मीडिया और आनंद के रिश्‍तों की खोज में फंसा मैं गरीब

अगर कोई पत्रकार आपसे यह कहे कि वह आनंद से है, तो तय मानिएगा कि वह साफ झूठ बोल रहा है। यदि वह पत्रकार है तो आनंद से उसका कोई लेना देना नहीं हो सकता और यदि आनंद से है तो मान लीजिएगा कि पत्रकारिता से उसका दूर-दूर तक कोई वास्‍ता नहीं है। रोजगार और बाजार के प्रचलित शब्‍दकोश में आनंद और पत्रकारिता एक दूसरे के पर्याय की श्रेणी में नहीं बल्कि विलोम की श्रेणी में आते हैं।

आप सोच रहे होंगे कि आज इस मनुष्‍य को क्‍या हो गया? अचानक ये कैसी बहकी-बहकी बातें करने लगा है। आपका सोचना गलत नहीं है… क्‍योंकि बैठे बिठाए जब कोई पत्रकारिता और आनंद की बात करने लगे तो ऐसा शक होना स्‍वाभाविक है। यही शक मुझे रविवार को भोपाल के उस कार्यक्रम में ले गया था जिसने मुझे यूं आपके सामने बहकने पर मजबूर कर दिया।

दरअसल प्रजापिता ब्रह्माकुमारी ईश्‍वरीय विश्‍वविद्यालय ने भोपाल में मीडिया का एक राष्‍ट्रीय सम्‍मेलन आयोजित किया था। पूरे दिन चलने वाले इस सम्‍मेलन का विषय था Media For Happines in life उसका हिंदी तर्जुमा किया गया था जीवन में आनंद हेतु मीडिया बताया गया था कि इस राष्‍ट्रीय मीडिया सम्‍मेलन में पूरे भारतवर्ष से जुड़ी मीडिया की हस्तियां भाग लेंगी। इसे आप मेरा सौभाग्‍य कहें या दुर्भाग्‍य कि मैं आयोजन का सिर्फ एक सत्र ही सुन पाया।

मैं वहां यही सोचकर चला गया था कि अपने पेशागत जीवन के अंतिम चरण में ही सही, यह तो जान सकूंगा कि मीडिया कैसे आनंद का वाहक हो सकता है? ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं क्‍योंकि करीब 37 साल की पत्रकारिता के दौरान मैंने इस पेशे से और जो कुछ भी पाया हो, लेकिन आज दावे के साथ कह सकता हूं कि जिसे वास्‍तविक अर्थों में आनंद कहते हैं, वह मेरे लिए दुर्लभ ही रहा।

इन 37 सालों में 37 सप्‍ताह भी मुश्किल से ऐसे रहे होंगे जिनमें मैंने सुबह का सूरज उगते और शाम का सूरज ढलते हुए प्रत्‍यक्ष देखा हो। और कमोबेश हर पत्रकार या मीडियाकर्मी की यही हालत है। ऐसे में आप ही बताइए कि जो मनुष्‍य प्रकृति के सबसे सुंदरतम क्षणों को देखने का नसीब भी लिखा कर न लाया हो, वह क्‍या तो खुद आनंद प्राप्‍त करेगा और क्‍या दूसरों को आनंदित कर सकेगा?

मैं ऐसा नहीं कहता कि सभी को इसी तरह नकारात्‍मक दृष्टि से सोचना चाहिए। लेकिन क्‍या कीजिएगा, आप लाख इसे ‘नकारात्‍मक’ या ‘निराशावादी’ सोच कहें, पर मीडिया की हकीकत तो यही है। उससे मुंह कैसे मोड़ा जा सकता है। जिस मीडिया से आज यह अपेक्षा की जा रही है कि वह समाज में आनंद का वातावरण निर्मित करने में मदद करे, उसी मीडिया के दफ्तर आज खुशी, सुकून या आनंद के कत्‍लखाने बनकर रह गए हैं। कोई करवाता नहीं है, लेकिन दुनिया भर के सर्वे करवाने वाले मीडिया के कर्ताधर्ता, खुद अपने स्‍टॉफ के लोगों का सर्वे करवा लें, मेरा दावा है, किसी भी अन्‍य प्रोफेशन से ज्‍यादा तनाव और अवसादग्रस्‍त मीडिया के ही लोग पाए जाएंगे।

