‘रेखाएं इस एकांत में दृश्य लिपि की तरह लिखने लगती हैं’

एकांत में कलाकार 2

आज जाने माने सिरेमिक आर्टिस्‍ट और चित्रकार सिरज सक्‍सेना के अनुभव-

जहाँ मैं रहता हूँ, वहाँ घरबन्दी और बढ़ गई है। लेकिन इस घरबन्दी का असर मुझ जैसे फ्रीलान्स कलाकार की दिनचर्या पर कम ही हुआ है। सुबह शुरू होती है स्टूडियो में फैले सूर्यप्रकाशित मौन से। छत पर दिन भर खिली धूप पसरी रहती है। अपने सोलर कुकर में दाल,भात और कुछ अन्य भोजन पकता है। चिड़ियों की चहचहाहट भी खूब सुनाई दे रही हैं। सुबह शाम बिना नागा सफ़ेद छाती वाला किलकिला (व्‍हाइट थ्रोटेड किंगफिशर) इधर से उधर उड़ते हुए खूब चहकता है। बुलबुल भी नीम के पेड़ पर दिन भर उछल कूद करती है। जब सूरज सर के ऊपर होता है  तब लम्बी और नुकीली चोंच वाली पर्पल सन बर्ड अपनी छोटी और चमकीली देह में दूर से ही दिख जाती है। नीम के पेड़ पर हरियल (हरे कबूतर) भी दिखाई देते हैं। जो कि इसी घरबन्दी काल में यहां पुनः लौट आए हैं।

इन दिनों पक्षियों और शावकों को सड़क पर वाहनों का भी डर नहीं हैं। उनकी चाल में एक ख़ुशी, अभय और संतोष है। न वाहनों का शोर है और न ही प्रदूषित हवा है। हमारा समाज कुछ सभ्य लग रहा है और स्वच्छ भी। मित्रों से भी फोन पर बात हो जाया करती है। साथ ही रोज घर की सफाई के साथ साथ डिजिटल कूड़ा भी बुहारना होता है।

मुंबई में रहने वाले कवि,कहानीकार मित्र शुभाशीष चक्रवर्ती (जिन्हें झारखण्ड से विशेष प्रेम है) के साथ मिलकर एक समूह बनाया है, जिसमें हमने वहां के बच्चों से आग्रह किया है कि अगर उनकी चित्रकला में रुचि हैं तो वे इस समय चित्र बनाएं और हमें भेजे। बच्चों के माता-पिता भी बच्चों की इस रंगीन दुनिया में शामिल हो रहे हैं। दो बच्चों को मैं अपना चित्र,पुस्तकें और कुछ कला सामग्री भेंट करूंगा। एक मई को तीन चित्र चुने जाएंगे और उन नामों की घोषणा होगी। जब यह घरबंदी टूटेगी तब राँची में इन चित्रों की एक प्रदर्शनी आयोजित की जाएगी। राज्य सरकारें व केंद्र सरकार भी ऐसे ही कुछ सृजनात्मक आयोजन कर सकती हैं।

आठ अप्रैल को कुमार जी का जन्मदिन था। यूट्यूब पर हिंदी समाचार चैनल ‘दी लल्लनटॉप’ के सौरभ द्विवेदी ने कुमार जी (कुमार गन्धर्व) का जन्मदिन मनाया और फेसबुक पर एक लाइव गोष्ठी आयोजित की। देवास से कलापिनी जी और सोपान जोशी (पर्यावरणविद) के बीच एक घंटा इक्कीस मिनट सहज सुन्दर और महत्‍वपूर्ण संवाद हुआ। कलापिनी जी ने कहा कि कुमार जी राग को सीधा-सीधा नहीं बल्कि कुछ तिरछा होकर अन्य कोणों से भी देखने के बारे में कहते थे।

प्रिय कवि विनोद कुमार शुक्ल को भी रायपुर से फेसबुक पर लाइव देखा-सुना। अब तक मैंने तीन चित्र बड़े कागज़ पर, एक बड़ा रेखांकन और दो छोटे-बड़े कैनवास पर चित्र भी बनाए हैं। एक अधूरा कैनवास पूर्ण होने की प्रतीक्षारत है। स्वर्गीय रवीन्द्र कालिया की बेहद लोकप्रिय किताब ‘ग़ालिब छुटी शराब’ भी पढ़ी। इस किताब में हिंदी गद्य की लय ऐसी है कि उसकी लत पड़ जाए।

खाली स्वच्छ कागज़ पर ज्यों ही मैं अपना स्याही से लबरेज़ ब्रश लाता हूँ। स्याही ब्रश से उतर चित्र सतह पर इठलाने लगती हैं। रेखाएं इस एकांत में कुछ दृश्य लिपि की तरह लिखने लगती हैं। कागज पर लिखा जाना और उसे मेरा देखना ये दोनों काम एक ही समय में होते हैं। यह लिपि की तरह लगने वाला रेखांकन जो पढ़ने से शुरू होता है और अंततः एक दृश्य अनुभव में तब्दील होता हैं।

