राकेश अचल
मनसुख आजकल होंसे-फूले नहीं फिर रहे हैं। उनकी खुशी का कोई ठिकाना नहीं है। वैसे भी उनका कौन सा ठिकाना है? कब, क्या कर बैठें कोई नहीं जानता, खुद मनसुख भी नहीं। मनसुख के मन का सुख केवल भगवान जानता है, इसलिए मनसुख आजकल भगवान बनने की प्रेक्टिस कर रहे हैं।
मनसुख हमारे गांव के सरपंच हैं। उन्हें अचानक सरपंच बनाने का जुगाड़ गांव के ही कुछ उत्पाती मूढ़ों ने गुपचुप किया था। वे अचानक गांव की राजनीति में धूमकेतु की तरह प्रकट हुए और देखते ही देखते छा भी गए। गांव में राजनीति के प्रधान शिक्षक रहे रामजी परेशान हैं। रामजी ही क्या रामजी के तमाम संगी-साथी भी बैठे अपनी मुरलियाँ बजा रहे हैं। गांव में अब कोई उनकी राम-राम तक नहीं लेता, यहां तक की मनसुख भी रामजी को देखकर कन्नी काट जाता है।
महीनों बाद मेरा गांव जाना हुआ तो रामजी का मुरझाया चेहरा देखकर मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ। मुझे वैसे भी बुजुर्गों से बहुत स्नेह है। उनके पोपले चेहरे मुझे बड़े अच्छे लगते हैं, वे अगर मुरझाये दिखाई देते हैं तो मुझे बड़ी तकलीफ होती है। दरअसल समय बड़ी तेजी से बदल रहा है। बुजुर्गों के खिलाफ ऐसी हवा चली है कि पूछिए मत। अकेला मनसुख ही नहीं अपितु मनसुख की पूरी पीढ़ी बुजुर्गों को दुखी करने पर आमादा है। कोई नहीं चाहता की बुजुर्ग पहले की तरह पूजे जाएँ।
रामजी का उतरा चेहरा देखकर मैंने पहले पालागन की और पूछा- ‘दद्दा ये क्या हाल बना रखा है?
रामजी कुछ बोले नहीं। मैंने उन्हें कुरेदा- ‘आखिर हुआ क्या, कुछ तो बताइये?’
”कुछ नहीं’ रामजी ने बुझा सा उत्तर दिया। मैं समझ गया कि कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है, और हो न हो इसके पीछे मनसुखा ही होगा! बहुत कुरेदने के बाद रामजी अचानक फट पड़े। बोले- ‘ये मनसुखा अपने आपको समझता क्या है आखिर ?’
”आखिर हुआ क्या दद्दा, कुछ बताइये तो सही”, मैंने फिर पूछा।
रामजी की आँखें अचानक पनिया गयीं। उनमें लाल-लाल डोरे उभर आये। मुझे लगा कि मैंने उनके साथ सवाल पूछ कर शायद कोई ज्यादती कर दी है। उन्होंने अंगोछे से अपनी डबडबाई आँखें पोंछीं और लगभग सुबकते हुए बोले- ”अमझरा का मौसम आ गया है। पांच तारीख को गांव के सारे आम के बागीचों से आम झराए जायेंगे, लेकिन मनसुखा हम बुजुर्गों को बगीचे में जाने ही नहीं देना चाहता” रामजी एक सांस में कह गए।
”आखिर ऐसा क्यों, गांव में ज्यादातर आम के बागीचे तो आपके और आपके दोस्तों द्वारा लगाए हुए हैं” मैंने जिज्ञासा से कहा।
‘’यही तो.. यही तो मनसुखा मानने को तैयार नहीं है। वो कहता है कि अब हम सब बूढ़े घर बैठें, आमों के बारे में सोचें तक नहीं” रामजी लगभग उदास होकर बोले। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि जिस मनसुखा को उन्होंने बच्चों की तरह संरक्षण दिया वो ही मनसुखा अचानक आँखें क्यों फेर रहा है?
रामजी ने मेरी उत्सुकता और बढ़ा दी थी। मैंने उन्हें और कुरेदा। ‘’आखिर कुछ तो कारण रहा होगा, जो मनसुखा बदल गया है!’’
रामजी सोच में पड़ गए। उन्होंने अपनी दोनों हथेलियों को आपस में फंसाया, लगाया वे किसी गहरे सोच में हैं। फिर बोले- ‘’ससुरा दाढ़ी-मूंछ बढ़ा रहा है। संत बनना चाहता है, ताकि आने वाले दिनों में लोग उसकी पूजा करने लगें…’’
ऐसा कैसे हो सकता है? मैंने हैरानी के साथ जानना चाहा। रामजी इतने सवालों के बाद कुछ नार्मल हो गए थे। बोले-‘’मनसुखा ने जब से गाइड फिल्म देखी है तब से ही उसपर अवतारी होने का भूत सवार है, संयोग से उसके मुंह से निकली एकाध बात सही क्या साबित हो गयी है वो अपने को गांव का राजू गाइड समझने लगा है। सोचता है कि अब वो जो चाहेगा सो होगा!’’
