कल मैंने इसी कॉलम में चंडीगढ़ की उस नन्ही बच्ची का मामला उठाया था जो दस साल की कच्ची उम्र में मां बनने वाली है और उसे इस हालत में पहुंचाने वाला आदमखोर भी उसका अपना मामा ही है।
अपनी बात कह चुकने के बाद मैं मान बैठा था कि इस घटना को लेकर मेरे वश में जो था वो मैं लिख चुका। लेकिन कॉलम छपने के बाद आई प्रतिक्रियाओं से लगा कि मैंने तो हिमखंड का केवल सिरा भर छुआ है। सबसे चौंकाने वाली जानकारी मुझे इस घटना को लेकर मेरे पुराने सहयोगी, चंडीगढ़ के पत्रकार मयंक मिश्रा की फेसबुक पोस्ट से मिली। यह पोस्ट उक्त बच्ची की ओर से लगाई गई गर्भपात कराने की याचिका, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नामंजूर किए जाने से पहले की है।
मयंक ने लिखा- ‘’दुराचार पीड़िता 10 वर्षीय बच्ची के पिता ने जब चंडीगढ़ के समाज कल्याण विभाग में गुहार लगाई “हमें मीडिया से बचाओ” तो उस पिता का दर्द, उस परिवार की मानसिक स्थिति, आप समझ गए होंगे जिनकी बेटी दस साल में गर्भवती हो गई है और डॉक्टरों ने कह दिया है कि अब गर्भपात नहीं हो सकता है। मीडिया ने इस बच्ची के परिवार वालों को घेर रखा है। बच्ची और उसके परिवार वालों का घर से निकलना मुश्किल हो गया है। उनके घर के बाहर कई न्यूज चैनल्स की ओबी वैन्स अकसर खड़ी रहती हैं। क्या मीडिया का यह कदम सही है? खुद एक पत्रकार होने के नाते मैं इसे गलत मानता हूं। खबर तो खबर है। लेकिन,मीडिया की इस तरह से बच्ची व उसके परिवार की निजी जिंदगी में दखलंदाजी गलत है। पिता ने कहा कि मीडिया के लोग झूठ बोलकर उनके घर आते हैं। कहते हैं एनजीओ से हैं। उनकी मदद करेंगे। लेकिन, जो वह बोलते हैं, अगले दिन अखबारों में खबरें छप जाती हैं। वे अपना दर्द यह सोचकर बताते रहे कि शायद एनजीओ से उन्हें मदद मिले।‘’
पीडि़त परिवार के साथ हुई इस घटना का खुलासा हमें समाज के एक और नासूर की तरफ ले जाता है। और इस नासूर का नाम है मीडिया। मयंक की पोस्ट पढ़ने के बाद मैंने उनसे बात की तो उन्होंने बताया कि लोकलाज और बदनामी से डरते हुए परिवार ने लंबे समय तक इस खबर को छुपाए रखा था। एक अखबार की रिपोर्टर ने खुद को एनजीओ कार्यकर्ता बताकर उनके घर में प्रवेश पाया और उसी हैसियत से सारी जानकारी लेकर अगले दिन खबर छाप दी। खबर छपने से परिवार अवाक रह गया। और फिर वही हुआ जो होता है, एक जगह खबर छपने के बाद सभी मीडिया संस्थानों ने अपने अपने रिपोर्टर को दौड़ा दिया और इस दौरान उस बच्ची का परिवार कई बार नोचा गया।
पहले यह सूचना थी कि मीडिया वालों से परेशान होकर पीडि़त परिवार सुप्रीम कोर्ट में भी यह गुहार लगाने जा रहा है कि उन्हें अब मीडिया की ज्यादती से बचाया जाए। लेकिन कोर्ट में ऐसा कुछ नहीं हुआ। पर इसके बावजूद क्या यह सवाल नहीं खड़ा होता कि ऐसे मामलों में मीडिया की भूमिका क्या होनी चाहिए? दुष्कर्म के मामलों में पीडि़ता की पहचान न बताने के साथ-साथ बच्चों के साथ या बच्चों के द्वारा किए गए अपराधों की रिपोर्टिंग में भी पूरी सावधानी बरते जाने के बारे में सुप्रीम कोर्ट के साफ निर्देश हैं। इसके बावजूद ऐसे मामले संवेदना की जगह सनसनी या चटखारे लेने के अंदाज में रिपोर्ट किए जाते हैं।
एक और विषय ऐसे मामलों में एनजीओ की भूमिका का है। बच्चों के कल्याण के नाम पर देश में हजारों की संख्या में एनजीओ चल रहे होंगे। लेकिन उनमें से ज्यादातर कागजों पर हैं, उनका जमीनी नेटवर्क या संपर्क लगभग शून्य है। मेरा अनुभव रहा है कि इस तरह की घटनाओं की सूचना मीडिया से पहले एनजीओ या अन्य सामाजिक संगठनों को मिलती है। यदि एनजीओ का जीवंत मैदानी संपर्क हो तो वे ऐसे मामलों में समय पर कार्रवाई सुनिश्चत करवाने में मददगार हो सकते हैं। इसके अलावा डॉक्टर्स भी इस मामले में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। यदि समय रहते ऐसे मामलों को देख लिया जाए तो वैसी नौबत आने से बचा जा सकता है जैसी चंडीगढ़ की उस पीडि़त बच्ची के साथ आई है।
यह स्थापित तथ्य है कि बाल यौन शोषण में ज्यादातर परिजन ही लिप्त पाए जाते हैं, ऐसे में कोई भी परिवार अपनी बदनामी के डर से मामले को दबाने या छिपाने की कोशिश करता है। लेकिन फिर भी परिवार के कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें ऐसी घटनाओं की जानकारी होती है। यदि समाज में जागरूकता हो तो ऐसे लोग पीडि़ता को आवश्यक चिकित्सा और परामर्श उपलबध करवा सकते हैं। इससे बच्चों को देरी के कारण पैदा होने वाले संकट से बचाया जा सकेगा।
जैसाकि मैंने कल भी कहा था, इस मामले में आवश्यक कानूनी संशोधनों को भी सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर अंजाम देना जरूरी है। केंद्र सरकार ने पिछले दिनों कई गैर जरूरी कानूनों को खत्म करने का सराहनीय काम किया है, लेकिन इसके साथ ही जरूरी कानून बनाए जाने पर ध्यान देना भी आवश्यक है। गर्भपात से जुड़ा एमटीपी कानून भी ऐसी ही समीक्षा और संशोधन की मांग करता है।
डॉक्टरों का कहना है कि बहुत से मामलों में देरी इसलिए होती है क्योंकि अपेक्षित पैमाने पर सुरक्षित गर्भपात की सुविधा उपलब्ध नहीं है। देरी हो जाने पर इसकी अनुमति के लिए पीडि़त परिवार को अदालत के चक्कर लगाने पड़ते है। इसे देखते हुए एक संशोधन यह भी प्रस्तावित है कि सरकारी अस्पताल में काम कर रहे आयुर्वेद के प्रशिक्षित डॉक्टरों को भी गर्भपात करवाने की इजाजत दी जाए। इसी तरह दूसरी तिमाही में गर्भपात के लिए दो डॉक्टरों की सलाह की अनिवार्यता को भी खत्म किया जा सकता है, क्योंकि कई जगह दो डॉक्टर आसानी से उपलब्ध नहीं होते।