पर्याप्त रोशनी में भी जलते हुए दिए की उपस्थिति मुझे अपने चित्रकर्म के दौरान संगीत की ही तरह आवश्यक लगती हैं। दिए की रोशनी और संगीत किसी प्रिय सखी की तरह मेरे पास होकर मुझे चित्ररत देखते हैं और मैं भी रह-रह कर उन्हें। एक रेखाचित्र बनाने में कागज़,स्याही या रंग, ब्रश,समय के अलावा भी बहुत कुछ अनिवार्य होता है। यह बात वे आसानी से समझ पाएंगें, जिन्हें एक चित्र और पोस्टर का भेद पता है।

स्याही शब्द को पढ़ते ही तमाम पाठकों के मन में काली स्याही का आना स्वाभाविक है पर चित्रकार के स्टूडियो में अनेक रंगों की स्याहियाँ होती है। सफेद भी। रेखा चित्र इन दिनों पत्र की तरह लग रहे हैं। यह पत्र आज के समय, मौन,किसी जानी पहचानी खुशबू या शायद किसी की अनुपस्थिति को सम्बोधित हैं।

परत-दर-परत रंग एक कैनवास पर रखे जाते हैं (कुछ चित्रकार रंगों को अपने कैनवास या कागज़ पर बहाते हैं तो कुछ रंगों को पोंछते हैं) रंग जब रखे जाते हैं तो अमूमन वे गीले होते हैं फिर वे सूख जाते हैं। गीले रंग की सुर्खी और उसी रंग के सूख जाने के बाद की रंगत में महसूस किया जा सकने वाला फर्क होता है। (कुछ चित्रकार इस सुर्खी को ध्यान में रख कर चित्र बनाते हैं तो कुछ रंगों के साथ खुद को बहा देते हैं और सूख जाने के बाद अपने कैनवास पर रंगों को ठिठक कर देखते हैं), रंग इस शांति में (जिसे चिड़िया रह-रह कर भेदती है) और मुखर हो गए हैं और चित्रकार मौन हैं।

सफेद (जिसे अक्सर कोरा कैनवास कहा जाता है) अपने मौन में कुछ और श्रृंगारित लग रहा है। अब जब न अधिक गर्मी हैं न ही ठण्ड। मौसम सुखद है। रंगों, कागज़, कैनवास और समय की कोई कमी नहीं है। नीले, हरे, पीले और हलके भूरे चित्र इस दौरान बने हैं। मुझे रह रह कर याद आते हैं भीमबैठका के वे आदिम चित्रकार, पिछले कुछ वर्षों में हुई विदेश यात्राओं में मिले मित्र बने चित्रकार, नदियाँ और भाषाएं जिन्‍हें मैंने करीब से सुना है। वे खुशबुएँ भी जो अब मेरी स्मृति का स्थाई हिस्सा हैं।

रह-रह कर याद आ रही है चित्रकार अम्बादास की बाल सुलभ मुस्कान, जिसमें खिला रहता है उनके चित्रों तक पहुंचने का अभी-अभी यौवन पाया एक पुष्प का चेहरा। अष्वित (पोलैंड) में देखे स्त्रियों के बालों का एक विशाल गुच्छ, हजारों लोगों के ऐनक, जूते और उनकी चीख। उस अनुभव के बारे में आज तक मेरी कलम एक वाक्य तक नहीं लिख पाई है, यह हताशा भी रह रह कर अक्सर इन दिनों याद आती है। लाखों लोगों को जिनमें बच्चे और बूढ़े भी शामिल थे उन्हें बिना किसी अपराध के मार डाला गया।

दिन में बना नीला चित्र साधारणतः किसी रात के आस पास ही क्यों ठहर जाता हैं। कला व्याकरण में रंगों पर समझ के दोष से मुक्ति कब मिलेगी?  इस भेद तक इन दिनों (जब न कहीं जाने की, न किसी से मिलने की हड़बड़ी और उत्साह है) पहुंचने की कोशिश में हूँ। रंग का सीधे-सीधे स्मृति और दृश्य अनुभव से लेना देना है उसे किसी परिभाषा की दरकार नहीं।

अपनी सिरेमिक कार्यशाला में नहीं हूँ अभी, पर हवा में मैं मिट्टी से कई रूप बनाता हूँ और फिर उसे ढहा देता हूँ। मिट्टी की नरमी मेरी उंगलियां महसूस करती हैं। कुछ लोगों को लग रहा है कि वे घरों में कैद हैं पर सच्चाई इससे परे है। घर वैसा ही है, हम ही इसमें कैदी की तरह खुद को बरत रहे हैं।

यह वक्त है खुद के घर को टटोलने का, देखने का कि हमने कितना कुछ व्यर्थ का सामान जमा कर रखा है। खुद के भीतर झाँकने का भी यह एक महत्‍वपूर्ण और सुनहरा वक्त है। आधुनिक और विकास के इस पथ पर दौड़ते- दौड़ते हम कहाँ तक आ पहुंचे हैं। यह समय कुछ देर ठहर कर, अपने सफर को देखने का है, उसे महसूस करने का है।

(राकेश श्रीमाल की फेसबुक वॉल से ली गई मूल सामग्री के सुबह सवेरे में प्रकाशित संपादित अंश)

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