसी’ चलाने के लिए याद किया जाए।वैसे 500 और 1000 की नोटबंदी के बाद सरकार जो 2000 रुपए का नोट लेकर आई है उसके बारे में यह कहा जा रहा है कि वह चूरन की पुडि़या में निकलने वाले नकली नोट जैसा दिखता है और टिकाऊ नहीं लगता।
उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य में आने वाले प्लास्टिक के नोट, नोट जैसे ही लगेंगे और टिकाऊ भी रहेंगे। इस उम्मीद का पूरा होना इसलिए जरूरी है क्योंकि सरकारें तो आती जाती रहती है, देश की मुद्रा बरसों बरस चलती है। मुद्रा सिर्फ विनिमय का माध्यम ही नहीं बल्कि शासन और शासित के बीच विश्वास का सेतु भी है, इसमें आने वाली बारीक-सी दरार भी देश के लिए घातक है।