एक तरफ पश्चिम में परिवार नाम की इकाई को पुनर्स्थापित करने के उदाहरण नजर आ रहे हैं और दूसरी तरफ पूरब में बुनियादी सामाजिक इकाईयों को प्रतिष्ठा देने वाले भारत में यह संस्था लगातार कमजोर होती जा रही है। जॉइंट फैमिली से न्यूक्लियर फैमिली की ओर जाते जाते हमने अपने सामाजिक ढांचे में ऐसा न्यूक्लियर विस्फोट कर डाला है कि जिसने हमारे रिश्तों के मजबूत ताने बाने को ही ध्वस्त कर दिया है।
अब ज्यादातर परिवारों की कहानी करीब करीब एक सी है। बच्चों के बड़े हो जाने के बाद अकेले रहना बुजुर्ग मां बाप की नियति बन गई है। पढ़ लिखकर बच्चे या तो विदेश चले जा रहे हैं या फिर देश में ही अपने मां बाप से दूर किसी और शहर में जाकर नौकरी कर रहे हैं। नौकरियों ने ऐसा तिलिस्म बुना है, जिसमें बच्चों के पास अपने मां-बाप और घर परिवार तक के लिए समय नहीं है।
चंडीगढ़ में हमारे एक परिचित का सुनाया प्रसंग यहां याद आता है। उनके घर के निकट एक बहुत धनी मानी परिवार था। सामान्य लोगों के रहने लायक चार मकान समा जाएं, इतनी बड़ी कोठी थी उनकी। घर के मुखिया का निधन हो चुका था और उस विशालकाय कोठी के लॉन में 70 साल से भी अधिक उम्र की महिला अकेली बैठी रहती थीं। बच्चे विदेश में थे।
एक बार उस कोठी में कुछ चहल पहल दिखी। पहले तो कुछ अनहोनी का खुटका हुआ लेकिन बाद में पता चला कि विदेश से बेटे बहू आए हैं। एक दिन सुबह देखा तो बुजुर्ग मां और बेटे में कुछ कहासुनी सी हो रही थी। मां उलाहना देते हुए बेटे से कह रही थी तू तो मुझे याद ही नहीं करता। बार बार यह उलाहना सुनकर झल्लाए बेटे ने जवाब दिया- कैसे नहीं करता पिछले साल तुम्हारे बर्थडे पर कूरियर से बुके नहीं भिजवाया था क्या मैंने?
अब मां इस सवाल का क्या जवाब देती… कैसे समझाती उस बेटे को कि कूरियर से फूल तो आ सकते हैं लेकिन बेटे को सीने से लगा लेने का अहसास तो कोई बुके नहीं दे सकता ना… मैं मानता हूं कि यह स्थिति बहुत धर्मसंकट की है। एक तरफ युवा पीढ़ी के अपने सपने हैं, उनका अपना कॅरियर है और दूसरी तरफ मां-बाप और परिवार की संवेदनाएं… आज दोनों की दिशाएं अलग अलग हो चली हैं।
लेकिन तमाम उपलब्धियां हासिल करने के बाद उम्र के आखिरी पड़ाव में जब परिवार की जरूरत महसूस होती है, तब लगता है शायद हमने बहुत कुछ खो दिया। परिवार क्या होता है और उसकी जिम्मेदारी क्या होती है इसका उदाहरण खुद पेप्सीको की निवर्तमान सीईओ इंदिरा नूयी ने एक इंटरव्यू में दिया था।
2001 में नूयी को कंपनी में बहुत बड़ी जिम्मेदारी मिली जब उन्हें पेप्सिको का प्रेसीडेंट बनाया गया। जिस समय उन्हें यह सूचना मिली वे अपने दफ्तर में ही थीं। वे बताती हैं-‘’वह रात के करीब साढ़े नौ बजे का समय रहा होगा। उन्हें एक फोन के जरिये यह महत्वपूर्ण सूचना दी गई।‘’ मां भी उन दिनों उनके पास आई हुई थीं।
