भरोसे का संकट इन दिनों सबसे बड़ा संकट है। और इस मामले में सबसे ज्यादा जिस संस्था पर उंगली उठ रही है वह है मीडिया। आज का पत्रकार चाहता है कि वह जो भी कह रहा है वह भले ही सच हो या न हो, उसमें भले ही तथ्य हों या न हों लेकिन लोग उसे सही मानते हुए उस पर भरोसा करें।
पत्रकारिता में आए इस बदलाव में टीवी मीडिया की बड़ी भूमिका रही है। पहले का पत्रकार यह सोचकर काम करता था कि लोग उसकी बात पर भरोसा करेंगे इसलिए उसकी जिम्मेदारी है कि वह लोगों तक सही बात पहुंचाए। पर आज का पत्रकार इस बात का दबाव बनाता है कि वह जो कह रहा है उसे ही सही माना जाए।
मीडिया में अब सही गलत का फर्क मिट गया है। या यूं कहें कि बताई जाने वाली बात सही है या गलत इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। चारों तरफ लोगों को बस खबरें पटकने का जैसे दौरा पड़ा हुआ है।
हम खबर दिखाते या बताते नहीं खबरें पटकते हैं। और पटकने का यह सिलसिला इतनी तेजी से चलता है कि उसमें इस बात की भी चिंता नहीं की जाती कि पिछली जो बात हमने पटकी थी उसका अगली पटकी जाने वाली बात से कोई लेनादेना है भी या नहीं।
पत्रकारिता का पेशा हमेशा से भरोसे पर ही चला है और भरोसे पर ही जिंदा रहा है। लेकिन अब लोग भरोसे के नाम पर अड़ीबाजी करने लगे हैं। आपके लिए यह तय करना कठिन है कि जो बात कही, बताई या दिखाई जा रही है उस भरोसा करें या न करें।
और ऐसा नहीं है कि यह सब पत्रकारिता के साथ ही हो रहा हो। भरोसे का यह संकट समाज के हर क्षेत्र में दिखाई दे रहा है। भरोसा खत्म कर दिए जाने या सच को भी संदिग्ध बना दिए जाने से, उन लोगों को बहुत सुविधा मिल जाती है जो भरोसे की आड़ लेकर सारा खेल करते हैं।
आप पिछले आठ दस सालों का घटनाक्रम उठाकर देख लीजिए, हर स्तर पर यह कोशिश हो रही है कि व्यक्ति हो या संस्था उस पर से भरोसा खत्म कर दिया जाए। और जब विश्वास का संकट होगा तो सच और झूठ का फर्क भी महसूस नहीं किया जा सकेगा। तब सच को झूठ और झूठ को सच करने में आसानी होगी और यही हो रहा है।
दूसरों की छोडि़ए, आज तो खुद पर भी भरोसा खत्म होता जा रहा है। एक उदाहरण लीजिए। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में कुछ मामलों को लेकर ऐसे प्रसंग आए जिसमें चीफ जस्टिस से लेकर अनेक वरिष्ठ जजों ने कई मामलों से खुद को अलग कर लिया।
आज के हालात और प्रचलित परंपरा के अनुसार हो सकता है कि न्यायाधीशों का ऐसा करना उचित भी हो और उन्हें नैतिक धरातल भी देता हो। लेकिन इन घटनाओं को लेकर मैं हमेशा सोचता रहा हूं कि क्या ऐसा किया जाना, हमारी सर्वोच्च संस्थाओं में बैठे लोगों का, खुद के प्रति ही भरोसा न होने के संकट का परिचायक नहीं है?
सवाल उठता है कि हमारा देश, हमारा लोकतंत्र और हमारी संवैधानिक संस्थाएं आजादी के बाद निरंतर नैतिक रूप से मजबूत हो रही हैं या कमजोर। संस्थाओं का नेतृत्व करने वाले या उनका प्रतिनिधित्व करने वाले लोग नैतिक या आत्मबल के लिहाज से मजबूत हुए हैं या असहाय।
याद करिए पंच परमेश्वर कहानी को। 1916 यानी आज से सौ साल से भी ज्यादा पहले लिखी गई अमर कथाकार प्रेमचंद जी की उस अमर कहानी में व्यक्ति और संस्थाओं के द्वंद्व और उस द्वंद्व से ऊपर उठकर दायित्व भाव एवं विश्वास के उदात्त स्वरूप को स्थापित करने की जो कोशिश है वह बेमिसाल है।
तमाम दोस्ती और तमाम अदावत होने के बावजूद अलगू चौधरी और जुम्मन शेख समय आने पर न्याय के पक्ष में खड़े होकर निष्पक्ष फैसला सुनाते हैं। सारी दुनिया जानती थी कि अलगू चौधरी और जुम्मन शेख के बीच कैसे संबंध हैं। और दूसरों की छोडि़ए, खुद वे दोनों भी जानते थे कि उनके बारे में लोग क्या धारणा रखते हैं।
चाहे अलगू चौधरी हो या जुम्मन शेख, जो भी पंच की कुर्सी बैठा, उसे अच्छी तरह पता था कि वह जो भी फैसला करेगा, उसे दोनों की दोस्ती या दुश्मनी की कसौटी पर ही कसा जाएगा,लेकिन इसके बावजूद वे पंच के आसन पर बैठे और न्याय किया।
ऐसा क्यों हुआ? सिर्फ इसलिए कि दोनों को खुद पर भरोसा था और खुद से ज्यादा उस पंच नाम की संस्था पर भरोसा था। भरोसा इस बात का कि जमाना उनके आपसी रिश्तों के बारे में चाहे जो कहता रहे, चाहे जो मानता रहे, पंच की कुर्सी पर बैठकर वे जो करेंगे उस पर उंगली नहीं उठाई जा सकती।
वे चाहते तो आज के न्यायाधीशों की तरह कह सकते थे कि इस मामले से मेरे हित-अहित जुड़े हैं, हमारे बीच दोस्ती या दुश्मनी जगजाहिर है, इसलिए मैं इस मामले में पंच बनने के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता या इस मामले से खुद को अलग करता हूं। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
क्या आज हमारे सर्वोच्च पदों पर बैठे लोग इतने आत्मविश्वास और नैतिक बल के साथ कह सकते हैं कि उनका किसी से कोई भी रिश्ता हो, लेकिन कुर्सी पर बैठकर वे जो भी फैसला करेंगे वह सिर्फ और सिर्फ न्याय हित या समाज हित में होगा?
प्रेमचंद की वह कहानी और अलगू चौधरी व जुम्मन शेख के वे किरदार, आज सौ साल बाद भी न्याय और नैतिकता की मिसाल हैं। जबकि वे साधारण ग्रामीण से ज्यादा कुछ नहीं थे। क्या आज शीर्षस्थ पदों पर बैठे लोग समाज को वैसा भरोसा दे सकते हैं? यदि नहीं, तो सोचिए, हम किस दिशा में जा रहे हैं।