प्रशांत किशोर की नई पारी या जमीनी हकीकत के आगे सरेंडर?

अजय बोकिल

‘राजनीतिक रणनीतिकार’ के रूप में मशहूर हुए और भारतीय राजनीति में पहली बार सोशल मीडिया की भूमिका को सशक्त तरीके से रेखांकित करने वाले प्रशांत किशोर उर्फ पीके का जनता दल (यू) में शामिल होकर सीधे राजनीति में उतरना वैसा ही है जैसे कोई नामी क्रिकेट कोच सीधे खुद ही टीम में बैटिंग करने लगे। प्रशांत किशोर की सियासत में इस नई पारी को लेकर कई कयास लगाए जा रहे हैं। क्योंकि पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की तगड़ी हार से उनकी पोलिटिकल दुकान ठंडी पड़ गई थी। प्रशांत किशोर की बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अच्छी छनती है, क्योंकि दोनों बिहार के हैं।

तीन साल पहले बिहार में परस्पर विरोधी दलों जदयू, राजद और कांग्रेस का महागठबंधन बनवाकर भाजपा को पटखनी देने वाले प्रशांत किशोर को बाद में कोई बड़ी राजनी‍तिक कामयाबी नहीं मिली। लिहाजा उन्हें भी पुनर्वास की जरूरत थी। आखिर कब तक राजनीतिक पुरोहिताई करते। सो बेहतर यही समझा कि खुद ही राजनीति में उतरा जाए। माना जा रहा है कि नीतीश उन्हें लोकसभा चुनाव में उतार सकते हैं। नई भूमिका में प्रशांत वापस भाजपा के करीब भी जा सकते हैं बशर्ते जदयू एनडीए में बना रहे।

41 वर्षीय प्रशांत किशोर की कहानी 21 वीं सदी की भारतीय राजनीति और चुनावी रणनीति में बुनियादी बदलाव का एक अहम अध्याय है। पीके पहले संयुक्त राष्ट्र संघ में लोक स्वास्थ्य विशेषज्ञ के रूप में सालों काम करते रहे। तभी उनकी मुलाकात गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से हुई। मोदी ने उनकी प्रतिभा को परखा और अपने साथ जोड़ लिया। पीके ने आईआईटी और आईआईएम से निकले कई प्रतिभाशाली युवाओं को साथ लेकर गुजरात विधानसभा चुनाव की नई चुनावी रणनीति तैयार की। इसमें सोशल मीडिया के माध्यम से वोटरों तक पहुंचने का दांव भी शामिल था।

पीके ने नया नारा दिया ‘सिटीजन फॉर अकाउंटेबल गवर्नमेंट’ (जवाबदेह सरकार के नागरिक) पीके की मेहनत और दूरदर्शिता रंग लाई और गुजरात में मोदी के नेतृत्व में भाजपा तीसरी बार विधानसभा चुनाव जीती। इसके बाद पीके को 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी कैम्पेन की बड़ी जिम्मेदारी‍ मिली। उन्होंने पहली पॉलिटिकल एक्शन कमेटी बनाई।

पीके ने मोदी और भाजपा के पक्ष में पूरे देश में सघन अभिनव मार्केटिंग और विज्ञापन अभियान चलाया। जिनमें ‘चाय पे चर्चा’, 3 डी रैली, रन फॉर यूनिटी, मंथन, सोशल मीडिया प्रोग्राम आदि नवोन्मेषी कार्यक्रम शामिल थे। मोदी को पीएम बनाने के लिए चलाए गए नारे ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ ने जादू किया। भाजपा पहली बार लोकसभा में 283 सीटें जीत कर सबसे बड़ी पार्टी बनी। देश ने एक लगभग मौनी पीएम की जगह बहुत ज्यादा बोलने वाले पीएम को चुना।

लेकिन जैसा होता है, आम का पेड़ लगाने वाले को फल खाने नहीं मिलते। जल्द ही पीके बीजेपी में दरकिनार हो गए। जीत का सारा श्रेय मोदी लहर के खाते में डाल दिया गया। पीके की जगह ‘चाणक्य’ का सेहरा अमित शाह के सिर बंध गया। राजनीतिक इनाम तो दूर पीके को खुरचन भी नहीं मिली। इससे निराश पीके जल्द ही नीतीश से जा मिले, जो पहले ही मोदी और भाजपा को साम्प्रदायिक बताकर एनडीए से बाहर हो चुके थे।

पीके ने 2015 के विधानसभा चुनाव में बिहार में परस्पर विरोधी रहे जदयू, राजद और कांग्रेस का महागठबंधन बनवाया और राज्‍यों में दौड़ रहे भाजपा के विजय रथ पर तगड़ी नकेल डाल दी। लेकिन बिहार के बाद पीके को कोई बड़ी चुनावी सफलता नहीं मिली। कहने को पंजाब विधानसभा चुनाव में वो कांग्रेस के सलाहकार थे, लेकिन वहां भी कामयाबी कैप्टन अमरिंदर के नाम दर्ज हुई।