इंदिरा जब घर लौटीं तो बहुत खुशी के साथ उन्होंने मां से कहा कि आज मेरे पास आपके लिए बहुत अच्छी खबर है। लेकिन मां ने वह खबर सुनने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। वे इंदिरा से बोलीं, वो सब तो ठीक है, पहले यह सुनो की घर में दूध नहीं है, जाओ बाजार से दूध ले आओ। इंदिरा ने मां से कहा कि राज (इंदिरा के पति) घर पर ही हैं, उनसे क्यों नहीं मंगा लिया… इस पर मां ने कहा वह थका हुआ है।
इंदिरा ने कुछ और कहना चाहा लेकिन मां ने एक न सुनी और इंदिरा को हार कर दूध लाना ही पड़ा। बाद में मां ने इंदिरा से कहा- ‘’तुम्हारे पद की अहमियत और उसका रुतबा वहीं तक ठीक है, जहां वह जरूरी है। घर में पहले तुम एक पत्नी और मां हो। अगर परिवार को दूध की जरूरत है तो वह तो तुम्हें लाना ही होगा।‘’
इस उदाहरण में अतिशयोक्ति खोजी जा सकती है। इसमें फेमिनिज्म के तर्क वितर्क ढूंढे जा सकते हैं, लेकिन गौर करेंगे तो पाएंगे कि ऐसी तमाम बातों के बावजूद इसमें परिवार नाम की इकाई को बचाने का सूत्र छुपा है। हां, यह बात बिलकुल सही है कि यह जिम्मेदारी सिर्फ महिला की नहीं पुरुष की भी है।
सेरेना विलियम्स ने कहा-‘’मैं अपनी बेटी के लिए अच्छी मां साबित न हो पाने के डर में जी रही हूं।‘’ यह बयान अपने आप में परिवार के प्रति जिम्मेदारी और बच्चों के प्रति अभिभावक, खास तौर से मां के दायित्व की ओर इंगित करता है।
यहीं एक दूसरा किस्सा याद आता है। एक मराठी दैनिक में लेख छपा था जिसमें अनाथ बच्चों के लिए संस्था चलाने वाली महिला के अनुभव थे। उस महिला के मुताबिक एक बार उसके पास युवा पति पत्नी बच्चा गोद लेने के लिए आए। इस युवा दंपति की उम्र भी कोई ज्यादा नहीं थी। दोनों किसी आईटी कंपनी में नौकरी करते थे और उनका वेतन भी अच्छा खासा था।
संस्था चलाने वाली महिला ने जब उनसे बच्चा गोद लेने का कारण पूछा तो उस युवती ने जवाब दिया कि बाकी तो कोई परेशानी नहीं है, लेकिन बच्चा पैदा करने के दौरान उसे लंबी छुट्टी लेनी होगी और उस कारण उसे काफी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ेगा। युवती ने बिना किसी लाग लपेट के बताया कि इतना बड़ा आर्थिक नुकसान वह नहीं उठाना चाहती इसलिए सोचा कि बच्चा गोद ले लिया जाए।
यह सुनकर संस्था चलाने वाली महिला दंग रह गई। उसने दंपति को बच्चा देने से इनकार करते हुए कहा कि जब आपके पास बच्चा पालने और उसकी देखभाल करने का समय ही नहीं है तो आप बच्चा लेकर क्या करोगे? आपके पास खरीदने के लिए पैसा होगा लेकिन बच्चा कोई खिलौना नहीं जो उठाया घर ले आए।
अब आप देखिये कि अमेरिका में एक मशहूर हस्ती अपने सुनहरे कॅरियर को छोड़ अपनी बच्ची की चिंता कर रही है और दूसरी ओर हमारे यहां का युवा दंपति आर्थिक नुकसान को सहन न कर पाने का तर्क देते हुए खुद का परिवार बनाने से इनकार कर रहा है।
समाज में ये जो परिवर्तन आ रहे हैं, उन पर गंभीरता से ध्यान देना इसलिए जरूरी है, क्योंकि पता नहीं आगे चलकर ये कौनसा रूप लें और हमारे समाज में कौन कौनसी विकृतियां पैदा कर दें…