मीडिया से अपेक्षा होती है कि वह समाज को अवसाद से निकाले, उसमें सकारात्‍मकता के बीज डाले। लेकिन असल बात हम भूल जाते हैं, कोई व्‍यक्ति दान भी उसी चीज का कर सकता है जो खुद उसके पास मौजूद हो। जब मीडियावालों के खुद के पास खुशी या आनंद नामकी कोई चीज नहीं बची, तो आप उनसे कैसे उम्‍मीद कर सकते हैं कि वे दूसरों को आनंदित करने का उपक्रम कर पाएंगे। बाकी बातें तो छोडि़ए, सारे जहां का दर्द अपने सीने में लेकर घूमने वाले इन लोगों को तो खुद के सीने का दर्द तक पता नहीं होता।

मूल प्रश्‍न संवेदना का है। मीडिया का आज का माहौल मीडियावालों को संवेदनरोधी बना रहा है। उनके आसपास सनसनी की फायरवॉल खड़ी कर दी गई है, जो किसी भी संवेदना को पास नहीं फटकने देती। हम टीवी पर अकसर एंकर को चीखते हुए देखते हैं- ‘’वह जलता रहा और भीड़ उसका वीडियो बनाती रही’’… ऐसी घटनाएं उसी ‘संवेदनरोधी फायरवॉल’ का नतीजा हैं जिसका मैंने जिक्र किया। संवेदनाओं के सतत स्‍खलित होते जाने वाले इस समय में कोई क्‍या तो आनंद की अनुभूति करे और क्‍या उसका प्रसार…!

आचार्य रजनीश ने भारतीय समाज का विश्‍लेषण करते हुए कहा था- ‘’उत्‍सव आमार जाति, आनंद आमार गोत्र’’ लेकिन आज हमारे मीडिया के संदर्भ में इसे यूं कहना उचित होगा ‘’अवसाद आमार जाति, तनाव आमार गोत्र…।‘’ आज मैं जब एकांत में कुमार गंधर्व को ‘’उड़ जाएगा, हंस अकेला’’ गाते हुए सुनता हूं तो पता नहीं मन तीस साल पहले चला जाता है। वे ही कुमार गंधर्व साक्षात मेरे सामने भारत भवन के अंतरंग या बहिरंग में बैठे गा रहे होते थे और मैं सिर्फ उनके गायन को ‘रिपोर्ट’ कर रहा होता था। आज भी वही हो रहा है, आनंद का स्रोत सामने मौजूद भी हो तो भी उसे सिर्फ ‘रिपोर्ट’ भर किया जा रहा है।

अब आज यदि मैं फुर्सत के लमहों में सोचूं कि काश! कबीर को इसी अंदाज में मैं कुमारजी से साक्षात सुन सकता… तो क्‍या वह संभव है…? आनंद को अनुभव करने और अनुभव कराने के क्षण मीडिया में इसी तरह जाया हो रहे हैं। खबरों और सनसनी को एक दूसरे पर पटकने की या खबरों को लेकर एक दूसरे को पटकनी देने की आपाधापी और मारकाट में, मीडिया के पास आनंद को अनुभव करने के रोमछिद्र ही नहीं बचे हैं। वे अपने किसी कोने को सकारात्‍मकता का नाम दे रहे हैं यही क्‍या कम है…

कार्यक्रम में कही गई दो बातें इस पूरे परिदृश्‍य को समझने के लिए पर्याप्‍त हैं। विजयमनोहर तिवारी ने कहा- ‘’आनंद की यात्रा अकेले की यात्रा है।‘’ और दिल्‍ली से आई युवा पत्रकार पीनाज त्‍यागी ने कहा- ‘’आनंद पा नहीं सकते तो उसे खरीद लें…(किसी गरीब बच्‍चे को उसकी मनपसंद आइसक्रीम खिलाकर)’’

45 साल से अधिक उम्र के विजयमनोहर और संभवत: 30 साल से कम उम्र की पीनाज की यह सोच, बदलते समय में ‘’मीडिया और आनंद’’ के रिश्‍तों का सच आप ही बयां कर देती है…

 

 

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