इसके बाद कहने को पीके ने यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को अपनी रणनीतिक सलाह दी। इसी के तहत ‘खाट पे चर्चा’ और किसान रैली जैसे कार्यक्रम आयोजित हुए। लेकिन चुनाव में जीतने के बजाए खुद कांग्रेस की ही खाट खड़ी हो गई और भाजपा बगैर पीके की रणनीतिक सलाह के ऐतिहासिक जीत दर्ज कराने में कामयाब हुई। यानी पीके के चुनावी रणनीतिक कौशल की अजेयता का गुब्बारा फूट गया। ऐसे में पीके को लगा होगा कि क्यों न ‍खुद ही राजनीति के मैदान में किस्मत आजमाई जाए।

अब सवाल यह है ‍कि पीके नई भूमिका में कितने कामयाब होंगे? वे मैदानी नेता बनेंगे या पिछले दरवाजे से सियासत करने और इसी दम पर टिके रहने वाले नेता साबित होंगे। क्योंकि चुनाव जीतने के लिए सलाह देना और खुद चुनाव लड़कर जीतना अलग अलग बातें हैं। हो सकता है कि नीतीश पीके को लोकसभा चुनाव में उतारें। हालांकि उन्होंने अपनी जाति का सार्वजनिक खुलासा नहीं किया है। लेकिन सबको पता है कि पीके ब्राह्मण हैं। संभव है वे अपना असली उपनाम भी लिखना शुरू कर दें।

किशोर के जदयू में शामिल होने के मौके पर नीतीश कुमार ने एक रहस्यमय वाक्य कहा- ‘प्रशांत किशोर भविष्य हैं।’ राजनीतिक गलियारों में इसका संदेश यह गया कि नीतीश ने पीके को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है। उन्हें जल्द ही सरकार में भी शामिल किया जा सकता है। वैसे भी एनडीए में फिर से शामिल हुए नीतीश आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ सीट शेयरिंग को लेकर टेंशन में हैं। पीके इस मामले में उनकी मदद कर सकते हैं।

गौरतलब है कि कभी मोदी के सलाहकार के रूप में जींस टी शर्ट में काम करने वाले और अब नीतीश के साथ कुर्ते पायजामे में दिखने वाले प्रशांत किशोर में काफी फर्क है। बीते तीन सालों में पीके ने उनकी सलाह से जीते और बिना उनकी सलाह के भी दूसरों द्वारा जीते चुनाव भी देख लिए हैं। ऐसे में संभव है कि पीके का राजनीतिक रणनीतिकार के रूप में अपनी अजेयता का मुगालता दूर हो गया हो। उनकी समझ में आ गया हो कि जीते चुनावों में उनकी भूमिका मात्र उत्प्रेरक की थी न कि सियासी रासायनिक क्रिया करने वाले मूल तत्व की।

ऐसे में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या केवल रणनीतियां ही चुनाव जितवाती हैं या फिर पार्टी, व्यक्ति और सरकार की छवि, आचरण और उपलब्धि के आधार पर भी वोटर अपना मन बनाता है? यानी बारात केवल बैंड से नहीं सजती, लोगों की निगाहें दूल्हे पर ही होती हैं। उसी से तय होता है कि रिश्ता अच्छा है या नहीं।

पीके को इस बात का श्रेय दिया जा सकता है कि उन्होंने भारतीय राजनीति में चुनाव जीतने के जातीय, साम्प्रदायिक और क्षेत्रवाद के पारंपरिक और आजमाए हुए फार्मूले में मार्केटिंग का नया तड़का लगाया और वह काफी हद तक कामयाब भी हुआ। लेकिन आगे भी चुनाव इसी आधार पर जीते जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है। क्योंकि जो सबसे बड़ा फर्क पड़ा है, वो है नारों का जुमलों से विस्थापन और अब जुमलेबाजी की भी कलई खुलना।

नारों के दम पर कांग्रेस ने कई चुनाव जीते। लेकिन मोदी ने नारों को सम्मोहक जुमलों में बदला। लगा कि अब राम-राज आने ही वाला है। लेकिन यह भी मृग मरीचिका ही साबित हुआ। अगर पीके मान रहे हैं कि वे फिर नए नारों और जुमलों को बेच कर कोई तीर मार लेंगे, तो इसकी संभावना अब कम है। क्योंकि भाजपा ने चुनावी रणनीति के इस नुस्खे का इतनी बुरी तरह से दोहन कर लिया है कि उसमें से अब कुछ ठोस निकालना किसी के लिए भी कठिन है। लेकिन राजनीति की दुनिया उम्मीद के आसमान पर टिकी होती है। प्रशांत किशोर भी शायद इसी के भरोसे हैं।

(सुबह सवेरे से साभार)

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