मध्यप्रदेश सरकार द्वारा नर्मदा नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने और उसे सदैव प्रवहमान रखने के इरादे से इन दिनों प्रदेश में ‘नमामि देवि नर्मदे: नर्मदा सेवा यात्रा’ निकाली जा रही है। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने 11 दिसंबर को नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक से इस यात्रा का शुभारंभ किया था।
इसी यात्रा को लेकर नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता और पर्यावरण कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने गंभीर आरोप लगाया है। पाटकर का कहना है कि नर्मदा सेवा यात्रा दरअसल नर्मदा का व्यावसायिक उपयोग करने के लिए निकाली जा रही है। आने वाले समय में इसका सीधा लाभ अंबानी और अडानी सहित अन्य उद्योगपतियों को मिलेगा। यह एक तरह से उद्योगपतियों को एक प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराने की साजिश है।
पाटकर का यह भी कहना है कि नर्मदा किनारे की उपजाऊ जमीन उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को देने की तैयारी है। मंडला जिले के चुटका में नर्मदा किनारे ही परमाणु संयंत्र के साथ 35 थर्मल पॉवर प्लांट प्रस्तावित हैं, जिनके लिए पानी नर्मदा से ही लिया जाएगा। भविष्य में ये बिजलीघर नर्मदा नदी के लिए भारी प्रदूषण का कारण बनेंगे। प्रदेश के कई बड़े प्रोजेक्ट नर्मदा नदी के किनारे ही आ रहे हैं, जिसका लाभ उद्योगों को मिलने वाला है।
मेधा पाटकर के साथ ही मौजूद पर्यावरणविद् डॉ. सुभाषचंद्र पांडे ने कहा कि यात्रा के दौरान नर्मदा के किनारे करोड़ों रुपए की लागत से जिन फलदार वृक्षों को लगाने की बात कही जा रही है वो वृक्षों की श्रेणी में ही नहीं आते हैं। संतरा, नींबू और कटहल आदि के जो फलदार वृक्ष लगाने का फैसला हुआ है, उन्हें जिंदा रखने के लिए रसायनिक खाद व कीटनाशकों का उपयोग किया जाएगा, जो नदी के लिए नुकसानदेह साबित होगें। ये वृक्ष नदी किनारे होने वाले मिट्टी के कटाव को रोकने में भी सक्षम नहीं है। इसके अलावा नदी के दोनों तरफ ग्रीन बेल्ट में 8 मीटर चौड़ा रास्ता बनाने से नदी की जैव विविधता प्रभावित होगी।
निश्चित रूप से मेधा पाटकर और सुभाष पांडे ने जो सवाल उठाए हैं उनके पीछे तर्क और कारण हो सकते हैं। चूंकि मेधा पाटकर और उनका संगठन ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ कई सालों से नर्मदा को संरक्षित करने की दिशा में काम कर रहा है, तो यह भी माना जाना चाहिए कि वे लोग जो कह रहे हैं उसमें जमीनी सचाई या पुख्ता सूचनाओं का अंश जरूर होगा।
लेकिन इस तरह से सरकार के हर कदम को संदेह की दृष्टि से देखना या उसे पूरी तरह खारिज कर देना भी ठीक नहीं है। नर्मदा न तो किसी सरकार की बपौती है और न ही किसी राजनीतिक पार्टी की। यह पूरे प्रदेश की जीवनरेखा है और हमारी जीवन रेख बने या बिगड़ इससे हमारा भी सरोकार होना चाहिए।
अगर मुझे ठीक ठीक याद है तो एक बार तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने नर्मदा घाटी के विस्थापितों के पुनर्वास और पुनर्बसाहट का काम नर्मदा बचाओ आंदोलन के लोगों को ही देने की पेशकश की थी। उनका कहना था कि सरकार पर यदि यह काम ठीक से अंजाम न देने का आरोप है तो आंदोलन के लोग खुद इस काम को देखें। लेकिन आंदोलन ने वह दायित्व लेने से इनकार कर दिया था।
मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि दिग्विजयसिंह का प्रस्ताव सही था या गलत या कि आंदोलन का फैसला तार्किक था या अतार्किक। लेकिन इतना जरूर है कि किसी भी समस्या को यदि हम सिर्फ समस्या की दृष्टि से ही देखते रहेंगे तो उसका समाधान कभी नहीं निकल पाएगा।
जरूरत इस बात की है कि आलोचना के साथ साथ हमारी दृष्टि समस्या के यथासंभव समाधान पर भी हो। सरकारें यदि अपने रवैये को और आंदोलनकारी अपनी धारणाओं को ही सही मानने पर अड़े रहेंगे तो जल,जंगल और जमीन का वही हश्र होगा जो आज मध्यप्रदेश की समूची प्राकृतिक संपदा का हो रहा है।
मुझे पता नहीं कि यह संभव हो पाएगा अथवा नहीं… लेकिन क्या ऐसा नहीं होना चाहिए कि इस ‘सेवा यात्रा’ में नर्मदा बचाओ आंदोलन भी पूरी सक्रियता से शामिल हो। खुद मेधा पाटकर मुख्यमंत्री से मिलकर पेशकश करें कि यदि वास्तव में यह अभियान मां नर्मदा को बचाने और उसे प्रदूषण रहित बनाने का है तो इसमें हम भी सहभागी हैं। यात्रा के दौरान आंदोलन के कार्यकर्ताओं को जहां भी कुछ गलत होता लगे, उस पर सरकार का ध्यान आकर्षित करें। टकराव के बजाय गांधीवादी और सत्याग्रही तरीके से अपनी बात रखते हुए नर्मदा के लिए जन जागरण करें।
आप यदि प्रेस कान्फ्रेंस करके सिर्फ और सिर्फ सरकार के कदमों को गलत ठहराते हुए उसे गाली ही देते रहेंगे तो इससे किसी का भला नहीं होने वाला। सत्ता अपने फैसलों को आसानी से नहीं बदला करती। दूर रहकर गाली देने से अच्छा है कि आप उनके पास जाकर आंख में आंख डालकर बताएं कि चीजों को ऐसे नहीं ऐसे भी किया जा सकता है।
मुख्यमंत्री ने विधानसभा में बयान देते हुए नर्मदा सेवा यात्रा के लिए विपक्ष को भी न्योता दिया है। उन्होंने कहा है कि यह अभियान सच्चे अर्थों में जन अभियान होना चाहिए। यदि खुद ‘जन’ ही इस अभियान से नहीं जुड़ेंगे या कारण-अकारण दूरी बनाए रखेंगे तब तो निश्चित रूप से यह केवल और केवल भाजपा या सत्ता का अभियान ही बनकर रह जाएगा। और इसमें दोष सत्ता का नहीं जन और जनआंदोलनों का अधिक होगा क्योंकि वे खुद ही इसमें शामिल नहीं हो रहे होंगे।