मामला कुछ-कुछ गंभीर हो गया था। मैं कभी रामजी को देखता तो कभी मनसुखा के बारे में सोचता। मनसुखा सरपंच बनने से पहले किसी उचक्के से कम नहीं था, लेकिन अचानक उसमें तब्दीली आई और वो सरपंच की भूमिका में एकदम गंभीर हो गया। उसने रामजी और उनकी टीम का सारा एजेंडा हड़प लिया और इतनी तेजी से आगे बढ़ाया की लोग रामजी और उनकी टीम को भूलने लगे। मनसुखा का राजू गाइड की तरह व्यवहार करना मुझे कुछ जंचा नहीं।
रामजी से बतकही के बाद मैं मनसुखा की तलाश में निकल पड़ा। आखिर मेरा मन जिज्ञासु जो ठहरा। पता चला कि मनसुखा इन दिनों अपना ज्यादा समय पूजा-पाठ में व्यतीत करता है और गांव के बाहर बने रामालय में ही पड़ा रहता है। गांव में मंदिरों को देवालय कहते हैं। देवालय हालांकि आकार में छोटे होते हैं लेकिन उनकी मान्यता बड़ी होती है। उनके बनाने में कोई सियासत कभी नहीं हुई, जैसी कि आजकल अजुद्धा जी में हो रही है। बहरहाल मनसुखा मुझे देवालय के अहाते में लगी निबरिया के नीचे ध्यान मुद्रा में बैठा मिल गया। मेरे आने की आहट पाकर भी उसने आँखें नहीं खोलीं। मैं मनसुखा का ये रूप देखकर हैरान था। मैंने आवाज लगाई-
‘’मनसुख भाई राम-राम!’’
‘’राम-राम, अरे आ गए पंडित जी” मनसुखा ने आँखें खोले बिना ही मेरी आवाज पहचानकर प्रतिप्रश्न किया। मैं चमत्कृत था। मैंने कहा- ‘’हाँ, कल ही आया, सोचा आपसे भी मिलता चलूँ।’’
मनसुखा के चेहरे पर लगातार बढ़ रही दाढ़ी-मूंछों के बीच से अचानक एक महीन सी मुस्कान की लकीर उभरी। उसने अपनी आँखें खोलीं। बोला- ‘’आओ, आओ बैठो! कब तक हो गांव में?’’
‘अभी कुछ दिन तो हूँ’’ मैंने सधा सा उत्तर दिया।
‘’कुछ दिन हो तो रुको, पांच तारीख को अमझरा उत्सव है, उसमें शामिल होकर जाना” मनसुखा ने अघोषित आमंत्रण दिया। फिर बोला- ‘’वैसे कोरोनाकाल के चलते इस बार मैंने अमझरा में सरकारी गाइड लाइन का पालन करते हुए गिने चुने लोगों को ही बुलाया है, लेकिन आपको कैसे भूल सकता हूँ? आप तो आम भी खाना और गुठलियां भी ले जाना’’
मनसुखा की उदारता में मुझे पता नहीं क्यों कुटिलता का आभास हुआ। मैं कुछ बोला नहीं। मैंने सहमति में अपना सिर हिला दिया। मेरी जिज्ञासा मरी नहीं थी। मैंने उससे आखिर पूछ ही लिया- ‘’ये दाढ़ी-मूंछ क्यों बढ़ा ली है अचानक आपने, पहले तो नहीं थी ऐसी?’’
उत्तर में मनसुखा केवल मुस्कराया। बोला कुछ नहीं।
‘’बाबा बनने का इरादा है क्या?’’ मैंने ही दोबारा सवाल दाग दिया।
मनसुखा थोड़ा कसमसाया, फिर बड़े ही दार्शनिक अंदाज में बोला- ‘’सब हरि इच्छा है, वो जो न कराये सो थोड़ा है, उसकी मर्जी के आगे किसकी चलती है?”
मनसुखा के मन में कुछ-कुछ प्रस्फुटित हो रहा था शायद। उसके चेहरे पर दाढ़ी-मूंछों में से एक मुस्कान फिर लकीर की तरह तैर रही थी। मैं कभी मनसुखा को देखता तो कभी मेरे सामने बूढ़े रामजी का चेहरा उभर आता। मैं सोच में था कि मनसुखा अचानक राजू गाइड क्यों बनना चाहता है? आखिर उसका गोल क्या है? उसे कौन गाइड कर रहा है?
अचानक किसी ने देवालय की घंटी बजाई। मेरी विचार श्रंखला टूटी और शायद मैं भी भीतर से कहीं टूट गया। क्योंकि मैं दूर तक बहुत कुछ टूटता अनुभव कर रहा था। आजकल मेरा गांव ही नहीं बल्कि पूरा देश मेरी तरह राजू गाइड की मानिंद रूपांतरित होते लोगों को विस्मय से देख रहा है। शायद वे अवतारों में शामिल होने की कसम खाकर बैठे हैं।