खबरों की जिंदगी बहुत छोटी होती है। कई खबरें आती तो धूमकेतु की तरह हैं लेकिन फिर पता नहीं कहां खो जाती हैं। जब ये आती हैं तो सुनामी की तरह होती हैं लेकिन चले जाने के बाद उस ठहरे हुए या जमे हुए पानी की तरह हो जाती हैं जिसमें कोई हलचल नहीं दिखती। 16 दिसंबर 2012 को दिल्ली में चलती बस में एक लड़की के साथ हुई सामूहिक बलात्कार और चरम क्रूरता की घटना ने पूरे भारतीय समाज को हिला दिया था। थोड़े दिन तक वह घटना चर्चा में रही, कुछ चौराहों पर कुछ दिनों तक मोमबत्तियां जलीं, कुछ सड़कों पर कुछ दिनों तक प्रदर्शन हुए और बाद में दुनिया अपने ढर्रे पर लौट गई।
हाल ही में वह ‘निर्भया’ (घटना की शिकार लड़की की पहचान गोपनीय रखने के लिहाज से मीडिया ने उसे निर्भया, दामिनी जैसे ही नाम दिए थे) फिर चर्चा में आई जब सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई को उसके दोषियों की फांसी की सजा बरकरार रखी। जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा ‘’वह घटना ‘सदमे की सुनामी’ थी जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था। अपराध की किस्म और इसे अंजाम देने के तरीके ने सामाजिक विश्वास को तोड़ा है और इस अपराध के लिए मौत की सजा से कम कुछ हो ही नहीं सकता। दोषियों ने मृतका को मनोरंजन की वस्तु माना, उनका एकमात्र मकसद उसकी अस्मिता को कुचलना था।‘’
आप सोच रहे होंगे कि ये सब कुछ तो बताया जा चुका है, लोग पूरी खबर टीवी पर देख चुके, अखबारों में पढ़ चुके फिर मैं क्यों तीन दिन बाद इस खबर की लाश को लेकर आपके सामने आया हूं। तो सुनिए… मैं बहुत शर्म और अपराध बोध के साथ इस लाश को लेकर आपके सामने हाजिर हुआ हूं। शर्म और अपराध बोध इसलिए कि जिस मीडिया ने इस घटना के होने से लेकर सुप्रीम कोर्ट से उसका फैसला आने तक नारी अस्मिता की बात करने में आकाश पाताल एक कर दिया, उसी मीडिया ने परदे के पीछे क्या किया वह सुनकर आप भी शर्मसार हुए बिना नहीं रहेंगे।
जिस दिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले की खबर आई, मैंने उससे जुड़ी बातें जानने के लिए इंटरनेट पर देश के करीब करीब हर ‘प्रतिष्ठित’ और बड़े अखबार व टीवी चैनल की वेबसाइट को खंगाला। और मैं वहां उस खबर के दृश्य को देखकर सन्न रह गया। ऐसा लगा मानो सारा खून जम गया हो। एक तरफ मेरे सामने लगे टीवी पर एक-एक शब्द को चबाचबाकर सवालों के चाबुक चलाने वाले एंकरों से लेकर कांटों को शहद में भिगोकर परोसने वाले एंकर और एंकराएं, सब के सब नारी और उसकी अस्मिता के चरम पैरोकार बने बैठे थे।
लेकिन दूसरी ओर इन्हीं चैनलों और चैनलों के साथ साथ तमाम नामी गिरामी अखबारों की वेबसाइट पर ‘निर्भया के दोषियों को फांसी’ की खबर के चारों ओर महिलाओं की अधनंगी तसवीरें आ जा रही थीं। लपक-झपक करते ऐसे-ऐसे विज्ञापन जिन्हें आप अपने परिवार के साथ बैठकर देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा सकते। वे फोटो क्यों दिए जा रहे हैं और उनका निर्भया की खबर अथवा इन कथित खबरीली (मैंने यह शब्द जहरीली की तर्ज पर गढ़ा है) वेबसाइट से क्या वास्ता है, यह जानने के लिए मैंने जब उन पर क्लिक किया, तो वे सीधे सीधे पोर्न वेबसाइट्स के गेटवे निकले। जो चारों ओर से निर्भया फैसले की खबर को घेरे हुए थे।
गरिमा नष्ट न हो इसके लिए हमने उस लड़की का नाम तक उजागर नहीं किया, उसे निर्भया या दामिनी जैसे छद्म नामों से पुकारा। लेकिन हमारा मीडिया, क्रूर बलात्कार की शिकार उस लड़की के साथ ‘न्याय होने’ की खबर, अपने डिजिटल प्लेटफार्म पर, खुले आम सेक्स की मंडी में लगाकर बैठा था।
और जैसाकि मैंने कहा, आप देश के किसी भी बड़े से बड़े अखबार या टीवी चैनल का नाम सोच लीजिए मैं दावे के साथ कह रहा हूं कि करीब करीब सभी की वेबसाइट्स पर, निर्भया के न्याय की खबर, इसी सेक्स या पोर्न की मंडी में बेची गई। मेरे पास सबूत के तौर पर ऐसी हर वेबसाइट के उस दिन के स्क्रीन शॉट्स सुरक्षित हैं और मैं कह सकता हूं कि खबरों के इस डिजिटल चौराहे पर सारे लोग नंगे खड़े हुए थे।
यह है हमारे मीडिया की असलियत। यह है हमारे मीडिया का दोगला चरित्र। सामने महिला अस्मिता की बातें और दूसरी तरफ खबरों को बेचने के लिए पोर्न की मंडी का सहारा! ऐसा लगा मानो मीडिया भी किसी कोठे पर जाकर बैठा हो और कपड़े उतारकर अपनी बोली लगवा रहा हो। यकीन न आए तो आप भी किसी दिन आजमा लीजिएगा। खोल लीजिएगा कोई भी ‘खबरीली’ वेबसाइट। आपको पोर्न सेवा बिलकुल निशुल्क उपलब्ध मिलेगी।
आज मैं अपनी बात खत्म नहीं कर रहा, बल्कि शुरू कर रहा हूं। कुछ सवालों के साथ… सवाल ये कि क्या आप खबरों के नाम पर परोसी जाने वाली इस नंगई के खिलाफ कुछ करेंगे? क्या हमारी सरकारें इस ओर ध्यान देंगी कि न्यूज वेबसाइट्स पर क्या क्या परोसा जा रहा है? क्या हमारे यहां ऐसा कोई मैकेनिज्म है जो इन बातों पर निगाह रख रहा होगा? क्या सूचना और प्रसारण मंत्रालय से लेकर महिला मंत्रालय तक की निगाह इस ओर कभी गई है? बात बात पर न्यायालयों में जनहित याचिका लेकर कूदने वालों में से क्या कोई होगा जो, खुद को ‘मीडिया मैन’ कहने वाले इन जिस्म के दलाल घरानों को कठघरे में खड़ा करवा सके?
क्या ये सवाल हम सबकी चिंता का विषय नहीं होना चाहिए…? ऊपर जस्टिस दीपक मिश्रा ने निर्भया के दोषियों के लिए जो कहा, क्या वही मीडिया के बारे में नहीं कहा जाना चाहिए? क्या सुप्रीम कोर्ट को महिला अस्मिता कुचलने वाले इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करनी चाहिए?
सोचिये और आप भी कुछ करिए…
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नोट- फोटो प्रतीकात्मक है।